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माँ (अनुपमा रस्तोगी)

माँ, मैं माँ बनकर तुम्हें समझ पाई
तुम्हारे मन को बेहतर से पढ़ पाई।
 
बाहर जाने पर,
वो ढेरों सवाल
वो हज़ारों हिदायतें
वो परवाह, वो फ़िक्र
फिर देर से लौटने पर
तुम्हारा मेरी राह देखना
सबसे पहले, खाना खाया कि नहीं,
और फिर दुनिया भर के सवाल पूछना।
माँ, मैं माँ बनकर तुम्हें समझ पाई
तुम्हारी डाँट में छिपे प्यार को देख पाई।
 
हॉस्टल से घर आने पर
मेरी पसंद का खाना बनाना,
और क्या बनाऊँ
बस यही सवाल बार-बार पूछना,
खाना गरम-गरम परोसना 
ऊपर से एक चमच्च घी डालना
और मुझे खाते देख ही
तुम्हारा पेट भर जाना . . .
माँ, मैं माँ बनकर तुम्हें समझ पाई
तुम्हारी हाथ के खाने का मूल्य जान पाई।
 
कमरे में चुपके-से आकर
सारा सामान क़रीने से लगा जाना
बेतरतीब फैली अलमारी में
जादू की छड़ी घुमाना
और सालों से गुमा हुआ 
एक मोजा यूँ ढूंढ़ निकालना
माँ, मैं माँ बनकर तुम्हें समझ पाई
तुम्हारी जादुई शक्ति पहचान पाई।
 
प्यार, स्नेह और ममता
फ़िक्र परवाह और चिंता
दुआ, आशीष, आशीर्वाद
परिवार के लिए प्रतिबद्ध
मेरे सारे अंतर्द्वंद्व 
बिन कहे भाँप लेना
मेरे सारे दोस्तों के नाम
बचपन के सारे क़िस्से 
कोई भी दर्द और घरेलू नुस्ख़े
कैसे जानती हैं सब कुछ
मुश्किल हैं समझना और समझाना
है भगवान हर जनम में मुझे माँ ही बनाना।

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