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माँ की रामनवमी

रामानवमी आ जाती है
गेहूँ की कटाई के समय
माँ और भी व्यस्त हो जाती थी
इस समय
गेहूँ की कटाई में
पता नहीं चलता
कब सोती और कब जागती थी माँ
नसीब नहीं हुआ स्कूल कभी
पर याद रख लेती है
सब कुछ
अपने बच्चों की सारी डीग्रियाँ भी
पच्चीस-तीस साल पहले 
फोटो भी मिलती थी मुशकिल से 
बाबा साहेब की
मान लिया था माँ ने तब तक
भगवान बाबा साहेब को 
हमसे सुनकर केवल
सोते और जागते समय नाम लेती थी 
बाबा साहेब का तभी से
पूजा करते नहीं देखा 
माँ को कभी भी
पर हाँ रामनवमी के दिन
कितना भी थकी हो माँ
गेहूँ की कटाई कर धूप में दिनभर
हमारे उठते ही सुबह-सुबह
पकवान रामनवमी के तैयार मिलते सब
रात से ही चलती तैयारी जिसकी
गुलगुला, ठोकवा, पूड़ी
और भी बहुत कुछ
खाए जाते कई दिनों तक जो
और . . . और . . .
मिट्टी की हँड़िया में बनी उड़द की दाल
ग़ज़ब का स्वाद होता जिसमें
अभी तक आती है याद
माँ फिर निकल जाती सुबह-सुबह
गेहूँ की कटाई करने 
कड़ी धूप में, दिनभर!

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