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माँ

अगर मैं कहूँ कि मेरी ज़िंदगी मेरी माँ का देखा, सँजोया और सँवारा हुआ एक स्वप्न है तो इसमें अतिशयोक्ति कुछ भी नहीं। मैं उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं का एक तरह से अनुवाद हूँ। मेरी बेहतरी से जुड़ी किसी भी बात को वह ऐसे सुनती जैसे किसी ध्यान में लीन हो। मेरे गाँव आने की ख़बर सुनकर वह पहले मेरा मन पसंद खाना बनाती फिर मंदिर के पीछे वाले हिस्से के एक कोने में बैठकर नज़रें सड़क पर गड़ा देती। उसे इस तरह बैठा देख घर के सभी लोग समझ जाते कि मैं घर पहुँचने वाला हूँ । पिताजी माँ के ध्यान को भंग करते हुए कहते, "अरे वह शाम तक आयेगा, अभी कब तक ऐसे बैठी रहोगी?" माँ कुछ नहीं कहती। शायद कुछ सुनती ही नहीं। या कि सुनकर अनसुना करती। वह तो इलाहाबाद से आती उन रोडवेज़ बसों को निहारती रहती, जिसमें से किसी एक पर बैठकर उसका बेटा आनेवाला है। वह हर आती हुई बस को उम्मीद से देखती। वह तब तक यूँ ही बैठी रहती जब तक कि मुझे किसी बस से उतरते हुए देख न ले।

मुझे उसकी यह इंतज़ार वाली आदत बड़ी ख़राब लगती। इसका तोड़ मैंने यह निकला कि मुझे जिस दिन घर पहुँचना होता उसके अगले दिन की सूचना पिताजी को फ़ोन पर देता। जैसे कि अगर मुझे सोमवार को घर पहुँचना होता तो मैं मंगलवार बताता और एक दिन पहले पहुँच माँ को अचंभित कर देता। लेकिन माँ मेरी इस चाल को जल्द ही समझ गई। ऐसा कई बार हुआ कि मैं बिना सूचना दिए घर पहुँचा, लेकिन सड़क से घर की तरफ़ नज़र जाते ही मंदिर के पास माँ इंतज़ार में बैठी मिली। एक बार मैंने माँ से पूछा भी कि उन्हें कैसे पता चलता है कि मैं आने वाला हूँ। वह मुस्कुराते हुए कहती, "इसी कोख में नौ महीने तुझे पाला है। मुझे पता नहीं चलेगा?" माँ की इस बात का मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। सचमुच कुछ सवाल लाजवाब होते हैं।

वैसे माँ का पूरा जीवन ही एक लंबे इंतज़ार की दास्तान रही। इस इंतज़ार के बीच ही एक दिन अचानक वह मौत के वीराने में कहीं खो-सी गई। उसके जाने के बाद मैं उस शब्द की दुनिया से बेदख़ल कर दिया गया, जिसमें मेरी सारी ऊर्जा अंतर्निहित थी। मैं "माँ" कहना चाहता था लेकिन माँ कहाँ थी? वह तो जा चुकी थी, लौटकर फिर न आने के लिए। उसका जाना मेरे अस्तित्व का सबसे बड़ा संकट था। उसके जाने के साल-दो-साल तक मुझे यह लगता रहा कि मैं धोखेबाज़ी से भरे संबंधों के बीच एक निरर्थक व्यक्ति की तरह हूँ। आस-पास के लोग खीझ पैदा करते। मुझे लगता कि मैं बीमार हूँ। पिताजी मेरी हालत समझते। माथे पर कभी यूँ ही हाथ फेरते हुए पूछते, "क्या हुआ है?" 

मैं भी अनमने मन से कहता, "कुछ नहीं।"

"यह भी कोई जवाब है?" वह कहते और उठकर चले जाते। क्योंकि वे इस ‘कुछ नहीं’ को अच्छी तरह समझते थे। 

अब माँ नहीं है लेकिन मैं उससे ही घिरा रहता हूँ। इस घेरे के बाहर की दुनियाँ में होकर भी नहीं होता। इस दुनियाँ में आग्रह बहुत थे पर मेरी अपनी समस्याएँ थीं जिनसे निकल नहीं पा रहा था। धीरे-धीरे यह बात भी समझ में आ गई कि जीवन की अपनी कुछ कड़ी शर्ते होती हैं, अपने विधि विधान होते हैं। हम चाहें या न चाहें, हमें उनके हिसाब से ही चलना पड़ता है। दरअसल ज़िंदगी अपने आप में एक अर्थहीन, रंगहीन और गंधहीन वस्तु है। इसमें राग-रंग और अर्थ हमें भरने पड़ते हैं। ऐसे प्रयासों से ही जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। ऐसी ही बातों से उलझते, इन्हें समझते नींद की नीम बेहोशी में विचारों की सघनता कम होती। फिर जकड़ा हुआ मस्तिष्क सुकून की साँस लेता। यह नींद भी कितनी सुंदर वस्तु है! ज़िंदगी के सारे चिंतन पर एक लापरवाही भरी फीकी सी मुस्कान। 

उन दिनों उदासी से भरे दिन और बुझती हुई अकेली शामों को मैं चुपके-चुपके रोता। माँ से शिकायत करता कि मुझे अकेले छोड़कर उसने बहुत ग़लत किया। उससे लौटने की मिन्नतें करते हुए हिचकियाँ फूट पड़तीं, साँसें भारी हो जातीं। किसी की आहट से तंत्रा टूटती और मैं उस संजीदगी के माहौल से ख़ुद को निकालते हुए तेज़ क़दमों से सड़क या खेतों की तरफ़ निकल जाता। उन दिनों जब शून्य में देखता तो आँखों में मोह के सूते होते। बहुत से सवाल, बेचैनी, शिकायतें क्या नहीं होता? बस माँ नहीं होती। 

उस दिन पिताजी फिर मेरे पास आये और माथे पर हाथ फेरते हुए बोले, “ हमारे लिए हमेशा सबसे बड़ा प्रश्न, हमारे होने के अर्थ का है। किसी अपने के देखे हुए स्वप्न को सजाने सँवारने का है। दर्द को भूलकर उम्मीद को जगाने और अपनों की प्रार्थनाओं का मोल चुकाने का है। तुम समझ रहे हो ना?” यह कहते हुए उनकी आँखें डबडबा गईं। मैं हाँ में सिर हिलाते हुए उनसे लिपट गया। पिता की आँखों से बरसती करुणा ने सारी विकलताओं को धो दिया। माँ के अधूरे सपनों को अंजाम तक पहुँचाना था। उसके इन अधूरे सपनों के बहाने मेरे अंदर बहुत सी संभावनाएँ प्रतिफलित हुईं। माँ ने मुझे फिर संभावनाओं से भर दिया था। उसकी यादों के उजाले में मैं ख़ुद को समेटते हुए फिर उठ खड़ा होता हूँ। अपनी पीठ पर उसके ममता भरे हाथ को महसूस करता हूँ तो भीतर की बंजर ज़मीन हरी हो जाती है। माँ की छुअन के साथ ऐसा ही होता है। 

माँ की ज़िंदगी में जितना बड़ा सच इंतज़ार था, उतना ही बड़ा सच संघर्ष भी रहा। वह लड़ना जानती थी, इसलिए शिकायत नहीं करती। वह समस्याओं से शेरनी की तरह लड़ती थी। घर-बाहर की अनगिनत लड़ाइयों को उसे लड़ते और लड़कर जीतते हुए मैंने देखा है। मुझे लगता है कि अगर उसे ऐसे संघर्ष करते हुए नहीं देखता तो उसके सपनों, उसकी उम्मीदों पर कभी खरा नहीं उतर पाता। उसके संघर्ष ने मुझे भी तपाया था। वह ममता और करुणा से भरी किसी समंदर जैसी थी। अपनी सीमाएँ जानती और अक़्सर चुप रहती। लेकिन झूठ और अन्याय के ख़िलाफ़ जब वह खड़ी हो जाती, तो उसका सामना कोई नहीं कर पाता। वैसे भी सच का सामना कठिन होता है। 

वैसे तो स्मृतियों में माँ से जुड़ी कई घटनाएँ ताज़ा हैं, लेकिन वो एक घटना बड़ी ख़ास थी। मैं कोई नौ या दस साल का था। संयुक्त परिवार बिखर चुका था अतः पिताजी नौकरी के लिए मुंबई आ गए थे। गाँव में मैं माँ के साथ था। घर परिवार के सभी लोग पुश्तैनी मकान में ही थे लेकिन सब का चूल्हा अब अलग हो गया था। घर के कमरे भी सब के निर्धारित हो गए थे। ज़मीन भी बँट गई थी। लेकिन बँटवारे के बाद भी रिश्तों का नमक बरक़रार था। छोटे-बड़े का लिहाज़ बरक़रार था। 

इधर माँ कुछ परेशान सी लग रही थी। घर के पास वाले खेत में दो कूले प्याज़ और एक कूला धनियाँ लगी थी। उसी खेत में पानी भरने की कोई बात थी। माँ जब परेशान होती तो उसके चेहरे से कुछ रंग ग़ायब हो जाते। लेकिन समस्या कैसी भी हो, वह अपने प्रभाव शृंखला का उपयोग कर कोई न कोई उपाय निकाल ही लेती। लेकिन इस बार मामला थोड़ा गंभीर था। दरअसल बँटवारे के बाद मशीन घर वैसे तो पिता जी के बड़े ताऊ के हिस्से में था लेकिन परिवार की वो ज़मीन जो घर के पास थी, उनमें पानी उसी मशीन से भरा जाता था। बिना किसी लेन-देन या हिसाब के। 

इसी तरह कुएँ, नलका, मंदिर और घर के आस-पास की सामूहिक आबादी की साफ़-सफ़ाई और मरम्मत का काम बड़े ताऊ जी ही करते थे। उनका मानना था कि बँटवारा हुआ तो क्या हुआ? वो घर के बड़े हैं अतः यह उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी है। मैंने बड़े ताऊ को छोटे ताऊ से कहते सुना था कि, “घर परिवार अपना है। छोटी-मोटी घरेलू बातों को अधिक तूल नहीं देना चाहिए। हमें एक परिवार के रूप में छोटे-बड़ों का आदर करना चाहिए। जैसे कहीं आग लगी हो और तुम्हारे पास खौलता हुआ पानी हो तो भी, तुम उसे आग पर डालकर उसे बुझा सकते हो। ठीक इसी तरह थोड़े बहुत मत-मतांतर के बावजूद हमें एक रहना चाहिए। एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहना ज़रूरी है।" 

उनकी इसी सोच का नतीजा था कि बँटवारा बिना किसी पंचायत या झगड़े-टंटे के घर के लोगों द्वारा ही आपसी सहमति से कर लिया गया था। गाँव बिरादरी में यह आश्चर्य और चर्चा का विषय था। परिवार में विश्वास की ऐसी निरंतरता असाधारण थी। परिवार में छोटे-बड़े का लिहाज़ क़ायम था। माँ खेत में पानी के लिए सीधे बाबू को नहीं कह सकती थी। वह बहू थी, उसकी अपनी मर्यादाएँ थीं। अतः उसने यह बात बड़ी ताई जी से कही। दोपहर के भोजन के बाद वह बड़ी ताई जी के पास गई और बोली, “अम्मा,प्याज़ और धनियाँ में पानी भरना ज़रूरी है। दो तीन कूला ही तो है। आधे घंटे मुश्किल से लगेंगे। आप बाबूजी से कहिये ना की आज उसे भरा दें।"

बड़ी ताई का स्वभाव ताऊ से विपरीत था लेकिन उनमें ममता की कोई कमी नहीं थी। उन्हें लगता था कि जब बँटवारा हो चुका है तो अब किसी और की कोई भी ज़िम्मेदारी वो क्यों उठाएँ? सब अपना कमाएँ खाएँ, उन्हें किसी का एक ढेला भी नहीं चाहिए। कोई उनसे भी किसी चीज़ की उम्मीद ना रक्खे। ऐसी सोच का कारण शायद यह भी हो सकता था कि घर में सबसे बड़ी होने के नाते अधिक त्याग भी उन्हीं को करने पड़े हों। लेकिन ताऊ जी के दबाव में वो कुछ कह नहीं पाती थी। फिर घर की बड़ी होने के नाते कोई उनकी कही हुई किसी बात का पलटकर जवाब भी नहीं देता। इस बात को लेकर उन्हें अपने परिवार पर गर्व भी था। लेकिन अक्खड़पन उनका स्वभाव था। किसी बात को सहज तरीक़े से मान लेने में उन्हें तकलीफ़ होती। 

माँ की बात सुनकर वो बोली, "अरे दुलहिन, अभी तो अपने ही खेत में पानी नहीं पहुँचा पाये तुम्हारे बाबूजी। तुझे हमेशा बहुत जल्दी रहती है। चिंता मत कर। जब अपने खेत में भरेंगे उसी समय तेरा भी हो जायेगा। दो कूले के लिए क्यों परेशान हो। बाल्टी-बाल्टी भी कोई डालेगा तो सौ बाल्टी से अधिक पानी नहीं लगेगा। दो-चार दिन आगे पीछे होने से कुछ नहीं होता प्याज़ को। तुझसे जादा खेती-बाड़ी समझती हूँ। कह दूँगी बाबूजी से। जा तू भी आराम कर, मुझे भी आराम करने दे।" 

माँ चुपचाप वहाँ से लौट आई। लेकिन उसकी आँखों में लाल डोरे पड़ गए थे। मानों प्याज़ का रंग उसकी आँखों में उतर आया था। अपने अंदर वह जिस उथल-पुथल को लेकर लौटी थी उसे मैं शब्दों में नहीं कह सकता। वह खेत में पानी किसी और की मशीन से भी भरा सकती थी। पैसा लेकर यह काम कोई भी कर देता। रुपये पैसे की तंगी जैसी भी कोई बात नहीं थी। फिर गाँव में परिवार की इतनी प्रतिष्ठा तो थी ही कि वह सिर्फ़ कहती और काम हो जाता। लेकिन किसी दूसरे की मशीन से पानी लेने वाली बात बड़े ताऊ को कितनी बुरी लगती? वो क्या सोचेंगे? माँ दोहरे संकट में थी। एक तरफ़ वो थोड़े से पानी के लिए प्याज़ और धनियाँ सूखते हुए नहीं देख सकती थी, तो दूसरी तरफ़ ऐसा कुछ नहीं करना चाहती थी जिससे बड़े ताऊ का दिल आहत हो। एक तरफ़ सूखता हुआ खेत था तो दूसरी तरफ़ नमी खोते रिश्ते। खेत में पानी का यह संकट अब परिवार का पानी उतरने का भी संकट बन गया था। 

लेकिन अगले दिन माँ को देखकर लगा कि उसने कोई निर्णय ले लिया है। उसके चेहरे की चिंता ग़ायब हो चुकी थी। अब वह विश्वास से भरी नज़र आ रही थी। उसका आत्मविश्वास देख लगता कि कोई चींटी अचानक पहाड़ हो गई। अपने दर्द को माँ जब इस तरह का तेवर देती तो वह कुछ अलग ही नज़र आती। माँ के उस रूप को क्या कहूँ? हर समस्या पर माँ का अपना एक पक्ष होता, जहाँ से उसे कोई भी हिला नहीं सकता था। मेरे लिए मेरी माँ का पक्ष सही-ग़लत या सत्य-असत्य से बहुत ऊपर था। एक सम्मानित और सरल जीवन का महत्व मैंने अपनी माँ से ही सीखा। अनुचित और अन्याय का प्रतिकार, अप्रिय को नकारने की शक्ति के साथ माँ कहने से अधिक करने में विश्वास रखती थी। लेकिन माँ क्या करने वाली है? यह मेरे लिए सबसे बड़े कौतूहल का विषय था। 

घर में साफ़-सफ़ाई का काम करने वाली कुसुम शाम को जब अपने घर जाने लगी तो माँ ने उसे बुलाकर कुछ कहा। कुसुम का चेहरा साफ़ बता रहा था कि वह भी बहुत कुछ जानना चाह रही थी लेकिन माँ से कुछ और पूछने की हिम्मत उसमें नहीं थी। ऐसा लग रहा था कि आधे मन से कोई वादा वह माँ से करने के लिए विवश थी। उसके जाने के बाद मैं अजीब से रोमांच से भरा था। माँ उस दिन कुछ जल्दी ही सारा काम ख़त्म कर चुकी थी। खाना खाने के बाद मैं माँ के पास लेटा, लेकिन आँखों से नींद ग़ायब थी। मुझे जागता देख माँ बोली भी, “क्या हुआ, आज सो क्यों नहीं रहा?" मन तो किया कि बोलूँ, “तुम भी तो जाग रही हो? भोर में कुसुम को क्यों बुलाया?" लेकिन माँ से कुछ कहना इतना आसान नहीं था। उसने मुझे हल्की थपकी देते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं। मुझे कब नींद आ गई पता न चला। 

अचानक आँख खुली तो देखा हल्का सा उजाला हो चुका था लेकिन आसमान में लालिमा नहीं फैली थी। इतने में देखा माँ हाथ में बाल्टी लेकर कहीं जा रही है, मैं भी उसके पीछे हो लिया। बाहर अभी सब सो रहे थे, मैं जब माँ के पास पहुँचा तो वह आँखें बड़ी कर बोली, “कहाँ?" मैं सिर झुकाये खड़ा रहा। फिर कुछ सोचकर वह बोली, “अच्छा चल।" मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था। जाने क्या सोच मैंने कुएँ के पास रखे लोटे को उठा लिया। अब माँ के हाथ में बाल्टी थी और मेरे हाथ में लोटा था, लेकिन हम कहाँ और क्यों जा रहे थे यह मुझे ज्ञात नहीं था। जल्द ही हम पोखरे के पास पहुँच गए जहाँ कुसुम भी एक बाल्टी लिए हमारा इंतज़ार कर रही थी। माँ को देखते ही उसने प्रश्न किया, “भौजी, आख़िर करना क्या है? अब तो बताओ?" माँ हँसते हुए बोली, “जादा कुछ नहीं। तु मुझे बाल्टी-बाल्टी पानी निकाल के दे, मैं पानी खेत में डालती जाऊँगी। दो-तीन कूला ही तो है। अम्मा कह रही थी सौ बाल्टी से अधिक न लगेगा। चल शुरू करते हैं।" 

कुसुम को काटो तो ख़ून नहीं। वह लगभग रोते हुए बोली, “क्या हो गया है भौजी तुम्हें? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? फिर ये सब करने की आप को ज़रूरत क्या है? भला बाल्टी-बाल्टी कहीं खेत भरा जाता है? कोई देखेगा तो क्या कहेगा? मैं आप के हाथ जोड़ती हूँ, चलिये वापस चलिये।"

माँ ने उसे डाँटते हुए कहा, “चुपकर, नहीं तो ज़बान खींच लूँगी। तुझे नहीं करना तो भाग यहाँ से, मैं अकेले ही कर लूँगी। चल भाग यहाँ से।" माँ ने उसके हाथ से बाल्टी छीन ली और उसे पानी से भरकर खेत की तरफ़ बढ़ गई। खेत पोखरे से चालीस-पचास क़दम ही दूरी पर ही था। कुसुम को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अचानक देखता हूँ कि वह रोते हुए हमारे घर की तरफ़ लपकी। मेरा मन हुआ कि मैं भी लोटे में पानी भरकर माँ के साथ खेत में पानी डालूँ, लेकिन माँ ने मुझे चुपचाप खेत की मेड़ पर बैठने को कहा था। 

अभी माँ ने सात-आठ बाल्टी पानी ही खेत में डाला होगा कि देखता हूँ बड़ी ताई और कुसुम खेत की तरफ़ तेज़ी से चली आ रही हैं। बड़ी ताई घुटने के दर्द की वज़ह से तेज़ नहीं चल पाती थीं लेकिन आज उनके क़दम रुक ही नहीं रहे थे। उनके एक हाथ में उनकी सोटी थी और दूसरा हाथ कुसुम ने थाम रक्खा था। दोनों बदहवास सी बढ़ी आ रहीं थीं। माँ ने उन्हें देखकर भी अनदेखा किया और अपने काम में लगी रही। दोनों खेत की मेड़ पर मेरे पास आकर रुके। बड़ी ताई की आँखों से आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मुझे अपने सीने से लगाते हुए वह बोली, “अरे करेजा!! ये दिन देखने से पहले मैं मर क्यों न गई।" फिर वह माँ की तरफ़ दौड़ी। माँ के हाथ से बाल्टी छीन उन्होंने दूर फेंक दिया और एक ज़ोर का चाटा उनके गाल पर दे मारा। फिर सास-बहू एक दूसरे से लिपटकर ख़ूब रोई। अपने आप को सँभालते हुए ताई माँ का चेहरा अपने दोनों हाथों से पकड़कर बोली, “बिटिया, मुझसे ग़लती हुई। ग़लती नहीं पाप हुआ पाप, लेकिन अब एक मिनट भी यहाँ रुकी तो मेरा मरा हुआ मुँह देखेगी। चल यहाँ से।"

बड़ी ताई माँ का हाथ पकड़े घर की तरफ़ चल पड़ी। माँ की आँखों में तो आँसू थे लेकिन ओंठों पर हल्की मुस्कान और चेहरे पर सुकून। माँ बड़ी ताई के इस अपनत्व भरे व्यवहार से अंदर तक प्रेम से भर चुकी थी। कुसुम ने दोनों बाल्टी उठा ली और एक हाथ से मुझे भी पकड़े रक्खा। हम घर की तरफ़ बढ़े जा रहे थे। उधर आसमान में उषा की लाली फैल चुकी थी, जो अँधेरे की दुनियाँ को बौना साबित कर रही थी। मानो प्रकृति का मन फैलते उजाले में जीवन के नवोत्सव के लिए तैयार हो रहा था। किसी पुराने दरख़्त की शाख से पक्षियों की आती मधुर आवाज़ सुकून से भरी थी। 

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टिप्पणियाँ

Shiv dutt 2021/08/01 09:56 AM

मां की ममता और उसकी शक्ति का कोई निश्चित अनुमान नहीं होता। मां की पूर्ति संसार की कोई शक्ति नहीं कर सकती। कुछ अनुभव, संस्मरण जीवन को ऊर्जा देते हैं, मेरे ख्याल में यह संस्मरण आपको उर्जांवित करता होगा। संवेदन शीलता से भरा यह संस्मरण बड़ा जीवंत और अपना सा लगा।

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