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मातादीन का श्राप

ज्यों ही मातादीन के प्रदेश में चुनाव घोषित हुए तो महीनों से दुखी मातादीन गद्गद्।  

कंबख़्त जबसे कोरोना का क़हर बरपा है, कल तक जो यजमान उसे अपने घर से ग्रहों के डर से जाने ही नहीं देते थे, वही आज  उसे अपने घर की देहरी तक पार नहीं करने दे रहे। उन्हें अब ही पता चला कि मातादीन भी कोरोना हो सकता है। जबकि उसके भगवान को बहुत पहले से ही पता था कि मातादीन है ही कोरोना। उसके यजमानों का उसके भगवान पर से इतनी जल्दी विश्वास उठ जाएगा, मातादीन ने ये सपने में भी नहीं सोचा था। उसे तो यही सुभीता था कि जब तक सृष्टि रहेगी, तब तक उसके बनाए भगवान भी रहेंगे। और उसके बनाए भगवान के साथ तो वह रहेगा ही रहेगा। अगर उसके बनाए भगवान न भी रहे तो भी वह उनके होने का समाज में भ्रम बनाए रखेगा। समाज जीवन की सच्चाइयों से कम, फैलाए भ्रमों पर अधिक चलता है। चकाचक धंधे के लिए चालाक आदमी कुछ भी बनाता आया है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह कभी मार्क्सवाद बनाता रहा है तो कभी समाजवाद। जब उसे लगे कि इनसे उसके स्वार्थों की पूर्ति बंद होने लगी है तो सबसे लास्ट में लोकतंत्र बनाता है। 

अब आएँगे पाँच साल बाद खाने के मज़े। वोटर को तो चुनाव के दिनों में ही गला तर करने का मौक़ा मिलता है। उसके बाद नेता ही सिर से पाँव तक तर-बतर होता रहता है। कभी इसकी सरकार बनवाने को रिज़ॉर्टों में मस्तियाता हुआ, तो कभी उसकी सरकार गिराने को रिज़ॉर्टों में मस्तियाता हुआ। तीसरा काम आज के नेताओं को पसंद ही नहीं। जब इसकी सरकार गिराने उसकी सरकार बनाने में ही कमाई बेहतर हो जाए तो तीसरा काम करने की ज़रूरत भी क्या? वोट पाने वालों को तो पता नहीं दुख होता होगा कि नहीं पर जिसने आजतक वोट नहीं पाया उस मुझ जैसे को भी तब बहुत दुख होता है जब हज़ार दो हज़ार में वह जागरूक मतदाता से वह वोट ख़रीदता है और ख़ुद करोड़ों में बिक जाता है। इसे कहते हैं राजनीतिक बिज़नेस भाई साहब! 

पर कोरोना के चलते वोटरों की हिमायती सरकार ने ज्यों ही घोषणा कि – हे चुनाव में अपनी लोकप्रिय सरकार चुनने को बेताब हुए वोटरो! तुम जानो या न! सच पूछो तो चुनाव के दिनों में हमें तुम उतने प्रिय होते हैं जितने भगवान को अपने भक्त भी नहीं होते। चुनाव के दिनों में हम अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव में एक-एक वोटर कितना क़ीमती होता है? चुनाव के दिनों में उनके लिए अपनी पार्टी का एक-एक वोटर लाखों-करोड़ों का होता है। अपने वोटरों के बूते ही तो हम मौज कर पाते हैं। अतः सरकार नहीं चाहती कि उसका एक भी वोटर इन दिनों महामारी की चपेट में आए। चुनाव के बाद उसे हमारी चपेट में आने से कोई भी नहीं बचा सकता। लोकतंत्र में वोटर की मुक्ति हमारे ही हाथों होती है। इसलिए तब तक वह अपने वोटर को लेकर इस महामारी काल में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती जब तक चुनाव पूरे नहीं हो जाते। उसके बाद वोटर जाने, उसके भाग्य जाने। इसलिए सरकार ने तय किया किया है कि वोटरों के चुनाव तक रक्षार्थ चुनाव प्रचार अबके वर्चुअल ही होगा।

टीवी पर यह ख़बर सुनते ही मातादीन मेरे यहाँ दौड़ा-दौड़ा आया। मैं कोरोना को दरवाज़े पर न रोकता तो कंबख़्त भीतर ही घुस गया होता। मातादीन पंडित तो है पर... पंडित होना और पढ़ा-लिखा होना दो अलग-अलग बातें हैं। यह ज़रूरी नहीं कि जो पढ़ा-लिखा हो, पंडित भी हो। और जो पंडित हो वह पढ़ा-लिखा भी हो। मैंने अपने आसपास ऐसे बहुत से देखे हैं कि जो पढ़े-लिखे तो हैं, पर पंडित क़तई नहीं। और जो पंडित हैं वे पढ़े-लिखे क़तई नहीं। क्योंकि पढ़े-लिखे को पंडित होने की ज़रूरत नहीं। वह आँखें मूँद पंडित मान लिया जाता है। दूसरी ओर पंडित तो पंडित ही होता है। धंधे में पढ़ाई और पंडिताई बिल्कुल अलग-अलग चलती हैं।

मैंने उसे दरवाज़े पर बड़ी मुश्किल से रोका तो उसने अपने को ब्रेक लगाई। चर्र की आवाज़ हुई – “अब सरकार ने ये क्या नया पंगा ले लिया बाबू? ये वर्चुअल रैली क्या होती है? अब तो हद हो गई! सरकार जो मन में आए करे जा रही है और हम… हम तो कबसे इस आस में बैठे थे कि ...देखो बाबू! अगर चुनाव में वोटरों की मौज-मस्ती का पुख़्ता इंतज़ाम न हुआ तो कम से कम हम तो वोट डालने घर से निकलेंगे ही नहीं। चाहे लाख ये वे अपने धंधे पर उठा हमें बूथ तक ले जाएँ। फिर देखते हैं कैसे बिकते हैं करोड़ों में? हमारे हाथों की सारी उँगलियाँ सपने पैने करते-करते कट गई हों तो कट गई हों, पर बटन दबाने वाला अँगूठा तो अभी भी अपने पास जैसे-तैसे सही सलामत है। बाद में चाहे इसी अँगूठे से अपना ही गला क्यों न दबाना पड़े। इन रैलियों में वोटरों को खाने को भी कुछ मिलेगा कि नहीं?? हम तो कबसे जीभें लपलपाए बैठे हैं कि जब चुनाव होंगे तो... मत पूछो बाबू, चुनाव के दिनों में कभी इसकी रैली में तो कभी उसकी रैली में खाने-पीने का कितना मज़ा आता रहा है। अबके चुनाव में पहले वाले ढोल-ढमाके भी होंगे कि नहीं? सच कहूँ तो इतना दीवाली दशहरे की मस्ती टाइम नहीं कटता, जितना चुनाव की मस्ती में कट जाता है। चुनाव के वक्त जब तक गाँव तक के सपोर्टर अपने नेता की जीत हेतु एक दूसरे के सिर न फोड़े-फाड़ें, एक दूसरे की टाँगें न तोड़ें ताड़ें तो काहे के चुनाव!”

“ठीक ही तो है मातादीन! सरकार को महामारी में ही सही, वोटरों की चिंता तो हुई। महामारी के दौर में सरकार चाहती है कि अबके चुनाव में वोटरों में तेल-पानी वर्चुअली ही भरेगी। इंद्र अपने सिंहासन पर हों या न, लोकतंत्र की कुर्सी पर नेता ज़रूरी है। जब तक कुर्सी पर कोई न हो, विकास का कुछ नहीं हो सकता। सदियों से दो पेज इधर के तो दो पेज उधर के जोड़ी फटी पोथी लेकर घर-घर यजमानों को ठगते इस दौर में भी सुभीता पाले किस काल में जी रहे हो मातादीन बाबू? ये दौर ऑन लाइन को दौर है। बच्चा पैदा बाद में होता है फ़ेसबुक पर उसको पहले डाल दिया जाता है। विवाह से लेकर स्वाह तक सब ऑन लाइन। आज का ज़माना वर्चुअलिटि का ज़माना है, घिसा-पीटी का ज़माना है। आज हमारी भलाई इसी में है कि हम ऑन लाइन ही खाएँ, ऑन लाइन ही पहनें और ऑन लाइन ही सो जाएँ।  देखो तो, आज भगवान के दर्शन से लेकर उनका प्रसाद तक सब ऑन लाइन चल रहा है।  मुक्ति ऑन लाइन, मोक्ष ऑन लाइन! भक्ति ऑन लाइन, शक्ति ऑन लाइन। स्वर्ग-नरक और सरकारी नौकरी तो ख़ैर अप्रोच से ही मिलते रहे हैं। ये सच कितना है, कहने वाले ही जाने पर मैंने तो यहाँ तक सुना है कि आजकल मरने वालों को भी यमराज के पास जाने के लिए वहाँ से ई-पास ही जारी हो रहे हैं। जिनके पास उनके ऑफ़िस से जारी हुए ई-पास हैं, उन्हें ही ऊपर एंट्री मिल रही है। शेष, मरने के बाद भी अपने घर में रहें, सेफ़ रहें। बिन पास वाली आत्माओं को तो बैरियर पर ही रोका जा रहा है, चाहे उन्होंने कितने ही पुण्य क्यों किए हों।”
 
“मतलब??” मातादीन भौंचक!

“हाँ मातादीन! गया वो ज़माना जब पंडितों के आदेश के बिना मरा जीव किसी भी लोक को प्रस्थान करने को लाख उतावला होने के बाद भी तब तक इंच भर भी आगे न सरकता था जब तक पंडित जी के आदेश न होते थे। अब जीव को ऊपर जाने के लिए पंडित नहीं, ई-पास ज़रूरी है। आधार कार्ड ज़रूरी है। बिन आधार कार्ड वाले जीव अब मरने के बाद भी अधर में ही लटक रहे हैं। आज ऊपर जाने के लिए मास्क ज़रूरी है, सैनिटाइज़र ज़रूरी है। भले ही वह मुँह पर मास्क न लगाने के चलते, हाथ सैनिटाइज़र से न धोने पर ही मृत्यु को प्राप्त हुआ हो। सुना तो यहाँ तक है कि यमराज ने अपने मंत्रालय से नई एडवाइज़री भी जारी कर दी है कि चाहे कोई कितनी ही साख वाला गुज़रा हो, जब तक वह अपने साथ अपने निगेटिव होने की रिपोर्ट उनके द्वारा तय हुई लैब से ख़रीदकर नहीं लाएगा, उसे वहाँ पर एक तो प्रवेश ही नहीं करने दिया जाएगा। और अगर वह मिल-मिलाकर उनके लोक में प्रवेश कर ही गया तो उसे हर हाल में अपनी मर्ज़ी से इंस्टिट्यूशनल क्वारंटीन कर दिया जाएगा।” 

“मतलब?? चुनाव की घोषणा होने के बाद मैंने तो सोचा था कि कोरोना के चलते बंद होटलों, मंदिरों, डरे यजमानों के चलते चुनाव में थोड़ी बहुत मौज-मस्ती कर लेंगे पर... जा रे कोरोना! तेरा कुछ न रहे! तेरा बड़ा गर्क हो जाए। तू बेघर हो जाए। तेरा पूरा कुनबा ही ख़त्म हो जाए! तुझ मरते को कोई दो बूँद गंगाजल देने वाला भी न मिले... मैं मातादीन तुझे श्राप देता हूँ कि... मैं तुझे श्राप देता हूँ कि…”

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