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मदहोश - 1

1

नित्य की तरह आज भी चन्नी समय से कालेज से पढ़कर लौटी थी। रोज़ की तरह ही वह नहाई-धोई थी। पहले की तरह ही उसने कपड़े बदले थे और रोज़ाना की भाँति ही वह रसोई में रोटी खाने बैठ गई थी। पर आज जबसे वह कालेज से लौटी है, स्वाभाविक तौर पर हँसने-खेलने की अपेक्षा गंभीर और गुमसुम-सी है। अभी तक उसने रोटी की पहली बुरकी ही तोड़ी है और वह भी मुँह में नहीं डाली है। ऐसा लगता है मानो किसी गहरी सोच में डूबी हो। वह इतना मग्न होकर सोच रही है कि उसने एक बार भी आँखें नहीं झपकाईं।

चन्नी सोच रही है कि कल पता नहीं क्या होगा? उसको तो बस आने वाले कल की ही चिंता है। धैर्य रखना उसके लिए बहुत कठिन हो रहा है। समय की गति यदि उसके हाथ या वश में होती तो तुरंत वह कालचक्र घुमाकर मनचाहा वक़्त कर लेती। आज पूरी ज़िन्दगी में पहली बार उसका दिल इतनी रफ़्तार से धड़क रहा है, इतनी तेज़ मानो वह भागकर कोई दौड़ प्रतियोगिता जीतना चाहता हो। इस तीव्रता और गति के साथ तो उसका यह दिल उस समय भी नहीं धड़का था जब परसों उसको इंग्लैंड का कोई लड़का देखने के लिए आया था।

चढ़ता यौवन, छुरी की धार जैसे नैन-नक़्श, गोरा आकर्षक रंग, पतला छरहरा शरीर, लंबा क़द, नखरा, फ़ितूर। अति दर्ज़े की सुंदर नार में पाये जाने वाले सभी गुण चन्नी में मौजूद हैं। उसकी शारीरिक बनावट के अनुसार हर अंग का आकार, उतार-चढ़ाव सब कुछ सही अनुपात में होने के कारण वह और भी अधिक दिलकश लगती है। पर इस सारी सुंदरता के बावजूद आकर्षण का केन्द्र उसकी आँखें हैं। उसके नयन हैं तो साधारण, पर कोई विशेष शक्ति है जिसके कारण उसके चंचल नयनों में देखने वाले को ख़ुमार हासिल होने का अनुभव होता है। वह अजीब और न उतरने वाले नशे का सोता लगती हैं। अनोखी-सी कशिश है उनमें। देखने वाले का उसकी सलौनी अँखियों में आँखें डालकर निरंतर देखते रहने को ही मन करता रहता है।

जवानी का भूचाल आते ही चन्नी के हुस्न की सिफ़्त, बाँध तोड़कर ख़ुद-ब-ख़ुद बहने वाले बाढ़ के पानी की तरह, इधर-उधर के गाँवों तक पहुँच गई थी। जानलेवा हुस्न की मालकिन होने के कारण वह हर वर्ग में चर्चा का विषय बनी हुई थी। चन्नी बख़ूबी जानती थी कि सिर्फ़ उसके अपने गाँव के ही नहीं, बल्कि आसपास के गाँवों-शहरों के लड़के भी उसके रूप के कद्रदान हैं। हर समय लोगों की ललचाई नज़रें उसको घूरती रहतीं।

चन्नी का पिता गुलजार सिंह अपने समय का बहुत बड़ा ऐबी व्यक्ति था। यद्यपि आयु के लिहाज़ से अब उसमें परिवर्तन आ गया था, पर अभी तक लोगों में उसकी दहशत उसी प्रकार क़ायम थी। अब उसका सियासी बंदों के साथ ताल्लुक़ और पुलिस के ऊँचे ओहदेदार अफ़सरों के साथ उठना-बैठना था। गुलजार सिंह के डर के कारण कोई चन्नी के साथ सीधी छेड़खानी करने का साहस न करता। परंतु सभी लड़के अप्रत्यक्ष रूप में चन्नी का दिल जीतने के लिए अपनी अपनी क़िस्मत आज़माई अवश्य करते। उसके घर से कालेज और फिर कालेज से घर लौटने तक के सफ़र के दौरान अनेक आशिक़ राहों में प्रेम की ख़ैरात माँगते नज़र आते। चन्नी कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं थी कि किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के साथ प्रीत कर बैठती। परंतु उसने किसी दिलावर लड़के के छेड़ने का कभी बुरा भी नहीं मनाया था। बल्कि जब कोई गबरू उसके साथ छेड़खानी करता तो वह उसको झूठे मन से झिड़क कर, मन के अंदर ख़ुशी और गर्व अनुभव करती थी। उसका अपने रूप-सौंदर्य पर मान और ज़्यादा बढ़ जाता था।

गगन चन्नी की ज़िन्दगी में पहला पुरुष था जिसको उसका सौंदर्य प्रभावित नहीं कर सका था। वह चन्नी के गाँव का था, शहर में उसके साथ उसी के कालेज में पढ़ता था और संयोग से उसका सहपाठी भी था। गगन ने चन्नी को कभी आँख भरकर भी नहीं देखा था। गगन के बारे में सोचकर चन्नी को अपने रूप के जादू के ख़त्म हो जाने का अहसास होता था।

मुझ पर तो सभी लड़के मरते हैं, फिर गगन क्यों नहीं आशिक़ होता? इस सोच ने चन्नी के दिल में गगन के प्रति प्रेम के जज़्बे को जन्म दे दिया था। उसकी गोरी बाँहें गगन के गले का सिंगार बनने के लिए उतावली रहने लगी थीं। हवस में डूबी चन्नी हर समय गगन के साथ प्रेम-पींगे झूलने की जुगतें सोचती रहती थी। वह नित्य अदाओं के नश्तर तीखे करती थी। कालेज में अपने पहने जाने वाले कपड़ों का चयन अधिक सचेत होकर करती थी। और अधिक सुंदर दिखने के लिए विशेष रूप से बन-सँवर कर रहती थी। उसने गगन को मोहित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था। वह हर हाल में उसके साथ रिश्ता क़ायम करना चाहती थी। गगन था कि किसी तरह भी उस पर रीझता नहीं था। वह अक्सर गगन को कन्नी पकड़ने के मौके मुहैया करती रहती। पर गगन आगे बढ़ने की अपेक्षा कटड़े की तरह पीछे हट जाता था।

सहज ही फिसल जाने वाली शै का नाम ही तो मर्द है। मर्दजात का ध्यान खींचने के लिए दीवार पर औरत शब्द लिखा होना ही पर्याप्त है। बदसूरत से बदसूरत, कुरूप से कुरूप स्त्रियाँ भी मर्दों को उँगलियों पर नचा लेती हैं। क्या गगन मर्द नहीं था? या चन्नी चाँद का टुकड़ा नहीं थी? पता नहीं, गगन किस मिट्टी का बना हुआ था कि वह चन्नी की ओर कतई ध्यान नहीं देता था। चन्नी न जाने क्या-क्या सोचती दिन रात तड़पती रहती थी। जब चन्नी का कोई तीर नाकाम हो जाता था तो वह और अधिक मचल जाती थी। पर चन्नी ने कभी हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा था।

लक्ष्य ठीक हो, रास्ता सही हो और आदमी डटकर चलता रहे तो कौन-सी मंज़िल है जो इन्सान सर नहीं कर सकता? औरत जब अपनी आई पर आ जाए तो सब उलट-पुलट कर देती है। मेनका ने ऋग्वेद के गायत्री मंत्र के रचयिता विश्वामित्र का भी तप भंग कर दिया था। चन्नी जैसी जवान और सौंदर्य की रानी के आगे गगन जैसी मामूली लड़के की हस्ती ही क्या थी? चन्नी के ताज़ा सान पर लगे हुस्न और मेहनत ने रंग दिखाया था। धीरे-धीरे समय पड़ने पर गगन भी उसकी ख़ूबसूरती से बुरी तरह से कीलित हो गया था। चन्नी के समक्ष उसने अभी प्रेम को स्पष्ट तौर पर तो नहीं स्वीकारा था, पर बातों-बातों में संकेत देते हुए गगन वो सब कुछ कह जाता था, जिसे उसके मुँह से सुनने की चन्नी लालायित थी। चन्नी के कान शुरू से ही प्रशंसा सुनने के आदी थे। पर जो प्रशंसा गगन उसकी, विशेष तौर पर उसके नशीले नयनों की करता था, वह सारे जहान से अलग थी।

चन्नी को जब विश्वास हो गया कि गगन भी दिल के किसी कोने में उसके प्रति प्रेम भावनाएँ छिपाये बैठा है तो उसकी गगन को अपनाने की प्रबल कामना और तेज़ हो उठी थी।

दोनों ही उम्र के नाज़ुक दौर से गुज़र रहे थे। एक दूसरे पर अपना सबकुछ लुटा देने पर तत्पर थे। अंदर ही अंदर एक-दूजे को अथाह इश्क करते थे। पर पहल करने से दोनों ही झिझकते थे। चन्नी को उसका औरतपना अपनी हसरतें प्रकट नहीं करने देता था और ग़रीब गगन को अमीर लड़की के साथ मुहब्बत करने का परिणाम, अरमानों की भाप बाहर निकालने से रोके रखता था।

ख़ामोशी के पैरों पर चलने वाली मुहब्बत जब नाज़ुक परिस्थितियों की डगर पर से गुज़रती है तो उसका दम घुटने लग जाता है। यदि उसको ज़िन्दा रहने के लिए अनिवार्य शब्दों की नक़ली साँसें सही समय पर न मिलें तो मुहब्बत मर जाती है।

दोनों द्वारा क़बूल किए जाने में फँसी चन्नी और गगन की प्रीत कब से न्यूटरल अवस्था में खड़ी थी।

आज अन्तिम पीरियड के दौरान चन्नी के कान में एक सहेली ने फुसफुसा कर कहा कि वो सारे जहान की ख़ुशियाँ ढेरी कर देगा। यह सुनते ही चन्नी को पंख लग गए, पर छुट्टी के बाद जब वह घर आ रही थी तो उसे ख़याल आया कि कभी उसने उसके सामने प्रकट भी तो नहीं किया था। चन्नी को चिंता हुई कि कहीं उसके घर वालों को न बता दे। इस प्रकार के अनेक संशय अब चन्नी को तोड़-तोड़कर खा रहे थे।

अप्रैल फ़ूल तो बारह बजे से पहले होता है। कौन पूछता है? लोग सारा दिन ही मनाते रहते हैं। शायद सब सच हो। सोच की किश्ती में सवार हुई चन्नी कहीं की कहीं पहुँची हुई थी।

चन्नी की माँ उसको रोटी देकर कपड़े धोने लग गई थी। कपड़ों पर बजती थापी की थाप ने चन्नी को झकझोर दिया। उसका रोटी खाने को बिल्कुल ही मन नहीं करता था। उसने ज़बरन रोटी की बुरकियाँ गले से नीचे उतारी थीं। फिर चन्नी क़िताब उठाकर पढ़ने का ढोंग करने बैठ गई। जो पन्ना उसने एक बार खोल लिया था, उसी पन्ने को लेकर ही कितनी देर बैठी रही।

वह अभी तक एक अक्षर भी पढ़ नहीं सकी थी कि पता चला रात हो गई। पुस्तक एक तरफ़ फेंक वह अपनी माँ के साथ भोजनादि तैयार करने में सहयोग करने लगी। चन्नी की माँ रसोई का काम उसके ज़िम्मे करके ख़ुद दूध दूहने चली गई।

चन्नी का पिता बाहर से आवारागर्दी करके लौट आया था। वह आते ही सीधा दूध दुहती अपनी पत्नी के पास गया। बातें करते हुए कभी-कभार वह चन्नी की तरफ़ भी देख लेता। उन्होंने आपस में काफ़ी देर तक खुसर-फुसर की। लाख कान खड़े करने पर भी रसोई में बैठी चन्नी को उनकी बातचीत सुनाई नहीं दे रही थी। इस यथार्थ को चन्नी ने सहज की स्वीकार कर लिया। यही कारण था कि वह घबराये जा रही थी। चन्नी को उसके अंदर का पाला मार रहा था।

पहले तो चन्नी से दाल नीचे लग गई। फिर या तो रोटी कच्ची रह जाती या जल जाती। क्योंकि उसका काम में ज़रा भी ध्यान नहीं था। जब उसकी माँ दूध निकालकर आई तो उसने चन्नी को एक तरफ़ कर दिया और बाकी की रोटियाँ ख़ुद उतारने लग पड़ी।

"बीबी, मैं पढ़ लूँ?" चन्नी ने वहाँ से उठने की अनुमति माँगी।

"छोड़ परे अब पढ़ाई लिखाई, बहुत पढ़ लिया। आज से बंद तेरी सारी पढ़ाई-लिखाई।"

उसकी माँ की जुबान में यद्यपि ज़रा भी गुस्सा नहीं था, पर फिर भी चन्नी का सीना दहल गया। वह डर से काँपने लग गई, ‘कहीं गगन ने ही न बापू को बता दिया हो? उफ्फ! पहली चोरी, पहला फंदा!’ वह स्वकथन करती ख़ौफ़ज़दा होकर माँ के पास ही चूल्हे-चौके में घुटनों और ठोड़ी के बीच बाँहें रखकर बैठी रही।

सही समय देखकर उसकी माँ ने बात चलाई, "वो जो लड़का...।"

चन्नी घबरा उठी, "कौन सा लड़का?" वह एकदम अपना अंजाम जानना चाहती थी।

"वही विलैतिया जो तुझे देखने आया था।"

"कौन?" चन्नी को सिवाय गगन और अपने उस हस्तलिखित ख़त के और कुछ भी याद नहीं था।

"क्या था भला-सा नाम उसका? अरे हाँ, सुख," चन्नी की माँ ने जोगियों की पिटारी में से साँप निकालकर बच्चों को दिखाने की तरह बात कहने की चाल बहुत ही आहिस्ता रखी।

इतना भर जानने के बाद चन्नी समझ गई थी कि उस पर वो कोप अभी तक तो नहीं आया, जिसको लेकर वह भयभीत है। उसको कुछ ढाढ़स आया। पल-पल बढ़ती उत्सुकता के कारण वह ख़ामोश और अडोल बैठी माँ से उस नई सनसनीखेज ख़बर के नस्र होने की प्रतीक्षा करती रही।

"उसने तुझे पसंद कर लिया है। आज ही ‘हाँ’ की है। आते इतवार को शादी माँगते हैं। तेरे बापू ने हामी भर ली। तुझे पसंद है न?" उसकी माँ ने बिना जवाब की प्रतीक्षा किए कहना ज़ारी रखा, "बड़े ही सज्जन बंदे हैं। कहते थे देना-लेना कुछ नहीं चाहिए। चार बंदे आएँगे बारात लेकर और चुन्नी चढ़ाकर ही लड़की ले जाएँगे। लड़का वैसे भी कुछ नहीं खाता-पीता, पूरा वैष्णों है। बहुत ही अच्छी है तेरी क़िस्मत, राज करेगी इंग्लैंड जाकर।"

उसकी माँ अपनी सारी अधूरी इच्छाएँ चन्नी से पूरी होती देख रही थी। उसको अपनी जवानी के समय का देखा हुआ सपना अब किसी अन्य रूप में साकार होता प्रतीत हुआ।

यह ख़ुशख़बरी थी या दुखों भरे जीवन के लेख की भूमिका, चन्नी को कुछ पता नहीं था। वह तो सिर्फ़ इतना जानती थी कि इस समाचार ने उसका कलेजा खींचकर बाहर निकाल लिया था। ज़िन्दगी ने एक इम्तिहान में घिरी हुई को दूसरे इम्तिहान में फंसा दिया था।

असमंजस में डूबी चन्नी को इस संकट से बचने का कोई उपाय न सूझा। लोक-लाज और अक्खड़ पिता के डर से चन्नी ने चुपचाप हालातों का संताप झेल लिया। उसकी मासूम मुहब्बत की कोंपलें फूटने से पहले ही उन पर शादी नाम की ख़ुशीनाशक और इच्छाओं को मारने वाली दवाई छिड़क दी गई। सब कुछ इतनी शीघ्रता में घटित हुआ कि उसको कुछ सोचने का भी समय नहीं मिला था। उसको पता ही नहीं चला था कि क्या हो रहा था। गगन से एक बार मिलना और उसके दर्शन करने भी नसीब नहीं हुए थे।

चन्नी का पति सुख विवाह करवाकर मुश्किल से एक सप्ताह ही उसके पास रहा। फिर वापस इंग्लैंड लौट गया। पर जितने दिन उसने चन्नी के साथ व्यतीत किए, उतने दिन वह नयनों की दुनाली से ज़ख़्मी ही रहा। यद्यपि सुख पास में नहीं था, फिर भी चन्नी जितनी देर इंडिया में रही, वह अपने सास-ससुर के पास अपनी ससुराल में ही रही। उसके मन में इतनी कड़वाहट भर गई थी कि अपने मायके वाले गाँव जाने को उसकी घायल रूह भी राज़ी न होती। उसको गगन से सामना हो जाने का डर था। कुँवारे होते स्थिति दूसरी थी। उसको गगन के कभी न कभी मिल जाने की उम्मीद तो होती थी। विवाह के बाद गगन उसकी पहुँच से इतनी दूर हो गया था कि उसकी चाहत करना भी अब चन्नी के लिए व्यर्थ था। ऐसी हालत में मायके में आती भी तो किसके पास आती? उसके माँ-बाप ही जाकर उससे मिल आया करते थे।

- क्रमशः

 

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