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मदहोश - 3

3

यद्यपि अब तक उनकी तेज़-तेज़ दौड़ती साँसें सम पर आ चुकी थीं, पर फिर भी चन्नी ने परमिंदर को अपनी बाँहों में जकड़ा हुआ था। मानो उसको डर हो कि यदि उसने छोड़ा तो परमिंदर कहीं भाग ही न जाए। चन्नी का दिल करता था कि वह सारी उम्र इसी प्रकार परमिंदर का बोझ अपने नाज़ुक बदन पर उठाये रखे। परमिंदर की गरम साँसों की टकोर से आज चन्नी के सारे दुख ही टूट गए थे। हंसों की तरह परमिंदर ने चन्नी के नयनों के मानसरोवर में से सारे आँसू रूपी मोती चुग लिए थे।

परमिंदर ने घड़ी देखी। सात बजने में तीन मिनट शेष थे। चन्नी ने पिछली सीट पर से बैग उठाकर कंधे में डाला और फटाफट कार में से बाहर निकली। जल्दी-जल्दी हाथों से जूड़ा ठीक करती हुई फ़ैक्टरी की ओर दौड़ी।

चन्नी आज इतनी ख़ुश थी कि उसके होंठों से हँसी सँभल नहीं रही थी। वह ख़ुशी में बाँवरी हुई फिरती थी। उसको देखकर यूँ लगता था मानो मूर्तिकार के तराशने के बाद बेजान पत्थर की मूर्ति में जान पड़ गई हो। वह फ़ैक्टरी में ही सबके साथ हँसने-खेलने और मज़ाक करने लग गई।

चन्नी का घर फ़ैक्टरी के नज़दीक (पैदल बमुश्किल पाँच मिनट का रास्ता) होने के कारण परमिंदर के साथ मिलने का सूर्य शीघ्र ही अस्त हो जाता। शाम के चार बजे फ़ैक्टरी बंद होने से लेकर सवेर के सात बजे फ़ैक्टरी के खुलने तक के लम्हे चन्नी को सदियों समान लंबे महसूस होते। विरह के पलों में कुछ कटौती करने के लिए परमिंदर के कहने पर चन्नी ने इवनिंग क्लासों में अंग्रेज़ी सीखने के लिए प्रवेश ले लिया। इस प्रकार छह से आठ बजे तक रोज़ दो घंटे और मिल गए उन्हें, अपने इश्क के लिए। पढ़ाई की आड़ में रोज़ाना चन्नी ने मर्यादा और सामाजिक कानून का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दिया। परमिंदर ने बहला-फुसलाकर चन्नी का ब्रेनवाश करके उसमें अपनी उल्फ़त भर दी।

चन्नी ने आशावादी सोच अपनाकर हर वस्तु के नये अर्थ तलाशने प्रारंभ कर दिए। अब उसको कायनात का हर ज़र्रा हसीन दिखने लग पड़ा। उसकी जीवनबाड़ी में दुखों की विषैली बूटियों की जगह सुखों के फूल, बेल-बूटे उग आए। उसके चेहरे की लाली लौट आई। ज़िन्दगी पुनः सुखद हो जाएगी कभी, यह बात भी चन्नी की सोच के दायरे से बाहर थी। पर परमिंदर ने तो इसको अमली जामा पहना दिया था। अब सदा ही चन्नी को परमिंदर के इश्क का उत्साह रहता।
घड़ी टिक...टिक करती रही। चन्नी के दिन त्यौहारों की तरह बीतते गए।

एक दिन फ़ैक्टरी में परमिंदर की नौकरी से महीने भर की छुट्टियाँ लेकर इंडिया जाने की ख़बर गरम हो उठी। पहले तो चन्नी को सुनकर यक़ीन नहीं आया था। उसने उसको सिर्फ़ एक शोशा समझा था। परंतु जब अफ़वाह सच साबित हुई तो उसको काफी शाॅक लगा क्योंकि परमिंदर ने उससे इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया था। फ़ैक्टरी मालिकों को छोड़कर अन्य किसी को भी परमिंदर के जाने का पता नहीं था। फ़ैक्टरी में परमिंदर ने जाने से सिर्फ एक दिन पहले बताया और वह काम पर उसका अन्तिम दिन था। सारा दिन काम के ज़ोर के कारण चन्नी को परमिंदर से पूछने का अवसर नहीं मिल सका। उस दिन बारिश भी हो रही थी। चन्नी ने सोचा, शाम को लिफ़्ट के बहाने परमिंदर के साथ बात कर लेगी। परमिंदर हमेशा फ़ैक्टरी के मर्दों-औरतों को अपनी कार में लिफ़्ट दिया करता था। शाम को छुट्टी हुई और चन्नी परमिंदर की कार की ओर बढ़ने ही लगी थी कि उसको सुख लेने आ गया। जिस कारण परमिंदर से कुछ पूछने का अवसर जाता रहा।

वह इंडिया क्यों गया है? मुझे पहले क्यों नहीं बताया? ऐसे अनेक प्रश्न चन्नी के मन की सलेट पर नित्य उभरते।

शायद उसको कोई इमरजैंसी हो गई होगी। या किसी रिश्तेदार का विवाह वगैरह होगा। इस प्रकार हर उठते सवाल का जवाब भी चन्नी स्वयं ही घड़ लेती।

जब परमिंदर इंडिया से वापस लौटकर आया तो उसने इंडिया जाने के मंतव्य के बारे में स्पष्टीकरण दिया कि वह विवाह करवाकर आ रहा है। चन्नी सहित सारी फ़ैक्टरी ने उसको विवाह की बधाई दी।

परमिंदर और चन्नी फ़ैक्टरी में आवश्यक-सी ही बातचीत करते और सीमित-सा एक-दूसरे की तरफ़ देखा करते थे ताकि किसी को शक न हो। ऐसे व्यवहार के कारण ही वह दुनिया की पत्थरमार निगाहों से बचे हुए थे। कभी इश्क़ और मुश्क भी छिपाये छिपते हैं? मुहब्बत के मामले में बेश्क़ वे बहुत ही चैकन्ने थे, हर क़दम फूँक फूँककर रखते थे, पर फिर भी एक-दो बूढ़ी औरतों को उनकी आशनाई की भनक थी। साथी वर्करों का मुँह मीठा करवाने के लिए जब ब्रेक के समय परमिंदर ने मिठाई का डिब्बा लाकर कैंटीन में रखा तो उन औरतों की निगाहें चन्नी पर ही केन्द्रित हो गईं।

चन्नी ने मिठाई सभी को ख़ुद ही बाँटकर, उनके दिल में फैलते श्क़ के ज़हर को प्रभावहीन कर दिया। चन्नी के चेहरे पर से कुछ न पढ़ सकने के कारण वे औरतें निराश-सी हो गईं।

अगले दिन पुराने मुलाक़ात वाले स्थान पर परमिंदर चन्नी से मिला। चन्नी बड़े जोश में उससे मिली। चन्नी ने बिना बताये चले जाने का गिला करने की अपेक्षा परमिंदर के विवाह करवाने पर प्रसन्नता का दिखावा किया।

"मेरे कारण तेरी पत्नी के प्यार में कमी न आए। उसको पूरा प्यार देना ताकि उसको कभी शक न हो," चन्नी ने परमिंदर की गाल पर हल्का-सा मुक्का मारते हुए आँख दबाकर कहा।

परमिंदर सोचता था, बात कहाँ से आरंभ करे। उसने हौंसला करके कहना प्रारंभ किया, "चन्नी, मैं यही कहना चाहता हूँ कि अब तक अपनी अच्छी निभी है, अब अब...।"

"हूँ...?" चन्नी ने ख़त्म हो चुकी बात का हुंकारा भरा और अगली बात के लिए बेसब्री दर्शायी।

"अब भलाई इसी में हैं कि हम अपने अफ़ेयर को यही फुल स्टॉप लगा दें," परमिंदर ने हिचकिचाते हुए वाक्य पूरा किया।

"पर क्यों? नई बन्नो के चाव में क्या अब तेरा मेरे से जी भर गया है?" चन्नी का सब्र का प्याला तिड़क चुका था।

"पहले बात और थी। मैं छड़ा था, अकेला था। अब मेरे सिर पर ज़िम्मेदारियाँ हैं। मेरे अपनी पत्नी के प्रति भी कुछ फ़र्ज़ बनते हैं। तेरा पति है, तू उसको प्यार दे। मैं...," परमिंदर ने अपने आप को चन्नी की नज़रों में दुनिया का सबसे बेहतरीन और वफ़ादार ख़ाविंद साबित करने की कोशिश की।
"मैंने तुझे यह तो नहीं कहा कि तू पूरा मेरा ही बनकर रह। मैं तो सिर्फ़ चाहती हूँ कि तू मेरी बेरंग ज़िन्दगी में अपने प्रेम के रंग से दो चार ब्रश मारकर सिर्फ़ दो चार रंगीन स्वतंत्र लकीरें खींच... सिर्फ़ दो-चार...," चन्नी ने शब्दों में अपनी सारी पीड़ा घोलकर कहा।

"मेरे घर में वह बहुत सुंदर है। मुझे बहुत प्यार करती है। मैं अपनी विवाहित ज़िन्दगी को किसी प्रकार के ख़तरे में नहीं डालना चाहता।" परमिंदर चन्नी से किसी न किसी तरह पीछा छुड़ाना चाहता था।

"मैं भी तो विवाहित हूँ। मुझे भी तो उतना ही रिस्क है। मैं तेरे बग़ैर नहीं रह सकती। मैं तेरी हूँ परमिंदर," बेसब्री और बौखलाहट से वाक्य पूरा करके चन्नी सिसकने लग पड़ी।

बदहवासी में परमिंदर के मुँह से निकल गया, "जब तू अपने ख़सम की नहीं बनी, मेरी कहाँ से बनेगी? मैं तेरी तरह अपने जीवन साथी से दगा नहीं कर सकता।"

चन्नी को लगा जैसे परमिंदर ने मुँह से शब्दों की बजाय आग उगली हो।

"पर तू तो कहता था मेरी आँखें तुझे बहुत शराबी लगती हैं। तू सारी उम्र मेरी जुल्फ़ों में क़ैद रहना चाहता है... मैं...मैं... मैंने तुझे अपनी इज़्ज़त लुटाई है," चन्नी ने लड़खड़ाती ज़ुबान से बमुश्किल शब्द रोके। चन्नी की एक ज़ोरदार रूलाई फूट पड़ी और वह इस प्रकार ज़ोर ज़ोर से रोने लगी जैसे कोई बच्चा खिलौना छीन लिए जाने पर या उसके टूट जाने पर रोता है।

"चुप कर ! साली, तेरा कौन सा इंजन बैठ गया कि नए सिरे से बनाना पड़ेगा?" आज परमिंदर के होंठों पर दिलासों की जगह ग़ुस्सा था।

चन्नी का पूरा शरीर झिंझोड़ा गया। उसको अपना आप उस पतंग की भाँति लगा जिसको उड़ाने वाले से बेक़ाबू होता देख किसी दूसरे ने काटकर अपनी बना लिया हो। दिल बहलावे के लिए उड़ाया, ठुनके मारे और मन भर जाने पर डोर तोड़कर हवा के सहारे छोड़ दिया। चन्नी के वहीं के वहीं होंठ सिल गए।

तड़पती, आँसू पोंछती चन्नी कार में से निकली। सपनों के संसार में से हक़ीक़त की दुनिया में उसने पहला क़दम रखा। उसके पैर उसके अपने जिस्म का बोझ उठाने में असमर्थ थे। चन्नी को लगा मानो पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हों। वह शिथिल हुई टाँगों को घसीटती, गिरती, ढहती बड़ी कठिनाई से फ़ैक्टरी पहुँची।

- क्रमशः

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