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मदहोश - 4

4 (अंतिम)

 दिन भर चन्नी ने परमिंदर की ओर आँख उठाकर भी न देखा। शाम को परमिंदर नौकरी से इस्तीफ़ा देकर सबसे हमेशा के लिए अलविदा कहकर यह बहाना मार गया कि उसको कहीं और अधिक वेतन पर काम मिल गया है।

चन्नी को परमिंदर की जुदाई का अहसास बिल्कुल गगन के वियोग जैसा लगता था। जिस्म के किसी अंग के काटे जाने जैसी उसके दिल में दर्द उठता था। जिन पंखों पर वह उड़ी फिरती थी, ऊँची-ऊँची उड़ाने भरने के ख़्वाब देखे बैठी थी, वे झड़ गए प्रतीत हुए। चन्नी ने अपने आप को अपाहिज हुआ अनुभव किया। उसके लिए ज़िन्दगी एकदम से फिर जहन्नुम बन गई।

परमिंदर काम पर से जा चुका था, पर चन्नी की घोर उदासी नहीं गई थी। बल्कि पैर गाड़कर खड़ी हो गई थी। परमिंदर के जाने से फ़ैक्टरी को कोई अन्तर नहीं पड़ा था। यक़ीनन परमिंदर पर भी कोई असर नहीं पड़ा होगा। लेकिन चन्नी की ज़िन्दगी में तो खलबली मच गई थी।

चन्नी की ड्यूटी प्रोडेक्शन लाइन से बदलकर पैकिंग टेबल पर लग गई थी। परंतु उसकी चोर निगाहें बार बार एंड ऑफ़ द लाईन(उस जगह जहाँ अक्सर परमिंदर खड़ा होकर काम करता था) की ओर उठ जाती। यद्यपि मैनेजमेंट ने उस जगह पर नया चेहरा, नया व्यक्ति खड़ा कर दिया था, पर चन्नी को उस स्थान पर से अभी भी परमिंदर के अस्तित्व का अहसास होता और उसके जिस्म की महक आती थी।

परमिंदर के स्थान पर आए लड़के का नाम नरिंदर था। ज़रूरत से ज़्यादा चन्नी की निगाह अपनी ओर घूमती देखकर नरिंदर ने सोचा कि शायद चन्नी उसमें दिलचस्पी ले रही है। इसलिए वह पहले तो चन्नी के आसपास चक्कर काटने लगा और फिर सुपरवाइज़र से कहकर उसने अपनी बदली चन्नी के पास करवा ली। नरिंदर ने निकटता हासिल करने के लिए बातचीत का सिलसिला शुरू किया। उसने बातों के माध्यम से चन्नी को प्रभावित करने का पूरा ज़ोर लगाया।

मँझदार में फँसी चन्नी को नरिंदर किनारे जैसा प्रतीत हुआ। उस साहिल जैसा जिस तक पहुँचने पर ही जान की सलामती थी। चन्नी को नरिंदर की बातों में तपिश और अपनत्व की ख़ुशबू आई। चन्नी का दिल चाहता था कि नरिंदर उसके सम्मुख प्रेम का प्रस्ताव रखे और वह झट स्वीकार कर ले। नरिंदर को प्राप्त करने के लिए उसका दिल मचल उठा। बातों में व्यस्त चन्नी और नरिंदर को तेज़ी के साथ गुज़रते वक़्त का ज़रा भी ज्ञान न रहा कि कब चार बज गए।

फ़ैक्टरी में से अपनी शिफ़्ट ख़त्म करके घर को जा रही चन्नी को आज गगन बिसर चुका था, सुख याद नहीं था और परमिंदर को उसने भुला दिया था। उसके दिमाग़ के सूने कोनों में नरिंदर के ख़याल हावी थे। नरिंदर द्वारा अपने नयनों की प्रशंसा में की गई टिप्पणी को याद करके चन्नी का अंग अंग महक उठा। उसका मन अंदर से नरिंदर के लिए प्रेम से लबालब भर उठा।

सभी एक जैसे तो नहीं हुआ करते। चन्नी का डोलता हुआ मन तराजू के भारी पल्ले की भाँति नरिंदर की ओर झुक जाना चाहता था।

नहीं! यदि इसने भी वैसा ही किया। फिर? यदि इसने भी परमिंदर की तरह मुझे इस्तेमाल करके मेरी ख़बर न ली तो? मैं कोई डोरमैट (पायदान) हूँ जो हर किसी के नीचे बिछती फिरूँ? तुरंत ही चन्नी के चौकस दिमाग़ ने कल्पना की। चन्नी को पुनर्विचार करने के लिए विवश होना पड़ा।

सोच के बवंडरों में धूल का कण बनी चन्नी घर पहुँचते ही अपने कमरे में जाकर लेट गई। सुख जब नौकरी से लौटा तो कमरे की बत्ती जलाते ही अँधेरे में पड़ी चन्नी को देखकर उसे चिंता हो आई।

"चन्नी? ठीक तो है? कोई तकलीफ़ तो नहीं?" सुख ने चन्नी के क़रीब बैड पर बैठते हुए उसके माथे पर हाथ रखकर ताप देखा। माथा ठंडा था।

"नहीं, ठीक हूँ," चन्नी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

"फिर लेटी क्यों है?" सुख के सहानुभूति भरे शब्द चन्नी के सीने के आरपार निकल गए।

"यूँ ही ज़रा थक गई थी," चन्नी ने सुख से विपरीत दिशा में करवट बदल ली।

सुख स्नान करने चला गया। चन्नी बैडरूम में पड़ी अपनी ज़िन्दगी की उलझे तांतों को सुलझाने का यत्न करती रही।

सुख ने ग़ुसलखाने में से आवाज़ दी, "चन्नी...।"

चन्नी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसको कुछ सुना ही नहीं था। उसका अचेत मन कमरे में से कोसों दूर कहीं गुम हुआ पड़ा था।

"चन्न?" सुख ने और ऊँची आवाज़ में पुकारा।

इस बार सुख की आवाज़ चन्नी की तंद्रा को तोड़ने में सफल हो गई, "जी?"

"चन्न डार्लिंग...मैं टॉवल भूल गया। ज़रा पकड़ा दो," सुख ने विनती की।

"अभी लाई।"

चन्नी ने फुर्ती से अल्मारी में पड़ा हुआ तौलिया उठाया तो उसके हाथ सने होने के कारण सफेद तौलिये पर दाग़ पड़ गए। नौकरी पर काम से हटने के बाद वह हाथ धोने भूल गई थी। उसने तौलिया बैड पर रखकर टिशू पेपर से अपने चिकनाई वाले हाथ पोंछकर साफ़ किए। टिशू कूड़ेदान में फेंकते हुए वह टिशू पेपर की तकदीर को लेकर सोचने लग पड़ी। उसको कमज़ोर टिशू की क़िस्मत की अपेक्षा जानदार तौलिये का मुकद्दर श्रेष्ठ लगा। इस्तेमाल दोनों को ही लगभग एक जैसे कामों के लिए किया जाता है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि टिशू पेपर को एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाता है और तौलिये को कई दफ़ा उपयोग में लाया जाता है। जब तौलिया दाग़ी और गंदा हो जाता है तो उसको पानी, साबुन, सर्फ़, सोडे आदि से धोया, खंगाला, मला और कूटा जाता है। मैलमुक्त करके उसके स्वच्छ रूप को फिर से प्रयोग में लाया जाता है और तब तक बार-बार साफ़ करक उपयोग में लाया जाता है जब तक तौलिया फट-फटा नहीं जाता। ख़ुद एक मूर्खता करके चन्नी भी एक तौलिये से टिशू पेपर बनकर रह गई थी।

सुख दुबारा पुकारे इससे पहले ही चन्नी तौलिया उठाकर हमाम की ओर बढ़ी। अंदर से कुंडी न लगी होने के कारण दरवाज़ा चन्नी के डोर हैंडिल पर हाथ रखते ही खुल गया। चन्नी अंदर दाखि़ल हुई। सुख बाथ टब में अलफ नंगा आँखें मूँदे खड़ा था। फुव्वारे का सारा पानी सुख के सिर पर से गिरता और फिर पानी की धारें उसके जिस्म के हर हिस्से को गीला करती हुई ड्रेन की ओर बह जातीं।
सुख की पत्नी होने के कारण चन्नी ने अक्सर उसके साथ वस्त्रहीन रातें गुज़ारी थी और अनगिनत बार उनके शारीरिक सम्पर्क हुए थे। पर आज तक चन्नी ने कभी भी सुख का नंगा जिस्म इतने ग़ौर से नहीं देखा था। गरम पानी बदन पर पड़ने से सुख के शरीर से उठती भाप में वह अर्श से उतरा कोई फरिश्ता ही प्रतीत होता था। चन्नी ने सुख के हर एक अंग को तटस्थ होकर बड़ी तसल्ली और हसरत से देखा।

सुख ने आहिस्ता-आहिस्ता आँखें खोलीं तौलिया पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। चन्नी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा और कुछ पलों के लिए दोनों ने पलकें न झपकाईं। दोनों मंत्रमुग्ध हुए एक-दूसरे को देखते रहे। यानी हिपनोटाइज़ हो गए हों और इससे बाहर देखना उसके वश के बाहर की बात हो। चन्नी को उसकी निगाहों में छलकती वासना नज़र आई। चन्नी को सुख की इस प्रकार की दृष्टि से लगा कि मानो सुख उसको काम के लिए निमंत्रण दे रहा हो। चन्नी के जिस्म में सिहरन दौड़ गई। उसके चुम्बकीय अंगों ने उत्तेजना के लोहे को खींचकर पकड़ लिया।

सुख ने उसको बाजुओं से पकड़कर बाथ में फुव्वारे के नीचे खींच लिया। पानी से भीगकर चन्नी के कोमल जिस्म से चिपटा गुलाबी रंग का सूट, सुख को अपना दुश्मन प्रतीत हुआ। वेग में आकर उन्होंने एक दूसरे को बेसब्री से चूमना शुरू कर दिया। सुख ने चन्नी का जंपर नितम्बों से ऊपर उठाया। चन्नी ने तीव्रगति से अपने सारे कपड़े उतारकर नीचे फेंक दिए। और वे बाथरूम के फर्श पर ही एक-दूसरे में समा गए। सुख के साथ आलिंगनबद्ध हुई चन्नी आज अगली-पिछली सारी कमियाँ पूरी कर लेना चाहती थी।

दोनों नीचे ही निढाल हुए पड़े, छत की ओर देखे जा रहे थे। कुछ समय बाद सुख ने पसरी हुई चुप को तोड़ते हुए कहा, "यार, आज जितना पहले कभी एन्जाय नहीं किया।"

"चलो, उठें," चन्नी मंद मंद मुस्कराई।

सुख ने उठकर जापानी डॉल जैसी चन्नी को अपनी गोद में उठा लिया। चन्नी का तन मन तृप्त हो गया था। वह हल्की हो गई थी। सुख की बाँहों में चन्नी किसी बच्चे की तरह लगती थी। सुख उसको लेकर बैडरूम में आ गया और दोनों जन बैड पर गिर पड़े।

चन्नी को प्यार की समझ आ गई थी। अब उसके दिल के अंदर रिश्ते-नातों की अहमियत जाग उठी थी। चन्नी को अपने ग़लती का अहसास हो गया था कि कभी उसने सुख को प्रेम करके देखा ही नहीं था। सुख की बजाय गगन, परमिंदर और नरिंदर में वह प्रेम खोजती रही थी। यह सोचते ही चन्नी को अपनी मूर्खता पर पश्चाताप हुआ। उसकी आत्मा एक भारी बोझ तले दब गई।

चन्नी ने सुख की आँखों में झाँका। चन्नी को नशा-सा हुआ। उसको ज़िन्दगी में आज प्रथम बार किसी मर्द की आँखें नशीली लगी थीं उसको सुख दुनिया की कुल मर्दों की खूबियों का निचोड़ और प्रेम की मूर्ति प्रतीत हुआ। चन्नी कुछ पल के लिए उसकी आँखों में देखती रही और फिर उसने अपने हाथ से ढककर सुख की पलकें बंद कर दीं। चन्नी के लिए इतना भर नशा ही उसको कम से कम जीवन भर मदहोश रखने के लिए पर्याप्त था। शराबी होने के बाद अपनी आँखों को मूँदती हुई वह सुख के धड़ से लिपट गई।

- समाप्त

 

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