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मध्यान्तर

उमंगों से चाँद ने आज जैसे उसकी झोली भर दी थी। ताउम्र देखे उन सुनहरे सपनों को वह तारों के समान इस सन्नाटे में गिन रही थी। कितने तारे सपनों के गिनने पड़ते हैं किसी लड़की को इस दिन के लिये, खुशी से दिल की धड़कने थमने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं। आज कोई उसकी जिन्दगी में सरेआम इजाजत पाकर बेधड़क प्रवेश करने वाला था। शायद उसका हमसफ़र, उसका नूर-ए-चश्म या जीवन भर का साथी। इस शब्द से ही लड़कियों का मन अपने हकदार, अपने दावेदार अपने मालिक के लिये यूँ आस का आसन बिछाये इंतज़ार करता है जैसे सदियों से उसका कर्ज़ा अपने कंधों पर उठाए बैठा हो। जिसका हक उसे दे देना ही अच्छा होगा। इधर मन महक रहा था उधर सौंदर्य प्रसाधनों से तन महक रहा था, इनके मिश्रण से ज्यादा कहीं ये फूलों से सजा कमरा महक रहा था। आज की रात दो दिल ऐसे कोरे कागज़ पर हस्ताक्षर करने वाले थे, जिसे प्यार की स्याही में डुबोकर लिखना था। अभिलाषा जो अब तलक इंतज़ार में थक चुकी थी, धीरे से सहमी हुई अँगड़ाई लेकर फिर आराम कुर्सी पर लेट गयी। आखिरकार इंतज़ार खत्म हुआ, और राहुल आया। उसके आने पर अभिलाषा एकदम सकपका कर खड़ी हो गई, भारतीय हृदय से झुक कर पति के पैरों का स्पर्श करने ही लगी थी कि राहुल ने उसे ऊपर उठा लिया और आश्चर्य से कहा - “मैंने तो सोचा था, तुम आधुनिक होगी।”

अभिलाषा ने कहा - “आधुनिक हूँ, मगर कुछ-कुछ।”

राहुल ने पूछा - “कैसे?”

उसने जवाब दिया - “विचारों में।”

राहुल ने अभिलाषा को अपना गुप्त उपहार, जो सबसे छुपाकर रखा था भेंट किया। अभिलाषा ने उसे लेकर प्रसन्नता दिखायी। अभिलाषा ने कहा - आज तक सारे प्रेमी - प्रेमिका यह कहते हैं, हमने तुम्हें इतना प्यार किया है जितना किसी ने किसी को नहीं किया होगा। मगर आज मैं आपको वह उपहार देने जा रही हूँ, जो किसी पत्नी ने इस दिन अपने पति को नहीं दिया होगा। अभिलाषा के प्यार भरे इस प्रस्तुतिकरण पर राहुल रीझता गया और उसे अपने पर गर्व होने लगा। राहुल ने हाथ बढ़ाया और अभिलाषा से वो रंगीन कागज में लिपटा अनोखा उपहार ले लिया। उसे खोलने पर सचमुच एक रंगीन कवर पर सुनहरे व लाल रंग में लिखा शीर्षक “दर्द का दरिया” था। राहुल ने पूछा - “यह क्या है?”

अभिलाषा ने कहा - “यह वो गलीचा है जिसे मैंने रात - रात भर अपनी आँख के मोतियों को पिरोकर बुना है।” राहुल उसके इस कार्य पर इतना मुग्ध हुआ कि उसकी गोद में सिर रखकर, उसे अपने समीप लाकर बोला - “सच! आषू, आज के बाद तुम कभी अपने दिल का हाल काग़ज़ व स्याही पर नहीं उतारोगी। यह वादा करो कि तुम अब से हमेशा ज़रूरत पड़ने पर अपने आँसुओं को स्याही बना मेरे सीने पर इन अक्षरों की तरह सजाओगी। अभिलाषा भावविह्वल हो गयी और राहुल से लिपट गयी। राहुल ने थोड़ी देर बाद देखा तो अभिलाषा यूँ ही किसी बच्चे के समान उससे दामन जोड़े सो गयी थी, मानो आज वह पहली बार अपनी नींद सोयी हो। उसके चेहरे पर अटूट विश्वास झलक रहा था। अभिलाषा का चेहरा देखकर राहुल सोचने लगा कि यह कितनी अलग है सबसे, मगर ऐसी क्या चीज है जो इसे साधारण से अलग करती है। यकायक उसकी निगाह उस उपन्यास पर चली गयी। हाथ बढ़ाकर यह सोचकर उसने उठा लिया कि चलो इसके अंतर्मन को पढ़कर देखूँ। लेकिन यह क्या! अभिलाषा के जीवन में एक कमी शायद सदा से ही रही, जिससे उसकी अतृप्त आत्मा की छटपटाहट पानी की लटकती बूँद के समान बन गयी थी। एक लम्बे सफर के बाद जैसे मुसाफ़िर नर्म व गुदगुदे बिस्तर की कल्पना करता है वैसे ही अभिलाषा के जीवन को भी चाहिये था। उसकी कहानी पहले पन्ने से ही शुरू होती है जो बचपन में ले जाती है।          
                    
छोटी सी अभिलाषा फूलों से लदे बगीचे में नीचे छुपी हुई सी एक कली जिसपर किसी की क्या भँवरे व तितली की निगाह भी न पड़े। ऐसा दबा दबा सा व्यतित्व आँखें हर समय दुनियाँ के आश्चर्य से चकित सी मन में असमय ही एकांत पाने पर उठ बेलगाम सवाल, जैसे बच्चों के मन में उठा करते हैं। माँ की उपेक्षा, अभिलाषा को माँ के दूध के साथ ही मिली थी। काम या मनोरंजन में हमेशा व्यस्त माँ जब उपेक्षा करती है तो हृदय की एक - एक झिल्ली कटकर रह जाती है। बाबूजी हमेशा से तटस्थ जरूरत पड़ने पर डाँट इसके अलावा एक ड़ेढ़ घण्टे का भाषण सुनने को जब मिलता तो उनकी उपस्थिति का भी कभी - कभी अहसास हो जाता था। वो घटना जिसका बयान अभिलाषा ने  अपने शब्दों में कर रखा था हृदयविदीर्ण थी।

उस घटना को मैं कभी नहीं भूल सकती जब मैं बुखार से तप रही थी, नन्ही नाजुक काया माँ का स्पर्श पाना चाहती थी। उसकी गोद में सिर रख कर अपनी तवन से मुकाबला करना चाहती थी, माँ में छुपकर सुरक्षा पाना चाहती थी। एक बजे होगें रात के सन्नाटे में एक ऑटो रिक्षा आकर रुका और उसमें से दो औरतें उतरीं उन्हें मेरी माँ को लेकर दिल्ली जाना था। माँ ने बिना संकोच किये, अपना फ़र्ज निभाना है यह समझकर बिना मेरी तरफ़ देखे उनके साथ जाने को तैयार हो गयीं। मैं छ्टपटा रही थी, बार - बार रोकर कह रही थी - “माँ तुम मत जाओ, मैं कैसे रहूँगी, मुझे बहुत बुखार है माँ तुम मत जाना।” आँसू मेरे लेटे होने की वजह से आँखों की किनार से लगातार गर्म धार के रूप में कनपटियों को जला रहे थे, मगर माँ पर कोई असर नहीं हुआ और वह कुछ देर बाद चली गयीं। जाते - जाते कह गयीं - “देखो तुम्हारे पापा, भाई व बहनें तुम्हारे पास हैं, तुम अकेली तो हो नहीं मुझे जाना तो पड़ेगा और वह चली गयीं। पीछे तमाम घटना ताउम्र के लिये यादगार बन मेरे सीने में दबती गयी। यूँ तो बचपना सब में होता है, मगर मुझ में चरम सीमा तक था। हर किसी के बचपने व जवानी के बीच एक मध्यान्तर जरूर होता है मगर मेरे जीवन में यह मध्यान्तर नहीं आया जिसका इंतज़ार मैं आज तक करती हूँ। पढ़ते -पढ़ते राहुल भी भावुक हो गया लेकिन उसने भी गोताख़ोर की तरह एक ही डुबकी में उसके मन के सागर की गहरायी को नाप लिया था। इससे पहले कि उसके शब्दों का भंवर मुझे दुबारा फँसाता मैंने नॉवल बंद कर दिया और बीती रात को कुछ यादगार मोड़ दे डाला।    

अगली सुबह जो हर किसी नववधु की पहली व ख़ास होती है उसका चक्र शुरू हो गया। कच्ची व मीठी घूप की तरह गृहस्थाश्रम की पहली सुबह का पहला कदम हर नववधु में एक नयी स्फूर्ती डाल देता है। कर्तव्यनिष्ठा की अग्निपरीक्षा का सामना करना हर लड़की को पड़ता है। दिन पर दिन गुज़रते गये और गृहस्थी का सूरज चढ़ता गया, उसकी तपन राहुल के स्वभाव तक पहुँचने लगी। खट्टी, मीठी, तीखी हर प्रकार की घटना घटित हुई। समयानुसार अभिलाषा ने दो बच्चों को जन्म दिया और गाड़ी यूँ ही चलती रही, जिम्मेदारी बढ़ती गई। आज दोनों बच्चे उसके पढ़ लिखकर काबिल बन गये। एक नेवी में है, दूसरा इंजीनियर बन अपनी - अपनी दुनियाँ में मस्त हैं।    

अभिलाषा की कनपटियाँ सफेद बालों से ढकी, कहीं - कहीं अँधेरी रात में दूधिया चाँदनी टपकाती उसके रूप को और निख़ार रहीं थीं। सौम्य चेहरे पर अतृप्त प्यास लिये बालकनी में बैठी क्षितिज में रंगबिरंगें गुब्बारों की तरह उड़ी जा रही थी। बचपन व बुढ़ापे में कहीं कोई अन्तर न था। वह पहले भी अंजान थी, और आज भी। पहले जाने कब जवानी आ गयी, अब बिना बताये बुढ़ापा। मध्यान्तर की कमी उसके अतृप्त मन में कल भी थी, और आज भी है।
 

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