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महाकाल

दस साल पहले रिटायर हुए थे। बच्चे दूसरे बड़े शहरों में सेटल्ड थे। मियाँ-बीबी दोनों को पेंशन आती थी। खुला बड़ा घर था। ज़रूरत और सुविधा की हर आधुनिक वस्तु मौजूद थी। दो गाड़ियाँ थीं। बाहर का किवाड़ पूरा दिन खुलता–बंद होता रहता। अख़बार, दूध-दही, सब्ज़ी, टोस्ट-ब्रैड वाला, कॉलोनी का सफ़ाई कर्मचारी सुबह-सुबह ही घंटी बजाने लगते। धोबी, माली, कार साफ़ करने वाला, काम वाली मेड का भी आना–जाना लगा रहता। महीने में दो-एक बार राशन वाले का लड़का, सोसाइटी का वाच मैन, ऑन-लाइन सामान वाला, सेल्ज़ गर्ल, सैलून वाला या पोस्ट ऑफ़िस का एजेंट भी घंटी बजा दिया करते। संबंधी-मित्र भी कभी-कभार चक्कर लगा ही जाते। टीवी, मोबाइल, अच्छा खान-पान, दोनों समय की सैर– यानी समय लाजवाब ही बीत रहा था। न कोई टेंशन, न सोच; न किसी भविष्य की चिंता, न स्वप्न आपूर्ति की दौड़।   

बीते वर्ष यानी 2020 के फरवरी-मार्च का समय था। ब्रह्मांड पर काल मँडराने लगा। रातें डरावनी हो गई। होलियों से थोड़ा पहले ही चीन ने पूरे विश्व को कोरोना महामारी का उपहार दिया। कोरोना यानी कोविड-19, जिसने विश्व का जीवन बदल दिया, समाचारों का रुख़ बदल दिया, शवों के अम्बार लग गए, अस्पताल भरने लगे, बिस्तर कम पड़ गए, दवाइयों की कमी हो गई, डाक्टर और स्वास्थ्य अधिकारी कर्मचारी एक पाँव पर खड़े रहकर जीवन संरक्षण में जुट गए। विश्व युद्ध या भारत-पाक विभाजन के विनाशकारी आतंक से कोरोना जनित संत्रास कम तो नहीं। हर ओर मृत्युभय का एकछत्र साम्राज्य . . . महाप्रलय . . . महाकाल का क्रूर तांडव। 

संक्रमण से बचने के लिए मास्क, छह फुट की दूरी, गर्म पानी, स्टीम, काढ़ा आदि का प्रयोग होने लगा। ख़ुशी, ग़मी के सारे समारोहों पर प्रतिबंध लग गया। लॉक डाउन, कर्फ़्यू ने सुबह-शाम की सैर बंद कराकर घर में क़ैद कर दिया। कौन कहता है कि मर्द को दर्द नहीं होता? इस महामारी से जूझ-जूझ कर संसार को अलविदा कहने वाले परिजनों का बिछुड़ना, नित्य मिलने वाले डरावने, भयावह समाचार तोड़ ही जाते। मृत डॉक्टर बाल सखा बार-बार सामने आ खड़ा होता – एक दुखद सच्चाई की तरह और अंदर–बाहर सन्नाटा पसर जाता। 

इस दौर के कई पड़ाव रहे– पहला—जब कोरोना का आगमन हुआ था। शहर के एक जाने-माने व्यक्ति की मृत्यु हो गई, पर शहर के सभी श्मशान घाटों ने दाह संस्कार से इंकार कर दिया। दूर खेतों में ले जाकर अंतिम संस्कार करना पड़ा। ख़ैर! वह एक समाचार था। दूसरों के दुख कभी उतने बड़े नहीं लगते।

इसी बीच बहुत कुछ हुआ। शाहीन बाग़ का आंदोलन उखड़ गया। दिल्ली की सिंघु, टिकरी और दूसरी सीमाओं पर किसान आंदोलन चलने लगा। कुम्भ का मेला लगा। बंगाल में धमाकेदार रैलियाँ और चुनाव हुये—वग़ैरह—वग़ैरह।  

उन्होंने अपनी दिनचर्या का मुख्य अंग योग/वर्जिश को बना अपने को सँभाल लिया था। सुबह–शाम अंदर से चिटखनी लगा घण्टों वे स्वास्थ्य अर्चना करते। यह परिश्रम अतिरिक्त आत्म विश्वास दे रहा था। बाहर के अँधेरों में भटकने की अपेक्षा वे अंदर के उजालों में विचरण करने लगे। उन्हें यक़ीन था कि अब न डायबटीज़ उनका कुछ बिगाड़ सकती है, न बी.पी., न दिल की बीमारी, न बुख़ार, न खाँसी। खाने-पीने के प्रति वे अति-सजग हो गए थे। भोजन में दूध-दही, फल-सब्ज़ी के अतिरिक्त बादाम, किशमिश, अखरोट, काजू, आँवला कैंडी जब तब कुतरते रहते।

बेटे-बेटी और उनके परिवार, नाते रिश्तेदारों, मित्र मंडली– सब से एक दूरी बनकर रह गई थी। लेकिन मोबाइल, टीवी उस कमी से जूझने का दृढ़ संकल्प लिए थे। दिन में स्वदेशी संबंधियों मित्रों-बंधुओं से निर्धारित समय पर बतियाते और रात को अपने प्रवासी आत्मीयों से तार जोड़ लेते। अब उनके बंद कमरे में भी ठहाके गूँजते रहते। कुछ देर टीवी पर ‘ॐ’ की कैसेट लगा उसकी गूँज-अनुगूँज का आनन्द भी लेते और रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह तक भूले-बिसरे गीत भी सुनते। प्राइम के कार्यक्रम भी देखते और ख़बरों के प्रति भी पूरे सचेत रहते। सोच ही पॉज़िटिव बन चुकी थी। यह नया जीवन स्टाइल भी ख़ूब रास आ रहा था। आक्सीमीटर, डाइबटीज़ और बी.पी. आपरेटस उनके पास ही पड़े होते। 

सरकारों ने ख़ूब यत्न किए। लोगों ने भी ख़ूब साथ दिया, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर भी आनी थी और आ कर ही रही और लोग जीवन की जंग हारते रहे। कभी-कभी पत्नी दुखी मन से दीन-दुनिया की घटनाओं-दुर्घटनाओं पर बतिया लेती। यह साँसें भी कितनी झूठी हैं, कब साथ छोड़ दें, किसी को नहीं मालूम। विमल के ससुराल का पूरा परिवार बीमारी की चपेट में आ गया है। अतुल चौदह दिन के लिए क्वारंटाइन में है। बड़की बुआ का पोता आई.सी.यू. में है। छोटी बहन की ननद दस दिन में ठीक होकर अस्पताल से घर आ गई है। उसका आक्सीजन लेवल 93 पर आ गया है। दिल्ली वाली प्रभा का बेटा चौबीस घंटों में ही चल बसा। फेफड़ों ने जवाब दे दिया। मृत शरीर अस्पताल से सीधा श्मशान घाट ले जाया गया। सुबह दस बजे लाइन में लगे थे, शाम साढ़े चार बजे बड़ी मुश्किल से दे-दिला कर संस्कार के लिए बारी आई। परिचितों और संबंधियों ने व्हाट्स ऐप पर ही अफ़सोस के संदेश भेज दिये। अब प्रभा के पति की हालत ख़राब है, क्योंकि वही एम्बुलेन्स में बेटे के साथ रहा था, दाह कर्म निपटाया था। कल तक न उसे दवाइयाँ मिल रही थी, न ऑक्सीजन। आज उनके फोन बंद आ रहे हैं। एक गहरी वेदना की लहर पत्नी के चेहरे पर तैरती रहती। महामारी के राक्षसी पंजों में परिवार समाने लगे थे। जबकि उनके चेहरे पर कोई मातम या दुख की अपेक्षा एक चौकन्नापन दीखता। मोबाइल की तरफ़ देखते वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलते– मुझे समय पर बता देना। (यानी अगर अपनों में कहीं कोई मृत्यु होती है, तो मैं पूरी ज़िम्मेदारी से फोन पर अफ़सोस कर कर्तव्यबोध से मुक्त हो जाऊँगा।)

सबसे बुरा हाल निम्न और निम्न मध्य वर्ग का रहा। उनकी जंग दोहरी थी। संक्रमण निवारण के लिए लगे लॉक डाउन और कर्फ़्यू ने उनका रोज़गार छीन लिया था और महामारी अपनों को लील रही थी। अपनी ज़मीन, जड़ से उखड़े लोगों का तो और भी बुरा हाल था। वे तो न यहाँ के रहे और न वहाँ के। मीलों पैदल चलकर अपने गाँव-देश पहुँचना दुर्दिनों जनित जीवट का ही कमाल था।   

अब शहर-शहर में कोविड अस्पताल खुलने लगे। वैक्सीनेशन भी आ गई। विदेशों से सहायता भी पहुँचने लगी। राहत सामग्री के स्टॉल लगने लगे। वेबसाइट और ऐप लांच हो गए। चौबीस घंटों के हिसाब से देशों, राज्यों, शहरों की कोरोना रिपोर्ट प्रसारित होने लगी। चार्ट भी आ रहे थे।  

महामारी की उम्र 15 महीने से अधिक हो चुकी थी। आश्वस्त थे कि वे, पत्नी, बच्चे– सब ठीक-ठाक हैं। पड़ोसी की मृत्यु तो उन्हें आश्वस्त ही कर गई। ठीक ही हुआ। बुरे काम का बुरा नतीजा। ऐसी मौत मिली कि संस्कार पर भी कोई न आ सका। ख़ूब तंग करता था। गाड़ी उनके घर के सामने लगाता था। अपनी दीवारें ही उसने नहीं बनवाई थी। सीलन इधर ख़ूब आती। कहते तो मुँह मोड़ लेता। शुरू से ही उससे दिल की दूरी छह फुट से भी अधिक रही। 

उनके परिवार में पहली मौत विधुर, निःसंतान बड़े भाई की हुई थी और सभी सरकारी हिदायतों को नज़रअंदाज़ कर उन्होंने उसके हिस्से वाले आधे घर का डिस्टेम्पर, पोलिश वगैरह करवा, पुरानी चीज़ें बेच/उठवा नए फ़र्नीचर से सज़ा लिया था। अब उस बड़ी बैठक में अपना एल.ई.डी. फ़िट करवा वे मज़े कर रहे थे। अपने को हल्का और सम्पन्न महसूस कर रहे थे। इसी बीच सूचना मिली कि बेटे की सास और फिर ससुर भी कोरोना की चपेट में आ गए। बहू इकलौती बेटी थी और बेटे के सम्पन्न होने की सूचना उन्हें आह्लादित करने के लिए पर्याप्त थी। दिनों में ही इस महामारी ने उन्हें लील लिया। बहू का बुरा हाल था। लेकिन वे प्रसन्न थे। दोस्तों से मोबाइल पर गप्पें लड़ाते कि उनसे, उनके बेटे से अर्थ संपन्न तो कोई है ही नहीं। कुछ ही दिनों में मिलने वाली आर्थिक ऊँचाइयाँ उन्हें गुदगुदा जातीं। वे समय सजग थे। आक्सीजन की क़िल्लत देख दो सिलन्डर स्टोर में रखवा छोड़े थे। ज़रूरत पड़ जाये तो ठीक, अन्यथा ब्लैक तो हो ही सकते हैं।  

शरीर को आत्मा त्याग देती है, तो वह शव हो जाता है। पिछले दो दिनों से ख़ाँसी सी आ रही थी । कुछ बुखार सा भी था। आक्सीजन जो सुबह तक ठीक थी, काफ़ी कम आने लगी। सोचा शायद आक्सीमीटर में कोई ख़राबी आ गई है। अस्पताल पहुँचते ही आफ़त आ गई। उन्हें एमेरजेंसी में ले जाया गया और 24 घंटे में ही उनका शरीर शव में बदल गया।  

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पाण्डेय सरिता 2021/08/15 11:21 PM

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