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महाकवि सुब्रमण्यम भारती कृत ‘पांचाली शपथम्‌’ पुनरावलोकन 

(11/12/1882—12/09/1921) 

(शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में)

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जहाँ स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को ग़ुलामी की दासता से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की आहूति देकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वहीं कवियों, चिंतकों और साहित्यकारों ने भी इस स्वाधीनता यज्ञ में राष्ट्रीय भावना से प्रेरित अपनी ओजपूर्ण काव्य रचनाओं द्वारा जन मानस को उद्वेलित कर अपना महत्ती योगदान दिया था। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है युग दृष्टा महाकवि सुब्रमण्यम भारती जिनका जन जीवन से संपृक्त काव्य तमिल साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। राष्ट्रीय चेतना के संवाहक कवि भारती तमिल भाषा में नव जागरण के सूत्रधार थे। विलक्षण मेधा के धनी भारती जी की काव्य प्रतिभा का प्रस्फुटन उनके बाल्य काल में ही हो गया था। तमिल, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषाओं की विद्वता के साथ-साथ इन्होंने पौराणिक शास्त्रादि ग्रंथों पर बचपन में ही प्रगाढ़‌ ज्ञान अर्जित कर लिया था।

भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रति इनकी गहन आस्था थी। अपनी मातृ भाषा से इन्हें असीम प्रेम था। प्राचीन तमिल काव्य में भारती जी की विशेष रुचि थी। युगीन समस्याओं के प्रति वे विशेष रूप से संवेदनशील थे। कालांतर में काशीवास के कारण इन्होंने हिंदी सीखी जिसने इनके रचना फलक को व्यापक दृष्टि ही नहीं दी बल्कि इन्हें प्रदेश विशेष के संकुचित दायरे से ऊपर उठाकर एक वृहत्तर फलक पर प्रतिष्ठित कर दिया था। 

भारती जी का रचना काल वह समय था जब संपूर्ण भारत पर ग़ुलामी के बादल छाए हुए थे। देश परतंत्र था और अंग्रेज़ों के शोषण तले पिस रहा था। बंग-भंग को लेकर काफ़ी अशांति मची हुई थी। भारती जी का सजग रचनात्मक बोध इन विषम परिस्थितियों से अछूता न रह सका। वे एक जागरूक देश भक्त लेखक ही नहीं वरन एक कुशल संपादक और पत्रकार भी थे। स्वभाव से विद्रोही भारती जी का रुझान गरम दल की ओर अधिक था। 

वे जाति-पांति के कट्टर विरोधी थे। उनके अनुसार भारत का अर्थ था “समस्त भारत की संतान”। जन्म, जाति, प्रदेश, लिंग, संप्रदाय किसी प्रकार की विषमता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही उनकी राष्ट्रीयता की धुरी रही थी।1

भारती जी का चिंतन स्वामी विवेकानन्द और बंकिम चंद्र से प्रभावित था। उन्हें स्वामी अरविंद घोष का सानिध्य प्राप्त हुआ था जिस कारण इन्होंने भारतीय दर्शन और अध्यात्म का गहन अध्ययन किया था। वे एक मेधावी वक्ता थे और इसी कारण स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारी आंदोलनों के नेता बन गए थे। भारती जी की मेधा ने यह पहचान लिया था कि तत्कालीन वातावरण में देश के जन मानस में अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति तीव्र क्षोभ के साथ-साथ असंतोष और विद्रोह की ज्वाला तो धधक रही है पर आवश्यकता है उसे आवाज़ देने की। कवि के चिंतनशील मानस ने क़लम का सहारा लिया। अपनी वाणी को शब्द दिए। उन्हें धधकती हुई चिंगारियों में तबदील कर दिया। भारती की ओजस्वी वाणी गूँज उठी। जन मानस को जागृत करने के लिए प्रतीकात्मक शैली में काव्य रचना कवि का रचना धर्म बन गया। उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं से सामान्य जन जीवन के साथ तादाम्य स्थापित कर उनकी चेतना का संधान किया। समाज में व्याप्त अराजकता से उपजी युगीन दुर्दशा के प्रति जनता को सजग किया। उनमें आत्म विश्वास जगाने के लिए भारत के गरिमामय वैभवशाली अतीत की झाँकी प्रस्तुत की। अपने ही देश में ग़ुलाम बना दिए जाने की विडम्बनाओं पर प्रकाश डाला गया। घोर निराशा में डूबी हुई जनता में उनकी रचनाओं ने आशा और उत्साह को जगा दिया था। यही समय था जब भारती जी की तीन बहु लोकप्रिय काव्यों का प्रणयन हुआ था: कुयल पाट्टू, कन्नन पाट्ट और पांचाली शपथम्‌। 

द्रुपद सुता पांचाली का चीर हरण

 

पांचाली शपथम्‌ सुब्रमण्यम भारती का खंड काव्य है जो महर्षि व्यास कृत महाभारत के प्रसिद्ध प्रसंग ‘द्यूत क्रीड़ा’ पर आधारित है। किसी भी रचना को समझने के लिए हमारे लिए रचनाकार की मानसिकता को जानना आवश्यक होता है कि वे क्या परिस्थितियाँ थी, वे क्या कारण थे जिसने साहित्यकार की चेतना को उद्वेलित किया और तत्पश्चात उस रचना का जन्म हुआ। क्योंकि शब्दों से परे उसकी मानसिकता और भाव पक्ष की समुचित परख से ही हम उस रचना को सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाएँगे और उससे न्याय कर पाएँगे। ध्यातव्य रहे जब भी कोई रचनाकार किसी ऐतिहासिक संदर्भ और पौराणिक कथाओं को आधार बना कर साहित्य सृजन करता है तो इतिहास का पुनर्लेखन उसका अभीष्ट कदापि नहीं होता बल्कि वह उन घटनाओं और प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों से जोड़कर उनमें अपनी मौलिक उद्भावनाएँ मिलाकर उसे समय सापेक्ष बनाता है और अपनी कृति को सार्थकता प्रदान करता है। तभी वह रचना कालजयी बन जाती है और रचनाकार पाठक के मनोमस्तिष्क में अमिट प्रभाव डालने में सक्षम हो जाता है। इसी पृष्ठभूमि के आलोक में पांचाली शपथम्‌ के रचनात्मक बोध की सौंदर्यता को देखा जाना चाहिए क्योंकि यह काव्य प्रतीकात्मक भाव भूमि को आधार बना कर लिखा गया काव्य है। इसके पीछे कई कारण थे। कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भ को लेकर उसमें युगानुकूल परिवर्तन कर उसे नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। इस खंड काव्य का प्रकाशन दो खंडों में हुआ है, प्रथम १९१२ में और द्वितीय कवि के मरणोपरांत १९२४ में हुआ था।

यह समय भारत में फिरंगियों के शासन का समय था। १९०५ में बंग-भंग के कारण उपद्रवों की लहर उठी थी। हिंसा, विरोध प्रदर्शन आंदोलनों से पूरे देश में अशांति पूर्ण वातावरण छाया हुआ था। जगह-जगह प्रदर्शन किए जा रहे थे। क्रांतिकारियों को चुन-चुनकर पकड़ा जा रहा और जेल भरे जा रहे थे। भारती भी इन आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल थे। इनके विचारोत्तेजक लेख जनता में विशेष रूप से प्रचलित थे। लेकिन जब महाकवि को अंदेशा हुआ कि उनके क्रिया-कलापों पर रोक लगाने के लिए उन्हें प्रतिबंधित करने का षड़्यंत्र रचा जा रहा है, तो उन्होंने अपनी रचनात्मकता को नवीन जामा दे दिया। देश भक्ति और राष्ट्रीय चेतना के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने पुराण और आध्यात्मिक ग्रंथों को आधार बनाकर लाक्षणिक भाषा और सांकेतिक शैली में काव्य रचना आरंभ कर दी जिन्हें मंदिरों के धार्मिक उत्सवों में बिना किसी रोक-टोक के गाया जाने लगा। 

पांचाली शपथम्‌ भी एक ऐसी की अनुपम कृति है जिसकी भाव भूमि तो महाभारत की है लेकिन उसकी प्रतिध्वनि में भारत माता के आर्तनाद का हुंकार व्यंजित हुआ है। परंपरागत मंगलाचरण, नगर वर्णन, प्रकृति चित्रण, पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के साथ-साथ काव्य में वर्णित सांकेतिक ध्वन्यात्मकता और इसकी रंगमंचीय अनुकूलता इसे एक विशेष आयाम दिलाती है। सरल शब्दावली, चित्रात्मक भाषा नूतन छंद विधान, बिम्ब योजना, अलंकारों का प्रयोग शिल्प सौंदर्य में लाक्षणिकता और व्यंग्यार्थ की प्रधानता इसके भाव सौंदर्य की श्री वृद्धि में सहायक घटक बन उभर कर आये है। 

सरल शब्दावली का प्रयोग पाठक के मन में स्थाई प्रभाव डालता है। इसीलिए दुरूह शब्दावली और क्लिष्ट भाषा को काव्य दोष माना गया है। कवि भारती में भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया था कि वर्तमान काल में सामान्य तमिल पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए सरल शब्दावली और सहज गीति शैली का प्रयोग सम सामयिक आवश्यकता है।2

जन जीवन से संपृक्त काव्य सृजन कवि के युग सापेक्ष रचनात्मक बोध का परिचायक है। भाव पक्ष की ओर दृष्टिपात करने से ज्ञात होगा कि कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को कवि ने सांकेतिक रूप से उद्घाटित किया है। विदेशी साम्राज्यवाद के दमनकारी षड़्यंत्र, शास्त्र की आड़ लेकर कुरीतियों को स्वीकारने की कुत्सित मानसिकता, देश हित को स्वार्थ पूर्ति के लिए दाँव पर लगा देने को तत्पर सुविधाभोगी सामंतों और पूँजीपतियों का राष्ट्र विरोधी दृष्टिकोण, नारी के प्रति पुरुष प्रधान समाज की पतनोन्मुख मनःस्थिति इत्यादि कथा में आनुषंगिक अंग बन कर उभर कर आए है। काव्य में पाँच सर्ग है – निमंत्रण सर्ग, द्यूत क्रीड़ा सर्ग, दासत्व सर्ग, द्रौपदी का अपमान (चीर हरण) सर्ग, शपथ सर्ग।

काव्य का आरंभ ब्रह्म स्तुति से होता है। तत्पश्चात वर्णन आता है हस्तिनापुर के वैभव का। अद्वितीय वैभवशाली नगर हस्तिनापुर! जहाँ धर्म और न्याय की ध्वजा लहराती रहती है, जहाँ ऋषि-मुनि नित्य मंत्र घोष से वातावरण को पवित्र बनाते रहते हैं, जहाँ यज्ञ कुंडों की अग्नि निरंतर प्रज्वलित होती रहती है, जहाँ शिल्प चित्र संगीत वाद्य का अनवरत विलास होता रहता है, धन-धान्य अतुल संपदा से परिपूरित, जहाँ अल्कापुरी राज्य का नृपति कुबेर अपनी विशेष कृपा बरसाता है, कालिंदी के तीर पर बसा शोभा मंडित ऐसा नगर है हस्तिनापुर। यहाँ ध्यातव्य है कवि ने हस्तिनापुर के वैभव में प्राचीन सम्पन्न भारत का बिम्ब उपस्थित किया है। विश्व गुरु की संज्ञा से सुशोभित सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के गरिमामय वैभव शाली अतीत का गुन गान कवि ने अत्यंत श्रद्धा के साथ किया है। 

“अद्वितीय समृद्धि पूर्ण, हस्तिनापुर है नाम नगर का।
पृथ्वी पर उसके समान नहीं कोई स्थल सुंदर सा॥
हिम धवल मेरू से हमर्य वहाँ है पंक्तिबद्ध सरसाते।
मणि-मुक्ता मय गृह पद्म तड़ागों से युत शोभा पाते”॥3

राजसूय यज्ञ की समाप्ति पर धर्मराज युधिष्ठिर को राज मुकुट सौंप राजा घोषित कर इंद्रप्रस्थ सौंप दिया जाता है। महत्वाकांक्षी दुर्योधन के सीने में साँप लोटने लगते हैं। पांडवों की श्री मंडित छवि देखकर वह मन मसल कर रह जाता है। 

"ज्येष्ठ धृतराष्ट्र का तो ज्येष्ठ पुत्र मैं ही हूँ,
दुनिया का सारा धन मुझे ही अभीष्ट है,
पाँचों पुत्र पांडु के ग़ुलाम जैसे है मेरे,
सेवा में ही उनका सेवक होना ठीक है,
घास-फूस जैसा ही महत्वहीन माना मुझे,
उनकी दृष्टि में क्या यह दुर्योधन निकृष्ट है॥4

उसकी तप्त धमनियों में रक्त उबलने लगता है। ईर्ष्या से वह तिलमिलाने लगता है। वह पापी जाकर अपने कुटिल मामा शकुनी को भड़काता है और दोनों मिलकर छल-कपट द्वारा पांडवों से राज्य छीन लेने का षड़्यंत्र रचते हैं। 

धोखे से पांडवों को द्यूत क्रीड़ा के लिए आमंत्रित किया जाता है। पांडव शकुनी की चालों का शिकार बन जाते है और अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते है। युधिष्ठिर पहले पहल राज्य श्री को दाँव पर लगाकर हार जाते है। फिर अर्जुन भीम नकुल सहदेव सभी अनुजों को एक-एक कर हारने के बाद व पांचाली को भी दाँव पर लगाने के लिए विवश हो जाते हैं।

केष्विक्कु ओरुवरिल्लै,
उयर देवियैक,
कीष मक्कल आक्किनान।
दुरुपदन मकलै, तिट्टत,
दुय्मनुडन पिरप्पै,
इरू पगडै एत्राय,
अय्यो-,
इवरूक्कु अडिमै एत्राय॥
(द्रुपद की पुत्री दृष्ट्ध्युम्न की सहोदरी को दो पाँसे फेंककर तुच्छ बाज़ी में जीत लिया और कहा, ’आज से तुम इनकी दासी हो’।)

पामरों से भरी कुरु सभा में, 
द्यूत क्रीड़ा में लगी थी दाँव पर,
पूछने वाला था न कोई वहाँ पर॥5

धर्मराज द्रौपदी को द्यूत की अंतिम बाज़ी में हार जाते है। शकुनी के पाँसे पांडवों पर इस तरह भारी पड़ते हैं कि वे अपना सब कुछ गँवा कर उनके दास बना लिए जाते हैं। द्रुपद सुता को अपशब्दों से अपमानित कर बालों से खींचते-घसीटते हुए भरी सभा में लाया जाता है और सब के सामने दुःशासन एकवस्त्रा सद्यः रजस्वला द्रौपदी का चीर हरण करने का दुस्साहस करता है। उच्छृंखल कौरव मदांध होकर प्रसन्नता से उछलने लगते हैं। यह सभा महाराज धृतराष्ट्र की राज्य सभा है जहाँ पितामह भीष्म, आचार्य दौणाचार्य, कुल गुरु कृपाचार्य, महात्मा विधुर जैसे दिग्गज धर्मनिष्ठ नीति विशारद ज्ञानी पार्षद आज अपना सर लज्जा और ग्लानि से झुकाए विवश मौन बैठे है।

मेय्नंनेरी युणर विधुरन-इनी,
वेरुपल अमैच्चरुम विषंगी नित्रार, 
पोय नेरी तंबियन -अंद,
पुलैनडै सकुनियुमु पुरमिरुंदार।
(सत्य को जानने वाले ज्ञानी विदुर, अन्य नीति विशारद मंत्री गण असत्य और षड़यंत्रकारी शकुनि और समस्त तंत्र वहाँ उपस्थित था।)6

पांचाली भयाकुल निस्सहाय शोकग्रस्त अपनी लाज बचाने को आतुर भगवान श्री कृष्ण से दया की भीख माँगती है। आश्रित जन पोषक भगवान ने अपना अमृत वचन सत्यापित किया—

"अनन्याश्चिंतयंतो मां ये जना पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योग क्षेमं वहाम्यहम॥"

दुःशासन पांचाली के वस्त्र खींचते-खींचते थक जाता है लेकिन पांचाली को विवस्त्र नहीं कर पाता। भक्त वत्सल भगवान द्रौपदी के मान की रक्षा करते है। अंत में सभी पांडव अपमान और क्रोध की ज्वाला में फुफकारते हुए कौरवों का विनाश कर देने की शपथ लेते हैं। द्रौपदी प्रतिज्ञा करती है कि जब तक इन पापी दुराचारी भ्रष्ट कौरवों का नाश नहीं हो जाता तब तक वह अपने केश बंधन नहीं करेंगी।का व्य का अंत इस मोड़ पर हो जाता है। 

“मैं लेती हूँ आज शपथ यह,
मैं रखूँगी खुले केश ये तब तक जब तक–
रक्त नीच इस दुःशासन का,
और अधम इस दुर्योधन का
होता नहीं सुलभ है मुझको,
मिश्रित करके रक्त दोनों कुरुओं का, 
जब चुपडुँगी अपने सिर,
तभी केश बाँधूँगी अपने
यह ध्रुव सच है॥7

सांकेतिक अर्थ में अनाचारी दुर्योधन और मामा शकुनी की छल योजना अंग्रेज़ी शासन के अत्याचारों को प्रतिबिम्बित करती है। पांडव तत्कालीन भोली-भाली निरीह भारत की जनता है जो सामर्थ्य व प्रज्ञा होने के बावजूद विनाशोन्मुख रूढ़ियों, मर्यादाओं और परंपराओं की ज़ंजीरों में बँध कर मूक रहने पर विवश है। अपमानित विवस्त्र पांचाली पराधीन उद्विग्न भारत माता का बिम्ब है जो आज अपने ही घर में पराई बना कर अपमानित की जा रही है। उसकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर उसे ग़ुलामी में जकड़ कर विधर्मी शासकों द्वारा उसका दोहन किया जा रहा है और उसके धीर वीर प्रज्ञावान सपूत सर झुकाए चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे है। कौरव सभा परतंत्र भारत का ही प्रतीक है।

छल प्रपंच से व्यापार और वाणिज्य की आड़ लेकर अँग्रेज़ भारत में आए थे, भोली-भाली जनता को अपनी कूटनीतियों का शिकार बनाया। उन्हें अपने षड्यन्त्रों के जाल में फँसाया व धीरे-धीरे अपने पैर जमाते चले गए। और इस संपूर्ण उपक्रम में उनका साथ दिया था स्वार्थ पूर्ति में लिप्त कुछ राष्ट्र विरोधी शक्तियों ने जिनकी सहायता से अँग्रेज़ों ने पूरे देश में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। फिरंगियों ने सामंतों और पूँजीपतियों से दाँव-पेच लगा कर यहाँ की अपरिमेय और अतुलनीय प्राकृतिक संपदा व संसाधनों का शताब्दियों तक दोहन किया और अपने साम्राज्यवाद का विस्तार किया। दुर्योधन की छल पूरित द्यूत क्रीड़ा सांकेतिक रूप से तत्कालीन शासन प्रणाली का ही चित्र उपस्थित करती है। काव्य के अधिकांश प्रसंग व्यास कृत महाभारत का अनुसरण करते हैं लेकिन युगानुकूल मौलिक उद्भावना महाकवि की विशेषता है। अंत में पांचाली प्रतिज्ञा करती है कि वह केशबंधन तभी करेगी जब दुष्ट दुराचारी दुर्योधन का अंत होगा अर्थात शांति अमन संयम का देश भारत तभी स्मरणीय बन पाएगा जब दुर्योधन रूपी षड़यंत्रकारी विधर्मी शासन का नाश हो जाएगा और देश को खोखला कर रहे पाखण्डी रुढ़िग्रस्त अस्वस्थ अंधविश्वासों और कुरीतियों के दुशासनों से जब भारत मुक्त हो जाएगा। इन विभेदक तत्वों के नाश से ही राष्ट्र अपने पूर्व गौरव और गरिमा को प्राप्त कर फिर से विश्व वंदनीय बन पाएगा। 

यह क्षण पराधीन जीवन का वह क्षण था जब भारत की आत्मा स्वाधीनता की चाह में छटपटा रही थी। भारतीयों पर कायरता, अकर्मण्यता, आलस्य और मजबूरी बलात्‌ रोपी गईं थीं। देश में जागृति तो थी लेकिन नेतृत्व का अभाव था। घृणा असंतोष विद्रोह जन्म ले रहा था लेकिन उसे आवाज़ चाहिए थी। और यह वह समय था जब भारती जी की ओजस्वी वाणी ने स्वतंत्रता का शंखनाद किया था। इस कृति की सार्थकता यह भी रही थी कि इसने आध्यात्मिकता की आड़ में जनता में देश भक्ति का बीज भी बो दिया और अँग्रेज़ों के कोप भाजन का शिकार होने से भी बच गई। इसके परिणाम स्वरूप महाकवि पूरे भारत वर्ष में आज़ादी की ज्वाला प्रज्वलित करने में सफल हो गए थे। यही कवि का अभीष्ट भी था और मंगल कामना भी। 

काव्य का कला पक्ष अत्यंत व्यवस्थित और उत्कृष्ट है। समाज में व्याप्त जर्जर अंधविश्वास कुरीतियों की अभिव्यक्ति में लोक संग्रही महाकवि की लेखनी तीखी और धारदार हो गई है। द्यूत क्रीड़ा के घातक और विनाशकारी परिणामों के वर्णन में कवि ने असाधारण कलात्मक उत्तेजना का परिचय दिया है। पुरुष प्रधान समाज में नारी के प्रति हो रहे अन्याय पर कवि की वाणी अत्यंत व्याकुल हो विलाप कर उठती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है:

"पवित्रता उस रूपसी के बाल पकड़े,
खींचता ले गया दुःशासन सभा के बीच
सभा, जो थी नीति रहित सभा,
विवश संवेदना से शून्य, जड़ थे हो गए,
सारे सभासद।
पहुँच कौरव-पांडवों के मध्य लगी विलाप करने,
द्रुपद की तनया अभागी द्रौपदी 
और दुःशासन लगा था हाँकने निज डींग,
बड़बड़ाने लगा बोल कुबोल॥8

काव्य की भाषा भाव का अनुसरण करती दिखाई देती है। भाषा पर कवि का असाधारण अधिकार था। जन प्रिय शैली गीति शैली और नाटकीय प्रणाली ने इस काव्य को तमिल भाषियों का कंठहार बना दिया है। सरल शब्दावली ने भाव संप्रेषणीयता में सहायता की है। भारती जी आरंभ से ही प्रयोगधर्मा रचनाकार रहे है। जीवंत और प्रांजल भाषा ने भावाभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिए हैं। 

प्रकृति वर्णन कथा में सहज नैसर्गिक प्रवाह और गतिशीलता में सहायक तत्व बनकर उभरा है। कवि का मन कल्पना से अधिक यथार्थ में रमा है लेकिन प्रकृति में निहित सौंदर्य से वे विमुख नहीं रहें। कथा में यथा संभव आवश्यकतानुसार प्रकृति वर्णन भी देखने को मिलता है जिसके वर्णन में कवि की वाणी कोमल और मृदु हो गई है। सांध्य काल में पार्थ और पांचाली का वार्तालाप दृष्ट्व्य है: 

"रवि ज्योति चक्र-सा चमक रहा द्रुत वात्याएँ ज्यों दस करोड़-
 बन ज्योति पुंज हो नाच रही आकाश चमकता ओर-छोर॥9

करुण और वीर रस प्रधान इस काव्य में कवि की बौद्धिक उत्तेजना अत्यंत सराहनीय है। अंत में निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि महाकवि की ‘पांचाली शपथम्‌’ उनके रचना कर्म का सर्वोच्च शिखर है। 

संदर्भ ग्रंथ सूची:

पांचाली शबथम भाषा -तमिल – किल्लकु पत्तिपागम प्रकाशन, 2016, 
1) सुब्रमण्यम भारती -विनोद चंद्र पांडे, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ 
लेख- भारती की कविता में दार्शनिक चिंतन -डॉ एम शेषन पृ.सं -1
2) वही- लेख -पांचाली शपथम्‌ -डॉ सरला शुक्ल -पृ-सं 79
3)राष्ट्रीय कविताएँ एवं पांचाली शपथम्‌ -सुब्रमण्यम भारती -हिंदी रूपांतर -एन सुंदरम -आलेख प्रकाशन, दिल्ली - पृ .सं 88
4) वही ; पृ.सं 97
5) वही ; पृ सं 150
6) वही ;पृ.सं 167
7) वही पृ सं 188
8 वही पृ सं 166
9) वही पृ सं 126

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टिप्पणियाँ

Annapurna 2021/08/27 11:47 AM

Marvelous bahut sunder praranadayak lekhani hai padkar bahut aacha laga best wishes

ईश्वर करुण 2021/08/27 09:20 AM

राष्ट्र कवि सुब्रमण्यम भारती पर यह आलेख शोधपरक एवं विद्वतापूर्ण है। आज भी सुब्रमण्यम भारती प्रासंगिक हैं किन्तु तमिल के इस महान साहित्यकार के बारे में देश का एक बड़ा तबका नहीं के बराबर जानता है। यह आलेख ऐसे लोगों को बहुत आकर्षित करेगा। लेखिका बधाई की पात्र हैं। @ईश्वर करुण, महासचिव, तमिलनाडु हिन्दी साहित्य अकादमी, चेन्नै।

डॉ सुरभि दत्त 2021/08/26 06:39 PM

पद्मावती जी के *पांचाली शपथम्* लेख की सुंदर भाषा शैली है । शब्द धारा में कालजयी महाकवि सुब्रमण्यम भारती के राष्ट्र चेतना जाग्रत करने वाले व्यक्तित्व, सभ्यता संस्कृति, साहित्य और भाषा के संवाहक के रूप में राष्ट्र निर्माता, युगीन समस्याओं और आडम्बरों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले समाज सुधारक के रूप में उनके कृतित्व पर जिस प्रकार व्यापक प्रकाश डाला है, उससे पाठक का मन संवेदनशील युग स्रष्टा के समक्ष सम्मान में स्वत: ही झुक जाता है। सुंदर उद्धरण वीर रस जाग्रत करते हुए तथाकथित *वीर कायरों* के प्रति आक्रोश भी उत्पन्न करते हैं । अत्यंत उपयोगी,सुंदर और सुप्त चेतना को जगाने में सफल आलेख के लिए लेखिका पद्मावती जी को हृदय से बधाई । डॉ सुरभि दत्त

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