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महिला कथाकारों के साहित्य में भाषा और संवेदना

भाषा भावों और विचारों की संवाहिका है। मनुष्य सभी जीवधारियों में सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके पास बोलने की ताक़त है। मानव अपनी भावनाओं का प्रयोग भाषा के द्वारा करता है। भाषा के संदर्भ में डॉक्टर रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं- "भाषा केवल साहित्य में ही प्रयुक्त नहीं होती वरन मानव जीवन की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। साहित्यकार जिन अनुभूतियों को व्यक्त करना चाहता है, उसका पूर्व-रूप उसे भाषा में उपलब्ध हुआ होगा। उस अंतरमंथन की भाषा का रूप क्या है? क्योंकि वह तो रचना-सृष्टि के पूर्व ही उसके व्यक्तित्व में अवस्थित है। उसकी काव्य-भाषा उसके भावों से यदि निर्धारित होती है, तो उसके संवेदना की भाषा उसे कहाँ मिलती है? उसकी व्यापकता अनुभूतियों की भाषा क्या है? क्या एक स्तर पर उसकी विकसित भाषा का स्वरूप ही, जो उसे समाज से मिला है, उसकी व्यापक अनुभूति को निर्धारित नहीं करता? क्या ऐसा नहीं है कि जो भाषा जिस हद तक विकसित और परिष्कृत होती है, उसी के अनुरूप उसके उपयोग करने वालों की संवेदना बनती है"।1 भाषा और संवेदना का अटूट संबंध है। समाज के द्वारा प्राप्त भाषा -विनिमय के रूप-स्वरूप को जानकर वह उसे अपने अनुरूप डालता है। प्रत्येक रचनाकार अपने अपने युग एवं भाषा का प्रयोग करता है।

महिला कथाकारों ने भाषा का प्रौढ़ और परिष्कृत रूप ग्रहण किया है। लेखिकाएँ अपने मन में उठने वाली विविध भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम रही हैं। शिक्षा और अनुभवों से जो कुछ इन्होंने ग्रहण किया अपने कथा-साहित्य में व्यक्त करने का प्रयास किया। उनकी भाषा में शब्द-भंडार पर्याप्त विस्तृत है। महिला कथाकारों के पास लेखन के प्रति निष्ठा और समर्पण भाव है, इसलिए जो कथावस्तु उभरकर आती है। वह भी प्रमाणिक बनती है। इन के कथा-साहित्य में सूक्तियाँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे का प्रयोग बड़ी सहजता के साथ किया है।

महिला कथाकारों ने अपने कथा-साहित्य में भाषा का व्यापक और परिष्कृत रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इन लेखिकाओं ने नारी मन की संवेदना और पीड़ा का करुण रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया है। लेखिका सूर्यबाला उपन्यास ‘सुबह के इंतजार’ में मानवीय संवेदना का पात्रों द्वारा त्याग और प्रेम के भाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उपन्यास में नायिका ग़रीबी और हीनता से त्रस्त होते हुए भी अपने भाई के प्रति संवेदनभाव को प्रकट करती है। उसे आगे बढ़ने के लिए अपनी निष्ठा एवं प्रेम को समर्पित करते हुए कहती है – "मेरा जीवन अवधि में छोटा भले ही रहा हो, पर पूर्ण था- जीत की उपलब्धियों से पूर्ण...................... तेरी दीदी बहुत बहादुरी से यह जिंदगी जी चुकी है"।2 नायिका अपने संपूर्ण जीवन अपनों के प्रति समर्पित कर दिया। जीवन में कठिन स्थिति-परिस्थित के बाद भी अपने हित के लिए कार्य कर, अपनी इच्छाओं का त्याग कर दिया। उपन्यास ‘अगिनपंखी’ में लेखिका ने रिश्तों का भारीपन और बोझिलपन रूप को दिखाने का प्रयास किया है। नायक जयशंकर समयानुसार अपने जीवन को निखारने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा परिश्रम करता है। पढ़-लिखकर अपनी माँ और गाँव का नाम भी रोशन करना चाहता है। जयशंकर अपनी मजबूरी और लोगों की ईर्ष्या का कारण बनता जा रहा है। जयशंकर शादी के बाद अपनी पत्नी को लेकर महानगर में स्लम की एक झोपड़ी में अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। विवाह में जो धन-राशि उसे प्राप्त हुई। वह अपनी माँ के सर्पूत कर वह गाँव को छोड़ कर चला जाता है। गाँव एवं परिवार वालों को इस बात का आभास नहीं होती कि वह कैसा जीवन जी रहा है। माँ लगातार जयशंकर के पास जाने का आग्रह करती है। पर जयशंकर अपनी वेदना किसी दिखाये वह मन ही मन अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहता है- "अपनी विपद-गाथा नहीं गायी किसी के सामने। उल्टे रेशमी मायाजाल में भरमाए रखा"।3 लेखिका सूर्यबाला ने पात्र जयशंकर की संवेदना को दिखाने का प्रयास किया है। जयशंकर माँ को अपने साथ रखना चाहता है। पर मजबूरी में वह माँ को अपने साथ नहीं रख पाता। माँ भी अपने बेटे-बहू से दूर रहने की पीड़ा को झेल रही है। ‘ठीकरे की मंगनी’ में नासिरा शर्मा ने नारी मन की पीड़ा को सीधी-सपाटबयानी में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नायिका महरुख का रिश्ता रफत से बचपन में ही तय हो गया था। रफत जब बड़ा हुआ उसने विदेशी महिला से शादी कर महरुख को अकेला छोड़ दिया। महरुख को जब इस बात का पता चला तो वह बड़ी दुखी हुई। महरुख अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहती है –"जिसको दस साल अपने ख्यालों में बसाया, पाँच साल उन्हें ही भुलाने में लगा दिये थे। जख्म भरने के साथ दिल के किसी कोने में रफत भाई भी दफन हो गये थे"।4 लेखिका नासिरा शर्मा ने नायिका महरुख प्यार में मिले धोखे से अपने आपको निकालने में तो सफल हो जाती है। महरुख अपने मन को झकझोरती रहती है। जीवन में आगे बढ़ परिवार या गाँव की मजबूत नारी का चित्र अंकित करती हुई दिखायी देती है। नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यास में भाषा का सहज-सरल रूप दिखाया है, वही हिन्दी और उर्दू का बहुत ही खूबसूरती से प्रयोग करने में सक्षम रही है। उपन्यास ‘अग्निपर्व’ में ऋता शुक्ल ने पात्र बलिराम सिंह की संवेदना को चित्रित किया है। बलिराम अपनी बेटी का विवाह सुमेर से कर देता है। सुमेर की अचानक मौत से कमला का जीवन बेरंग हो गया। बलिराम अपनी बेटी को आगे बढ़ाने का क्रम रखते हैं। उसे पढ़ाते-लिखाते है। लेखिका का मन पसीज जाता है और इस भावुक क्षण में वह पात्र बिरजू के माध्यम से अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहती है –"उन आँखों में बड़ा गहरा अभियोग था - देखो तो सही, क्या मेरी इस दशा के जिम्मेवार तुम नहीं ..................यदि तुमने इंकार न किया होता तो"।5 कमला पति के जाने के बाद बिल्कुल अकेली हो गई। बूढ़े पिता ने उसके लिए अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर दी। अपनी गहरी संवेदना प्रकट करते हुए कहते है –"अंधेरी रात में पुरानी नाव का अकेला खिवैया किसकी आस में पतवार थामे आगे बढ़ता जाता है? ध्रुवतारे की रोशनी उसे राह दिखा पाती हो या नहीं; लेकिन उसकी आँखों में एक तसल्ली ज़रूर होती है, ध्रुवतारा दूर सही, वह है तो। उसके निकट नहीं जाया जा सकता, लेकिन उसे दिशा सूचक मान कर भँवर में उतरी हुई नाव को ठिकाने लगाया जा सकता है"।6 लेखिका ऋता शुक्ल ने नारी मन की संवेदनतत्त्व को प्रकट करने में सफल रही है। भाषा का सरल एवं स्थिर रूप प्रकट किया है। लेखिका मेहरुन्निसा परवेज ने उपन्यास ‘अकेला-पलाश’ में नारी व्यथा को दिखाया है –"पिताजी, माँ और बच्चों को घर से बाहर कर देते, चाहे भरी बरसात हो, चाहे कड़कड़ाती ठंड हो। किसी न किसी बहाने इधर फेंके हुए पार्सल की तरह वह लोग थे। कभी बड़ी बुआ के साथ कुछ महीने काट आते, कभी ददिहाल कुछ महीने काट आते, कभी ननिहाल"।7 लेखिका ने परिवेशगत सीधी-सरल एवं सहज भाषा का रूप स्पष्ट कर गहरी संवेदना को अभिव्यक्त किया है। उपन्यास ‘शेष-यात्रा’ में उषा प्रियंवदा ने भी भाषा और संवेदना का सशक्त रूप-स्वरूप स्पष्ट किया है- "उसे अपने अंदर दर्द सा महसूस हो रहा है, दिल का दौरा पड़ते समय की पीड़ा से भी गहरा, पैना और व्यापक"।8 लेखिका ने पात्रों की वेदना को प्रस्तुत कर, नारी हृदय की पीड़ा कर प्रस्तुत, संत्रास एवं तनाव को भाषा के अनुकूल व्यक्त करने का प्रयास किया है।

भाषा को व्यक्त करने का अपना एक ढंग है, इसे स्पष्ट करने के लिए शशिप्रभा शास्त्री भी सिद्धहस्त है, उर्दू, अंग्रेजी और विदेशी भाषा का प्रयोग करके मुहावरों, अलंकारों का आदि का प्रयोग किया गया है- "क्यों इंतिहान क्यों लूँगा, यह आपने कहा कि आप बताएँगी तो..................। और फिर मैं आपसे दो क्लास ही तो आगे हूँ, आपसे ज़्यादा जानता ही क्या हूँ। आपने बी.ए में दाखिला लिया है, मैंने एम.ए. में। हाँ चूँकि मैं इधर-उधर की बहुत-सी मैगजीन, किताबें, अटरम–सटरम पढ़ता-देखता रहता हूँ, इसलिए थोड़ा सा ज़्यादा जानता हूँ। खैर, आप बताएँ"।9 शशिप्रभा शास्त्री ने संवेदना और भाषा का स्वरूप स्पष्ट किया है। वही उपन्यास ‘रास्तों में भटकते’ हुए में लेखिका मृणाल पांडे ने नायिका की बिखरी जिंदगी की व्यथा एवं वेदना दिखाने का प्रयास किया है –"बेटी की मौत ने अचानक सब कुछ तार-तार कर डाला है। वे तमाम चट्टानी गहराइयाँ, उसके बीच छुपे वे दरके हुए पठार और चटखे हुए चकमक पत्थर, सभी को बेपर्दा कर सामने- मेरे सामने उस बच्चे ने यूँ धर दिया है, कि मैं न मुँह चुरा सकती हूँ, न भाग सकती हूँ"।10 लेखिका ने पार्वती की चिंता, पीड़ा और नीरसता के भाव को व्यक्त किया है। उपन्यास ‘ऐलान गली जिंदा है’ में भाषा का सहज रूप प्रस्तुत कर नारी के मन की करुणा को दिखाने का प्रयास किया-"स्त्री का मन समझना भी तो औरत आदमी के लिए आसान न था। अपने भीतर विशाल झील छिपाए वह आभास दे देती तो छल-छल करती हिलोरों का, जिन पर हँसी सूर्य की किरणों-सी झलमलाकर मन और दृष्टि दोनों को बाँध देती, थी कभी तो हरी जलकुंभी बनकर वह भीतर के नरकुल, शैवाल जानलेवा पनियल, चिकने झाड़ और पानी के तल में पानी के लिए छटपटाती मछलियाँ सभी स्त्री के मानस की अंधी गुफा में कैद होकर, भीतर-ही-भीतर फनफनाते रहते"।11 भाषा का प्रयोग वातावरण के अनुसार करने की कला चंद्रकांता में व्यापक रूप दिखायी पड़ती है। ‘कंदील का धुआँ’ में दिनेशनंदिनी डालमिया ने नारी व्यथा को चित्रित कर संवेदन के रूप को स्पष्ट किया है- "निराशा का कोहरा मेरे हृदय में घनीभूत होकर छा गया हालाँकि बाहर दिन की धूप निकल रही थी"।12 लेखिका ने भाषा और संवेदना का सटीक एवं सरल विश्लेषण किया है।

महिला कथाकारों ने जहाँ संवेदना का रूप-स्वरूप स्पष्ट कर भावभिव्यक्ति की, वही भाषा का स्वच्छ स्वच्छंद रूप प्रस्तुत किया है।

लोकोक्तियाँ और मुहावरे का प्रयोग :

महिला कथाकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा मुहावरे और लोकोक्तियाँ का प्रयोग किया है। इन लेखिकाओं के पास विशाल शब्द-संपदा है। इनकी भाषा पात्र एवं वातावरण के अनुसार मुहावरे और लोकोक्तियाँ का प्रयोग किया गया है। जो कि इस प्रकार से है-

"बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा"।13
"उधर क्या भाड़ झोंकने जाते हो"।14
"अपना दूध पतला हो गया तो पराई संतान टिक क्यों आन करें"।15

अलंकारों का प्रयोग :

महिला कथाकारों ने अपनी रचनाओं में उपमा, दृष्टांत, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग किया। -

"तवे पर सिकती हुई रोटी की तरह अपने चेहरे पर उभरे हुए मिलन-वियोग के बिखराव को मैंने पलटा"।16 

उपमा अलंकार का प्रयोग लेखिका ने इस वाक्य में किया है। - "पैरों में जैसे परेशानी के घुंघरु बाँधकर मैं टहलने लगती"।17 

इस वाक्य में दृष्टांत अलंकार का प्रयोग किया है। "उनके निर्मम कथनों के हाथ मन की झील ठहरे पानी को उल्टे अस्त-व्यस्त ही करते है"।18 

मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया गया है।

बिंब-विधान :

बिंब-विधान का प्रयोग प्रत्येक महिला कथाकार द्वारा अपनी रचनाओं के आधार पर किया गया है। ‘बिंब’ का अर्थ ‘मन के द्वारा खींचे गए चित्र’। उपन्यासों में भाषा के अंतर्गत बिंब का रूप- स्वरूप स्पष्ट किया गया है। महिला कथाकारों ने अपने उपन्यासों में बिंबों का संबंध इंद्रियों से माना है। इंद्रियों के द्वारा ही भावों का प्रयोग सार्थक माना है। विभिन्न बिंबों का प्रयोग हुआ है जैसे- दृश्य, श्रव्य, घ्राण, स्पर्श और स्वाद बिंब आदि।

दृश्य बिंब:

दृश्य बिंब का बड़ा महत्व है। इसका संबंध आँखों से होता है। महिला कथाकारों ने अपने साहित्य में दृश्य और श्रव्य बिंब के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लेखिका मृदुला गर्ग ने उपन्यास ‘मैं और मैं’ में दृश्य बिंब का वर्णन इस प्रकार किया है- "पान इतना खाता है कि जबान और दाँतों का रंग कीचड़ जैसा हो गया है। बात करते हुए, कील-मुहासों से भरे उसके काले लंबूतरे चेहरे के बीच मुँह के अंदर घूमती कत्थई-लाल जबान कीड़ों पर झपटती छिपकली की याद दिलाती है"।19 इसमें लेखिका मृदुला गर्ग ने नए-नए प्रयोग किये है।

श्रव्य बिंब

श्रव्य बिंब का संबंध कानों से है। मेहरून्निसा परवेज ने अपने उपन्यास ‘अकेला पलाश’ में श्रव्य बिंब को इस प्रकार प्रस्तुत किया है- "सड़क के किनारे ताड़ के उँचे-उँचे पेड़ हवा में हिल रहे थे और उनके बड़े-~बड़े पत्ते खूब शोर कर रहे थे, जैसे चीख-चीखकर कह रहे हो, लौट आओ लौट आओ"।20 लेखिका चंद्रकांता ने ‘ऐलान गली जिंदा है’ में श्रव्य बिंब का प्रयोग प्रस्तुत किया है- "एकाध बार किसी की परछाई दरवाजे के पास डाली, धीमी-सी हँसी खनकी, ज्यों कई छोटे-छोटे घुंघरू छन-छन बज उठे हों"।21  

घ्राण बिंब :

घ्राण बिंब से अभिप्राय सूँघने से है। इसका प्रयोग कम से कम हुआ है। मृदुला गर्ग ने ‘मैं और मैं’ उपन्यास में घ्राण बिंब का प्रयोग किया है- "सस्ते तंबाकू की तीखी गंध और धुएँ की वजह से कमरा, कब्र की घुटन लिए हुए है"।22

स्पर्श बिंब :

स्पर्श बिंब का संबंध त्वचा या महसूस करने से है। स्पर्श बिंब का प्रयोग उपन्यासों में अधिक मिलता है। लेखिका दिनेशनंदिनी डालमिया ने अपने उपन्यास ‘कंदील का धुआँ’ में स्पर्श बिंब का मनमोहक रूप प्रस्तुत किया है। "गुलाब जल से पिसे हुए चंदन की तरह संवेदना का लेप बनकर उसके शरीर के साथ लगे रहने की  मेरी कल्पना हर समय तिरस्कृत होती चली गई, तो मुझे लगा कि इसके मूल में कोई कारण विशेष भी हो सकता है"।23

स्वाद बिंब :

इसका संबंध जिह्वा से है। इसका प्रयोग महिला कथाकारों ने अपने साहित्य में यदा-कदा किया है। लेखिका उषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘शेषयात्रा’ में इसका रूप-स्वरूप प्रस्तुत किया है –"अकेलेपन के डर का भी जैसे एक रूखा-सूखा, तालू से चिपका स्वाद है"।24

समग्रत: कहा जा सकता है- इन महिला कथाकारों ने अपने साहित्य में भाषा का प्रयोग पात्रानुकूल और परिवेशनुकूल करने का प्रयास किया है। इन लेखिकाओं ने अपने उपन्यासों में शब्द-संपदा का व्यापक और विस्तृत रूप तो प्रस्तुत किया है साथ ही भाषा का सरल-सहज और स्पष्ट रूप प्रस्तुत किया है। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, अलंकारों और बिंब-विधान का सुंदर एवं सफल प्रयोग किया है।

संदर्भ सूची:

1. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी- भाषा और संवेदना –पृ. 97-98
2. सूर्यबाला- सुबह के इंतजार में – पृ. 163
3. सूर्यबाला – अग्निपंखी- पृ. 32
4. नासिरा शर्मा - ठीकरे की मंगनी- पृ. 121
5. ऋता शुक्ल - अग्निपर्व – पृ. 27
6. ऋता शुक्ल - अग्निपर्व - पृष्ठ 65
7. मेहरून्निसा परवेज - अकेला पलाश- पृ. 100
8. उषा प्रियंवदा - शेषयात्रा-पृ. 119
9. शशिप्रभा शास्त्री - उम्र एक गलियारे की- पृ. 26
10. मृणाल पांडे - रास्तों में भटकते हुए –पृ.14
11. चंद्रकांता - ऐलान गली जिंदा है- पृ. 191
12. दिनेशनंदिनी डालमिया - कंदील का धुआ- पृ. 146
13. वही पृ. 46
14. चंद्रकांता -ऐलान गली जिंदा है- पृ. 38
15. प्रभा खेतान- पीली आँधी- पृ. 223
16. दिनेशनंदिनी डालमिया- कंदील का धुआ- पृ. 2
17. वही- पृ. 60
18. राजी सेठ - तत्सम –पृ. 23
19. मृदुला गर्ग- मैं और मैं- पृ. 2
20. मेहरून्निसा परवेज - अकेला पलाश- पृ. 158
21. चंद्रकांता - ऐलान गली जिंदा है- पृ. 47
22. मृदुला गर्ग - मैं और मैं- पृ. 6
23. दिनेशनंदिनी डालमिया - कंदील का धुआ- पृ. 4
24. उषा प्रियंवदा - शेषयात्रा –पृ. 8

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