मैं बेटी
काव्य साहित्य | कविता गौरव कुमार महतो1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मैं बेटी
बड़ी हुई
अपने पैरों पर
खड़ी हुई ।
मैंने अनुभव किया
हमारे समाज में
बेटियों के लिए
एक अलग विभाजक रेखा है;
निज जीवन में मैंने जिसे
बड़े नज़दीक से देखा है।
सीखाया गया मुझे हमेशा
तुम बेटी हो
तुम्हें एक दायरे मे रहना है,
तुम बेटी हो
तुम्हें एक दायरे में कहना है,
तुम बेटी हो
तुम्हें समाज मे बहुत कुछ सहना है।
मैं समझ न पाती हूँ
बेटी होने का क्या अर्थ है?
या फिर
मैंने जो जीवन पाया
उसका ध्येय ही व्यर्थ है?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
दिपक पासवान 2021/06/28 09:24 PM
बहुत ही मनमोहक रचना.... ग़ौरव आप अपने दृष्टि में समाज के उस विषय को रचे हैं जिसे आज तक अपना अधिकार नहीं मिल पाया है। -धन्यवाद