मैं हूँ एक स्त्री
काव्य साहित्य | कविता विमला भंडारी9 Dec 2014
मुझे नहीं लगता कुछ भी कठिन
कर लेती हूँ तमाम सवाल हल
अँधेरे से भी डर नहीं लगता मुझे
जला लेती हूँ विश्वास का दिया
बीन के कंटक तक़दीर के
सारे, दौड़ पड़ी हूँ नंगे पैर
भोर की किरण आने से पहले
मेरी ताक़त को मत ललकारो\
कोई बुत नहीं जो गिर जाऊँगी
हाड-मांस से बना जीवित पिंजर हूँ
कमनीय स्त्रीदेह हूँ तो क्या हुआ?
मोड़ी दी मैंने समय की सब धाराएँ
भविष्य के उजाले कब कैद हुए
वर्तमान के धुँधलाकों से
दूर धकेल पर्वत सागर
पार की मैंने हर डगर
वक्त ने बाँध ली सीमाओं को
दीवारों पे दर्ज कर दी जीत मेरी
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