मैं क्यों बोलूँ ?
काव्य साहित्य | कविता दिलीप सिंह शेखावत15 Apr 2021 (अंक: 179, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
जब घर जला है तेरा, जब राख हुआ धन तेरा,
नुक़सान हुआ है तेरा, नल अपना मैं क्यों खोलूँ
बहुत चेताया था तुझको, बहुत जगाया था तुझको,
आँख ही तेरी ना खुले, आँख मैं अपनी क्यों खोलूँ
जब तेरे मुँह से आवाज़ न निकले,
मुँह अपना मैं क्यों खोलूँ ?
मैं क्यों बोलूँ ? मैं क्यों बोलूँ ?
आज तेरा ही घर जला है, कल कई घर और जलेंगे,
रोका ना इस चिंगारी को, बस्ती क्या अब गाँव जलेंगे,
बढ़ती हुई इन लपटों की, आँच मैं आख़िर क्यों झेलूँ
जानूँ कौन है इसके पीछे, राज़ मैं सारा क्यों खोलूँ
जब तेरे मुँह से आवाज़ न निकले,
मुँह अपना मैं क्यों खोलूँ ?
मैं क्यों बोलूँ ? मैं क्यों बोलूँ ?
क्या ज्ञान दूँ तुझे धर्म का, क्या तुझको सब मालूम नहीं
नुक़सान है तेरा ना कि उसका, इतना भी क्या ज्ञान नहीं
धर्मान्धता ले डूबेगी, ये कड़वा सच मैं क्यों बोलूँ
ये कड़वा सच तो तू भी जाने, मैं अपने मुँह से क्यों बोलूँ
जब तेरे मुँह से आवाज़ न निकले,
मुँह अपना मैं क्यों खोलूँ ?
मैं क्यों बोलूँ? मैं क्यों बोलूँ ?
इससे पहले और कुछ जले, सब अपने घर के नल खोलो
चाहे धीमे या फिर ज़ोर से, सब अपने मुँह से कुछ बोलो
तेरा घर है मुझसे जुड़ा, इसको और ना जलने दूँगा,
गूँजेगी आवाज़ भी मेरी, जब सबके साथ मैं बोलूँगा
आवाज़ निकलेगी सबके मुँह से,
मैं अपना मुँह भी खोलूँगा |
मैं बोलूँगा .. मैं बोलूँगा ..
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