मजमा
काव्य साहित्य | कविता राजेश ’ललित’30 Sep 2017
मजमा सजा है
मदारी ख़फ़ा है
बंदरिया के खेल का
अपना ही मज़ा है
लोग खड़े हैं
जादू बड़े हैं
हवा में से आयेगा रुपैया
साँप नाचेगा बीन पर थैया थैया
खेल सजेगा
नींबू कटेगा
ख़ून बहेगा
एक लड़का गिरेगा
फिर ख़ून बहेगा
हाथ खोल दो
नहीं तो लड़का मरेगा
मदारी कहेगा
मंच सजेगा
बच्चा लोग ताली बजायेंगें
बड़े लोग बटुआ सँभालेंगे
मदारी नोट के नम्बर बतायेगा
सब ख़ुश हो जायेंगे
पुलिस वाला आयेगा
डंडा बजायेगा
मदारी पचास का नोट थमायेगा
नया खेल दिखायेगा
छोटी सी लड़की आयेगी
दो बाँसों में रस्सी कसेगी
पाँव में रस्सी फँसेगी
रस्सी पर टँगेगी।
भीड़ होंठों पर हाथ रखेगी
अब गिरी के तब गिरी
कुछ नहीं होता
लड़की नीचे
सब बजाओ ताली
बच्चों की जेब ख़ाली
बड़ों ने फिर पर्स निकाला
नया नोट जुगाड़ा
खुले नहीं का बहाना लगाया
सिक्का निकाला
हवा में उछाला
मदारी ने लपका
खेल ख़त्म
पाँच साल पूरे हुये
सारे जुटना अगली गली
नया मदारी आयेगा
पुराने का सगा नहीं होगा
हवा में पैसा बनायेगा
लपक लेना सब
हवा का पैसा हवा में रहेगा
यूँ ही चलेगा
वह नया खेल दिखायेगा
पापी पेट का सवाल है भाई
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