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मलबे के मालिक

क़िले ढह रह हैं
उन्हीं परिचित किनारों पर,
जहाँ  ग़म निकलता है
नदियों के किनारों का
और दीवारों को सुध भी नहीं है
उनके दम घुटने की, वजूद मिटने की
जो दशकों से खड़ी थीं
अजीब कशमकश धारण किए,
वे  गवाह थीं निर्दोषों की हत्याओं की
घटित व्यभिचारों की मूक दर्शक थीं,
मगर छत तो खिलाड़ी थी
वो पर्दा थी गुनाहों पर, गुमानों पर
और सहचर थी दीवारों की
मगर कुछ रंगीनियाँ थीं उसमें
वो महफ़िल को सजाती थी,
खटकती रहती हैं झूमर की यादें
जो दीवारों से रंज रखता था,
वो आज दफ़न है उसी मलबे में
सहज होकर, सरल होकर।
सराहना से भरे हैं मुँडेरों के किनारे
जहाँ पर अश्क बहकर के
कनखियों से गुज़रते थे,
अभी कुछ उम्र बाक़ी है
क़िले के राज बाग़ों की
उन्हीं आरामबाग़ों की
जहाँ दिग्गज मोहब्बत को समझते थे।
वे शान से ताउम्र खड़े रहे
शौर्यता के चारण बन
बचे जो अब भी बाक़ी हैं
वे सब मलबे के मालिक हैं। 

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