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मंटो - नामी कहानियों का बदनाम कथाकार

उसने अपनी कहानियों से पूरे समाज में हंगामा मचा दिया था, जिसके लिखे को पढ़ कर लोग तिलमला उठे, लोगों के तन-बदन में आग लग गई, वे उसे बर्दाश्त नहीं कर सके। उसने जितनी उम्दा कहानियाँ लिखीं लोगों ने उस पर उतने ही गन्दे इल्ज़ाम लगाये। उसके ख़िलाफ़ मुकदमे दायर किये गये, उसे पागल करार दिया गया, फिर भी मंटो लिखता गया, जी हाँ उन नामी कहानियों के बदनाम कहानीकार का नाम मंटो था, सआदत हसन मंटो।

आज जब उस महान कहानीकार को इस दुनियाँ जिसने उसे चैन से जीने नहीं दिया से रूख़्सत हुए पचास साल से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र चुका है तब मैं आज के हालात में मण्टो की कहानियों परManto नज़र डालता हूँ और यह जानने की कोशिश करता हूँ कि उसने ऐसा क्या लिख गया जो लोगों को नागवार गुज़रा और लोगों ने उसका जीना हराम कर दिया! मैं उसकी कहानियाँ बुराइयाँ ढूँढने के इरादे से पढ़ता हूँ और उसकी क़लम का क़ायल होता जाता हूँ। वाह, ज़ालिम की क़लम में क्या जादू है, अपनी बात कहने का क्या ज़बरदस्त तरीका है। उसकी कहानी पढ़ कर एक बात ख़ास तौर पर सामने आती है कि मण्टो ने कहानियों में कुछ नहीं कहा बल्कि कुछ ख़ास कहने के लिये कहानियाँ लिखी। हालाँकि मैं बहुत बड़ा विद्वान नहीं और न ही आज तक मंटो को पूरी तरह समझ ही पाया हूँ लेकिन चूँकि मैं भी इसी विधा से जुड़ा हूँ इसलिये इसमें कुछ दख़ल अंदाज़ी कर सकने की क्षमता रखता हूँ। मैं यह पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मण्टो को पागल कहने से बढ़कर कोई पागलपन हो ही नहीं सकता। अगर कोई कहता है कि मण्टो की कहानियाँ अश्लील हैं तो मेरा कहना है कि अश्लील उसकी कहानी नहीं बल्कि पढ़ने वालों का दृष्टिकोण है। आखिर अश्लीलता का मापदंड क्या है? यदि मण्टो ने जो लिखा वह अश्लील है तो जो कालिदास ने लिखा वह क्या है?

ग्यारह मई उन्नीस सौ बारह को समराला (ज़िला लुधियाना) में पैदा हुए मण्टो, जिन्होंने सात साल की उम्र में जलियाँवाला बाग का खूनी हत्याकांड़ देखा, युवा अवस्था में देश का विभाजन उस समय के रक्तपात को देखा, मण्टो जिसने रूसी कहानी के रूपांतर से कथा साहित्य की दुनियाँ में कदम रखा, की कहानियाँ जब मैं, मैं जो इस दुनियाँ में जब आया तब मेरे इस प्रिय लेखक को इस दुनियाँ से सिधारे पाँच वर्ष हो चुके थे, आज पढ़ता हूँ तो ऐसा महसूस होता है कि मण्टो ने जो लिखा वह कहानी नहीं बल्कि आँखों देखी घटना का चित्रण है जिसे अफ़साने का नाम दे दिया गया है। बस ज़माने को मण्टो का यही चित्रण पचा नहीं, क्योंकि आज जिसे हम कहानी कहते हैं वह मण्टो की कहानी नहीं बल्कि ज़माने को दिखाया गया मण्टो का वह आईना है जिसमें ज़माने को अपना असली चेहरा नज़र आ गया। आप मण्टो की कहानी सिर्फ एक बार पढ़ कर मत छोडि़ये बल्कि दूसरी और तीसरी बार भी पढ़िये मेरा दावा है आप यह अवश्य स्वीकार करेगे कि कहानी का कथानक लेखक की कोरी कल्पना नहीं बल्कि उसका भोगा गया यथार्थ है, दिल पर खाया गया ज़ख्म है। मण्टो की विवादग्रस्त कहानी ""खोल दो" इंसानी दरिन्दगी का वास्तविक रूप है, इसकी नायिका सकीना मण्टो की कल्पना नहीं बल्कि विभाजन के समय का कटु सत्य है, जो इस कहानी को अश्लील रचना कहता है तो क्षमा कीजियेगा मेरा मानना है कि उसे अच्छे साहित्य को समझने की तमीज़ नहीं है। पाठकों का यह कर्तव्य होता है कि वे लेखक की भावनाओं और उसके दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए उसकी कृति को पढ़ें, कथा ख़त्म होने पर पुस्तक भले बंद कर दे किन्तु मस्तिष्क के द्वार खुले रखें। क्योंकि मण्टो जैसे रचनाकार न तो अनावश्यक शब्द लिखते हैं न शब्दों का अनावश्यक प्रयोग करते हैं, मण्टो के शब्द पाठकों की आँखों के रंगमंच पर दृश्य बन कर नृत्य करने लगते है। मण्टो के शब्द कहीं तीर कहीं खंजर कहीं ज़हर तो कहीं अंगार बन जाते हैं। अपनी एक कहानी में मण्टो लिखते हैं - मुझे रंडी के कोठे और पीर की मज़ार इन दो जगहों से बहुत डर लगता है क्योंकि पहली जगह लोग अपनी औलाद से और दूसरी जगह अपने ख़ुदा से पेशा करवाते हैं। मंटो का यह आक्रमक तेवर समाज झेल नहीं पाया और चंद मुल्ला, पंडि़त और नेताओं के गिरोह ने उसका जीना दुश्वार कर दिया, किन्तु जिस प्रकार घायल शेर और ज़्यादा ख़तरनाक हो जाता है उसी प्रकार पीड़ित क़लम और अधिक विद्रोही हो गई, इसी का परिणाम है कहानी "शाहदौले के चूहे" जो धर्मांधता के मुँह पर मारा गया मण्टो का वह तमाचा है जिसकी झनझनाहट समाज आज तक महसूस कर रहा है। तथाकथित हाई सोसायटी के साफ सुथरे कपड़े पहनने वालो की गंदी मानसिकता को बेनक़ाब करने से भी मण्टो साहब नहीं चूके और चंद लाईनों में ही उनका चरित्र चित्रण कर दिया, बानगी देखिये -

आपकी बेगम कैसी कैसी है?
यह तो आपको मालूम होगा, हाँ आप अपनी बेगम के बारे में मुझसे दरयाफ़्त कर सकते हैं।

एक अन्य लघु कथा में मंटो के पात्र जो संवाद कहते हैं ऐसा लिखने का दम तो बस मंटो की क़लम में ही था -
यार तुम औरतों से याराना कैसे गाँठ लेते हो?
याराना कहाँ गाँठता हूँ, बक़ायदा शादी करता हूँ।
शादी करते हो?
हाँ भई, मैं हराम कारी का क़ायल नहीं। शादी करता हूँ और जब उससे जी उकता जाता है तो हक़ ए महर अदा कर उससे छुटकारा हासिल कर लेता हूँ।
यानी? 
इस्लाम ज़िन्दाबाद

मण्टो विसंगतियो और उसके ज़िम्मेदार लोगों पर लगातार प्रहार किये जा रहा था, खराबी को मुँह छुपाने के लिये भी जगह नहीं मिल रही थी। बहुत हाथ पैर मारने के बाद अंततः खिसियाई बिल्ली खम्बा नोचने लगी और साहित्य के क्षेत्र में यह बात ज़ोर पकड़ने लगी कि मण्टो की कहानियों में अश्लीलता भरी हुई है, मण्टो गंदा लेखक है। यह सच भी है कि यदि कोई अश्लील दृष्टिकोण लिये मण्टो की कहानियाँ पढ़ेगा तो कुछ एक कहाँनियाँ में उसे अश्लीलता की झलक मिल जायेगी। यहाँ इस बात पर ध्यान दिया जाये कि मैंने दो बातें कही हैं एक "अश्लील दृष्टिकोण" और दूसरी "कुछ एक कहानी "। किन्तु इन्हीं कहानियों को जब एक समझदार और जागरूक पाठक पढ़ेगा तो इसे क़लम का जादू, क़लम का कमाल, लेखक की योग्यता जैसे अलंकरणों से सुसज्जित करेगा, क्योंकि उसमें इस बात को समझने की तमीज़ होगी कि इसमें लेखक का उद्देश्य अश्लीलता का वर्णन नहीं बल्कि समाज के चारित्रिक पतन का चित्रण है। दरअसल मंटो ने अपनी क़लम के साथ समझौता नहीं किया। यदि उसकी कहानी का पात्र वेश्या का दलाल है तो मंटो ने उसके मुँह से उसी स्तर के शब्द कहलवाये हैं जिस स्तर का वह आदमी है। मंटो ने शब्दों का इस्तेमाल करते समय ज़िन्दगी की इस हक़ीक़त को ध्यान में रखा है कि जिस मुँह में हराम की रोटी जायेगी उस मुँह से शराफ़त के अल्फ़ाज़ निकल ही नहीं सकते, अगर मंटो की कथा में कोई जवान लड़का नहाती हुई लड़की को छुप कर देख रहा है तो स्वाभाविक है उस समय उसके दिल में देशभक्ति के विचार तो नहीं आयेगे और न ही समाज सेवा के। उस समय उसके मन में जो विचार पैदा होगे उसकी का मण्टो ने पूरी ईमानदारी के साथ वर्णन किया है, जो लिखा वही वास्तविकता है, किन्तु लेखक की योग्यता के कारण वर्णन इतना जीवंत बन पड़ा है कि पढ़ते समय पाठकों की आँखों में एक एक शब्द दृश्य बन कर खड़ा हो जाता है। अब इसे लिखने वाले की क़ाबलियत मानना चाहिये था लेकिन लोगों ने इसे उसका ऐब मान लिया और इस बात को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया कि वह कहानी किस बिन्दू पर जाकर ख़त्म होती है और क्या बात कहती है? मण्टो की कहानियों की यह ख़ासियत है कि वे तो ख़त्म हो जाती हैं लेकिन पढ़ने वालों के दिमाग में सैकड़ों सवालात पैदा कर जाती हैं, ख़ास कर "खोल दो", "ठंडा गोश्त", दो कौमें, शहदौले के चूहे, कहानियों में तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि इनमें जो लिखा उसे तो हर सामान्य पाठक पढ़ लेता है लेकिन समझदार पाठक उसे भी पढ़ लेता है जिसे मण्टो ने शब्दों में नहीं ढाला, उन अलिखित वाक्यों को भी पढ़ लेता है जिसे कहने के लिये मण्टो ने पूरी कहानी लिखी। मण्टो शब्दों का इस्तेमाल कितनी ख़ूबसूरती से करते हैं इसका एक बेहतरीन नमूना उनकी कहानी "सड़क के किनारे" में देखने को मिलता है। नायिक को गर्भवती होने का एहसास होता है, उस एहसास को मण्टो ने शब्दों में यूँ प्रगट कराया है -

"मेरे जिस्म की खाली जगहें क्यों भर रही हैं? ये जो गड़ढे थे किस मलबे से भरे जा रहे हैं? मेरी रगों में ये कैसी सरसराहटें दौड़ रही हैं? मैं सिमटकर अपने पेट में किस नन्हे से बिन्दू पर पहुँचने के लिये संघर्ष कर रही हूँ? मेरे अंदर दहकते हुए चूल्हों पर किस मेहमान के लिये दूध गर्म किया जा रहा है? यह मेरा दिमाग मेरे ख़्यालात के रंग बिरंगे धागों से किसके लिये नन्ही मुन्नी पोशाकें तैयार कर रहा है? मेरे अंग-अंग और रोम-रोम में फँसी हुई हिचकियाँ लोरियों में क्यों बदल रही हैं? यह मेरा दिल मेरे खून को धुनक धुनक कर किसलिये नर्म और कोमल रजाइयाँ तैयार कर रहा है? मेरे सीने की गोलाईयों में मस्जिदों के मेहराबों जैसी पाकीज़गी क्यों आ रही है?

मंटो जिसने सारी उम्र सिर्फ लिखा है और इतना ज़्यादा लिखा है कि उसके सम्पूर्ण साहित्य का यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सकता। हो सकता है उसकी अनगिनत रचनाओं में कुछ एक कथ्य या शिल्प की दृष्टि से कमज़ोर हों, किन्तु उन चंद रचनाओं से मण्टो का सम्पूर्ण रचना संसार को आंकना न्यायसंगत नहीं होगा और उस अश्लीलता का आरोप लगाना उसकी योगयता को झुठलाना होगा। यदि मण्टो का दृष्टिकोण अश्लील होता तो उसकी क़लम टोबा टेक सिंह, ख़ुदा की क़सम, मम्मी, काली शलवार, ये मर्द ये औरतें, रत्ती माशा तोला, जैसी बेहतरीन कहानियाँ न रच पाती। जिन्हें मण्टो की क़लम परेशान करती रही उन्हें मण्टो ने स्वयं कहा है कि -

"ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं अगर आप उससे वाकिफ़ नहीं तो मेरे अफ़साने पढ़िये और अगर आप इन अफ़सानों को बरदाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है, मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मनसूब किया जाता है वह दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक्स है। मैं सोसायटी की चोली क्या उतारूँगा वो तो है ही नंगी।"

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