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मानिला की योगिनी - एक समीक्षा - पार्थो सेन

कृति : मानिला की योगिनी (उपन्यास)
लेखक : श्री महेश चन्द्र द्विवेदी
सम्पर्क : १/१३७, विवेक खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ-१०
मूल्य : रु.२००/- (दो सौ रुपये मात्र), सजिल्द,
पृष्ठ : १२७
प्रकाशन वर्ष : सन् २०१२
प्रकाशक – हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर, उ.प्र.

श्री महेश चन्द्र द्विवेदी जी द्वारा प्रणीत उपन्यास "मानिला की योगिनी" समीक्षा हेतु प्राप्त हुआ। इस कृति को लेखक ने पाठकों पर छोड़ दिया है कि वे इसे कथा-संग्रह माने या उपन्यास, इसका कारण यह है कि कभी लेखक ने रानी खेत व अल्मोड़ा मार्ग से कुछ दूर स्थित एक गाँव मानिला का भ्रमण किया था वहीं उन्हें बहुत कुछ जानकारी मिली कि वहाँ पर स्थित माँ अनिला के दो मन्दिर "मल्ला" पर्वतों पर तथा "तल्ला" पर्वतों के नीचे किसी समय एक योगिनी का वास था, इसके अतिरिक्त और भी घटनाओं का उन्हें पता चला, यही प्रेरणा का स्रोत बना और कुछ कहानियों के सृजन का कारण बना पर अन्त में इन कहानियों को जोड़कर एक उपन्यास का रूप दे दिया गया। जो ७ सर्गों में विभाजित है – १. मानिला की योगिनी, २. अहम्, ३. अवसाद, ४. अनावरण, ५. द्विविधा, ६. निर्जरा, ७. पुरावतन। चूँकि प्रकाशक ने इसे उपन्यास की श्रेणी में रखा है, अतः यही निर्णय मान्य है।
उपन्यास एक बहुत ही रमणीक, प्राकृतिक सौंदर्य की गोद में स्थित ग्राम मानिला की पृष्ठ भूमि तथा वहाँ स्थित दो मन्दिरों मल्ला व तल्ला के ऊपर आधारित है। उपन्यास नायिका मीता पर ही केन्द्रित है। मीता एक साधारण पर पढ़ी लिखी गृहणी है और उसका पति अनुज और उसकी दो बेटियाँ हैं। मीता घटनाक्र्म के चलते वह मन्दिर के सेवक भुवन चन्द्र के सम्पर्क में आती है। इसी बीच एक विदेशी जिसका नाम माइक है, मन्दिर में भक्तों के रूप में प्रवेश करता है, और इसी से मीता को पता चलता है कि उसका पति विदेश में एक होटल में नौकरी कर रहा है अतः वह माइक के साथ विदेश पहुँचती है और उस होटल तक जाती है पर उसके पति को एक विदेशी महिला के साथ देखकर वह उससे नहीं मिलती है और पुनः मानिला वापस आ जाती है। बाद में उसका पति अनुज भी भारत आ जाता है, मीता बीमार अनुज की सेवा करती है पर अनुज से शारीरिक संबंध नहीं कायम करती है। मीता पुनः मन्दिर लौटती है, कुछ समय पश्चात् मीता और योगी भुवन चन्द्र दोनों अन्तर्धान हो जाते हैं। अन्त में मीता और भुवन चन्द्र को स्वीटज़रलैण्ड में देखा जाता है जहाँ भुवन चन्द्र मीरा नाम की एक महिला के सम्पर्क में आता है और वही उसके साथ मन्दिर की योगिनी के रूप में रहती है।

मीता का चरित्र कुछ अजीब सा लगा, वह पुरुषों के सम्पर्क में आती है और उसके मन में आकर्षण बढ़ते ही वह अपने आपको अलग कर लेती है, वस्तुतः न व संतुष्ट हो पाती है न उसका पुरुष मित्र। वैसे उपन्यास में कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं कि पति अनुज के पश्चात् उसका संबंध भुवन योगी से रहा।

पात्र माइक के साथ मीता की स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंध पर काफी खुलकर बातचीत होती है, जिसमें लिव-इन-रिलेशन विवाहित जीवन में अन्य सम्पर्क, विवाहित जीवन में नीरसता को कम कर सकती है। आज किस तरह स्त्री के हड्डी से क्रोमोसोम्स लेकर, पुरुष सम्पर्क के बिना स्त्री माँ बन सकती है आदि। इस उपन्या में यह भी दर्शाया गया है कि कभी-कभी नारी में इतनी उत्तेजना पैदा हो जाती है कि वह बजाय पुरुष के नारी से ही संतुष्टि पाने का प्रयास करती है जैसा कि शेली नाम की महिला ने मीता के कमरे में उसके साथ किया।

उपन्यास में रोचकता भरपूर है, पर पाठक शायद संतुष्ट नहीं हो पाता है, न यह सुखान्त है न दुखान्त, एक रहस्यमय स्थिति में उपन्यास समाप्त हो जाता है। यही इसकी विशेषता है। भाषा-शैली साहित्यिक है, जो उत्कृष्टता प्रदान करती है। उपन्यास में संवाद कम दृश्यों व अन्य परिस्थितियों का वर्णन अधिक है।

उपन्यास पंडित उमादत्त त्रिपाठी व बाबूराम शर्मा जी को संयुक्त रूप से समर्पित है। आवरण आकर्षक है, मूल्य उचित है। "मानिला की योगिनी" मीता पर आधारित यह उपन्यास अनेक स्थानों पर जीवनोपयोगी संदेशों को समेटे हुए है। दृश्यों का वर्णन पाठको को वहीं लाकर उपस्थित कर देता है।

इस उपन्यास के सृजन के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

समीक्षक
पार्थो सेन
सी-३०८७, राजाजीपुरम्,
लखनऊ-१७

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