मंज़िल
काव्य साहित्य | कविता बृजमोहन स्वामी 'बैरागी'19 Feb 2016
मैं जब भी
तेज़ चलता हूं
मंज़िलें
दूर जाती हैं
मैं जब
भी रुक जाता हूँ
रास्ते रुक जाते हैं
मैं अकसर सोचा करता हूँ
कैसे गुज़रूँगा
इन
राहों से
मैं फिर भी
उठ खड़ा होता हूँ
ये सोचकर
कि
कल भी कोई राहगीर गुज़रा था
यहाँ से
कल भी गुज़रेंगे कई लोग यहाँ
इसी उम्मीद में अकसर
मैं देखा करता हूँ
मेरी
कोशिश ज़िन्दगी
को भी
जीत सकती है।
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