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मरा हूँ हजार मरण, पाई तब चरण-शरण – अभी न होगा मेरा अन्त

पुस्तक शीर्षक: अभी न होगा मेरा अंत : निराला 
लेखिका: डॉ. उषारानी राव 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर 
पृष्ठ संख्या: 117 
प्रकाशन वर्ष: जनवरी, 2020 
आईएसबीएन नंबर: 978-93-89831-13-9
मूल्य: 150/- रुपये 


साल था 1947 और स्थान काशी। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की स्वर्ण जयंती मनायी जा रही थी। बिहार के साहित्यकारों की तरफ़ से बोलते हुए जब रामधारी सिंह दिनकर ने कहा, “रिश्ते में निराला जी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद, दोनों के पिता माने जाएँगे“ तो निराला बोल उठे, “तुम जो बात कह रहे हो, वह बात लोग लिखते क्यों नहीं हैं?” दिनकर ने निराला जी से कहा, “लोग लिखेंगे कैसे नहीं? अभी तो आप पर लिखाई शुरू हुई है। कालक्रम में हर बात लिखी जाएगी।“ दिनकर का कहा सत्य साबित हुआ। निराला और उनके साहित्य पर न जाने कितने साहित्यकारों ने शोध किया और अपने-अपने तरीक़े से विवेचना की। इसी क्रम में बोधि प्रकाशन जयपुर से एक किताब प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है “अभी न होगा मेरा अंत : निराला” और जिसकी लेखिका हैं डॉ. उषारानी राव। 

इस किताब में उषारानी राव के परिचय में इनकी मातृभाषा कन्नड़ दी गई है और भाषा कुशलता कन्नड़, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में है। किताब को पढ़ते हुए आश्चर्य होता है कि इनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है और साथ ही ‘भाषा कुशलता’ के रूप में हिंदी और संस्कृत का होना सिद्ध भी होता है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी, जो कम ही पढ़ने-सुनने को मिलती है, उषारानी राव की भाषा में सहज ही प्रवाहित होती है। याद आता है कि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हरजिन्दर सिंह ‘लाल्टू’ ने इस सवाल पर कि “आपकी भाषा कठिन है, आम पाठकों को समझने में दिक़्क़त होती है” एक साक्षात्कार में कहा था “यह भाषा मेरी ख़ुद की कठिन मेहनत, जिन शिक्षण संस्थाओं से मैं पढ़ा और जिन शिक्षकों का मुझे आशीर्वाद मिला – इन सबों का प्रतिफल है। यदि मैं इस भाषा का प्रयोग न करूँ तो यह मेरी शिक्षा का अनादर होगा। मेरे पाठकों को मेरी रचनाएँ समझने के लिए मेरे स्तर तक आना होगा।“ लगभग ऐसी ही प्रतिक्रिया अज्ञेय की भी रही। हालाँकि इसके उलट अपने आरंभिक दिनों में उर्दू के कठिन शब्दों का प्रयोग कर ग़ज़ल लिखने वाले बशीर बद्र ने बाद में आसान लफ़्ज़ों को तरजीह दी और सफल भी हुए। ‘अभी न होगा मेरा अंत : निराला’ की विषय वस्तु एक सहज, सरल, मनोरंजक कथात्मक शैली की चाह रखने वाले पाठकों से अधिक वैसे पाठकों की अपेक्षा रखती है जो निराला साहित्य की कुछ परतों को कुरेद कर उसे बेहतर समझना चाहते हैं। अपने भाषिक सौन्दर्य से सजी यह किताब, निराला साहित्य के कुछ चुने पहलुओं पर गहन विवेचनात्मक विश्लेषण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करती है। किताब के संबंध में इसकी भूमिका में विजय कुमार ने लिखा है, “उषारानी राव ने निराला के बहाने एक रचनाकार में समाज और व्यक्ति, जड़ और चेतन, स्थूल और सूक्ष्म, अंधकार और प्रकाश, विगत और आगत, हर्ष-विषाद, आस्था-अनास्था, भीतर-बाहर, सामूहिकता और एकांत के उन विरल मिलन बिंदुओं को रेखांकित किया है जिनसे जीवन और अभिव्यक्ति की एक गहन स्वर-मैत्री स्थापित होती है। डॉ. उषारानी राव ने इस सत्य को अपने ढंग से विश्लेषित किया है कि एक जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी निराला, संघर्ष और मुक्ति के कवि हैं और इनमें से किसी भी एक तत्व को दूसरे से पृथक कर नहीं देखा जा सकता।“ निराला की साहित्यिक चेतना और मानवीय संवेदनाओं को झकझोरती इनकी रचनाएँ साहित्यकारों और शोधार्थियों को आकर्षित करती रही है और उषारानी राव भी इसकी अपवाद नहीं हैं। लेखकीय वक्तव्य में इन्होंने लिखा है “निराला की प्रखर चेतना कविता की अनुभूति को ऐसा विस्तार प्रदान करती है जो स्व को अपने समय में अपने समाज की अनुभूति में बदल देता है।“ किताब की उपादेयता के संबंध में लेखिका लिखती हैं, “स्व के प्रति देश में हमें जो साहित्य मिला, जिन धारणाओं, संगतियों एवं विसंगतियों की साधना के बल पर इन्होंने इतना प्रेय बनाया, उस प्रेय का श्रेय क्या है? और अश्रेय क्या है? यह बताना अत्यंत आवश्यक है। उसकी सीमाओं को निर्धारित करना होगा। उन्हें संकीर्णता के दायरे में न रखकर मानवता की व्यापक दृष्टि से देखना होगा। समझौता और पक्ष विशेष की ओर ले जाने वाला साहित्य घातक है। इस तुला पर सीधे रूप से हम साहित्य को तौल नहीं सकते। हमें मानवीय गुणों को ही देखना होगा। यदि मानवतावादी दृष्टि से वह साहित्य हमें कुछ देता है, तो उसे स्वीकार करना होगा।“ चार अध्यायों से सजे इस किताब में उषारानी राव, निराला साहित्य में इसी मनावतावादी दृष्टिकोण की परख करती हैं और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर अपने विश्लेषण का सार पाठकों के सम्मुख रखती हैं। विश्लेषण के निष्कर्ष से पाठकों की सहमति-असहमति हो सकती है लेकिन पुस्तक पढ़ते हुए पाठक अपने आप को विश्लेषण की इस प्रक्रिया में शामिल पाता है और यह लेखिका के ईमानदार और पारदर्शी प्रयासों का प्रतिफल है। 

‘छायावाद : एक संस्मृति’ अध्याय में लेखिका छायावाद के मूल गुणों का उल्लेख करती हैं लेकिन साथ ही यह भी जोड़ती हैं कि किसी भी युग में रचनाकार का चिंतन एकांगी और तदर्थ नहीं होता, मानवीय संवेदनाएँ ही रचनाकार की दृष्टि को समग्रता प्रदान करती है और उसे किसी काल या वाद के परिसीमन से परे ले जाती हैं। छायावाद के काल में भी पहले प्रकृति फिर आध्यात्म और अंततः लोक कल्याण इस कालखंड का रचनात्मक उद्देश्य बना। इस अध्याय में लेखिका छायावाद के निराला के समकालीन कवियों की काव्यगत और शिल्पगत विशेषताओं पर प्रकाश डालती हैं और दर्शाती हैं कि किस तरह इन सभी ने छायावाद के स्थापित प्रतिमानों से आगे जा कर कुछ नया करने की कोशिश की। छायावाद और निराला साहित्य के जो सीमित और संकुचित आलोचनात्मक पक्ष पाठकों के सम्मुख परोसे गए उन पर सवाल उठाते हुए और इस किताब की प्रासंगिकता के बारे में लेखिका लिखती है “यह छायावाद का एक लघु फ्रेम मात्र है इसमें अनेक तत्वों व् तथ्यों के रंगों का समावेश बाक़ी है। कई प्रश्न हैं जिनका आज की प्रासंगिकता के संदर्भ में उत्तर खोजा जाना बाक़ी है। इसमें आदान का ही स्वरूप है या प्रदान की भी परिपाटी है अथवा इन सबसे परे कोई नूतन दृष्टि भी है, के उत्तर के लिए सामूहिक साहित्यिक प्रज्ञा प्रयास से अन्वेषण हो सकेगा।“

‘निराला महाप्राण : एक स्वच्छंद उच्छवास’ अध्याय में लेखिका छायावाद के दौर में निराला के कृतित्व का गहन विश्लेषण करती हैं और साक्ष्यों के साथ स्पष्ट करती हैं कि किस तरह निर्लिप्त भाव वीचियों से आबद्ध वीर, करुण, रौद्र तथा अहर्निश सामान्य जन की पीड़ा के साथ सौन्दर्य तथा शृंगार के विराट बिंबों, प्रतीकों का सहज ही संयोजन करने में निराला सक्षम दिखाई देते हैं। गांधी के प्रशंसक, शांति के अनुयायी निराला, समय की मांग पर संघर्ष को चुनने में नहीं हिचकिचाते। ‘राम की शक्ति पूजा’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। निराला की रचना ‘तुलसीदास’ की पंक्तियाँ ‘थे मुँदे नयन ज्ञानोन्मिलित/ कलि में सौरभ ज्यों, चित्र में स्थित/ अपनी असीमता में आवसित प्राणाशय/ जिस कलिका में कवि रहा बंद/ वह आज उसी में खुली मंद/ भारती-रूप में सुरभि छंद निष्प्र श्रय” को उद्धृत करते हुए लेखिका कहती हैं कि परंपरा एवं ज्ञान बोध की स्पर्धा से नवीन तात्विक विभा जागृत होती है और इन पंक्तियों को पढ़ते हुए इसे सहज ही समझा जा सकता है। निराला के न केवल कृतित्व बल्कि उनके व्यक्तित्व के भी इतने सारे आयाम हैं कि पाठकों के लिए उनकी रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए कुछ संशय का होना स्वाभाविक है। लेखिका लिखती हैं निराला के व्यक्तित्व के साथ कृतियों में विद्रोह अवश्य है पर उस विद्रोह के अंतर में मर्यादा और संस्कारों का शांत सौन्दर्य है। निराला की आंतरिक चेतना किसी वाद या सिद्धांत के आधार पर नहीं, जीवन के अनुभव के साथ निरंतर पल्लवित और फलीभूत जीवन-दर्शन है। 

निराला के लिए धर्म-दर्शन और देश-प्रेम में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं है। निराला ने हमेशा समाज को जागरूक और एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता पर बल दिया। निराला जानते थे कि धर्म यहाँ की संस्कृति का हिस्सा है और जनता बहुदेववाद में यक़ीन रखती है जिससे वह कई हिस्सों में बँटी है। निराला ने अपनी रचनाओं के माध्यम से धर्म के रास्ते को समयानुकूल परिवर्तन करके एकता के मार्ग को दिखाया। रामकृष्ण मिशन में रहकर रामकृष्ण के सैद्धांतिक पुस्तकों और जीवनी की बांग्ला से हिंदी में अनुवाद करने की प्रक्रिया में उन्हें अद्वैत दर्शन को समझने में सहायता मिली जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं में दिखता है। निराला के काव्य में नवीनता है लेकिन यह किसी पुराने स्थापित प्रकिया को तोड़फोड़ कर आयातित नहीं है। निराला की रचनाओं में जो संघर्ष है वह ‘बहु जन हिताय, बहु जन सुखाय है’। कहीं-कहीं इनके शब्द रहस्यात्मक लगते हैं तो कहीं आदर्शवाद की तरफ़ इशारा करते हैं लेकिन निराला एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करते हैं जहाँ सब एक-दूसरे का पर्याय हों और भिन्नता दूर हो जाय। निराला मुक्ति का आह्वान करने वाले कवि हैं। कभी कारा कभी माया शब्दों से आपसी बंधनों को तोड़कर मुक्त होने का आह्वान निराला बार-बार करते हैं – तोड़ो तोड़ो तोड़ो कारा पत्थर की निकलो गंगा जल धारा। वर्तमान परिदृश्य में सामाजिक चेतना के बिखराव पर लेखिका लिखती है “आज सामाजिक चेतना कई शिविरों में विभाजित दिखाई देती है। विभिन्न प्रकार के विचारवादी पंथी अंधेरे में प्रकाश की खोज कर सामाजिक पीड़ा को सृजनात्मक अभिव्यक्ति दे रहे हैं। इस परिवेश में निराला का व्यक्तित्व तीखी अनुभूति की पृष्ठभूमि में भटकाव की चेतावनी देता है।“

निराला के साहित्य के बहुआयामी पक्ष को और विस्तार देते हुए ‘सामयिक युग : चेतना के पुंज’ अध्याय में लेखिका निराला को कबीर की ही तरह अपनी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक संवेदना को सामाजिक जनभूमि पर उतारने वाला मानती हैं जो समाज के बीचों-बीच खड़े हो कर कुविचारों, राजनीतिक षड्यंत्रों, वर्गभेद, अत्याचारों, रूढ़ियों और पाखंड पर सशक्त रूप से शब्द-प्रहार करते हैं। निराला की छंद मुक्ति का आह्वान सिर्फ़ छंद तक सीमित न रह कर मानवता की उदात्ततर भूमि के तलाश का स्वप्न सँजोये, कविता की मुक्ति से होते हुए मानव मुक्ति तक जाता है। निराला ने समाज में व्याप्त पुरानी सामाजिक परंपराओं का विरोध किया। यह विरोध सिर्फ़ उनकी रचनाओं तक सीमित नहीं रहा; उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अपने पुत्र की शादी का खर्च स्वयं वहन किया, अपनी पुत्री की शादी में पुरोहित का आसन भी स्वयं संभाला। निराला के व्यक्तित्व का ये विद्रोह उनकी रचनाओं में शामिल हो कर उन्हें कालजयी बनाता है।   

निराला अपनी रचनाओं में एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ सौन्दर्य और श्रम दोनों को ही सम्मान मिले, सौन्दर्य से उनका बोध सौन्दर्य पूर्ण रुचि का चित्रण है। कुकुरमुत्ता एक उत्कृष्ट व्यंग्य है जहाँ वंचित वर्ग (कुकुरमुत्ता), पूँजीपति वर्ग के प्रतीक गुलाब के समृद्धि की खिल्ली उड़ाता है। केदारनाथ सिंह ने कहा था “तार-सप्तक में कम-से-कम दो प्रवृतियाँ (व्यंग्य विद्रूप की प्रवृति और अनुभूतियों के स्थानीकरण की प्रवृति) ऐसी है जो तार-सप्तक पूर्व की कविताओं में भी विद्यमान थीं। ये दोनों प्रवृतियाँ यदि उत्तेजनात्मक संगठन के साथ किसी पहले के कवि में मौजूद है, तो निराला में।“ छायावाद के गर्भ से सन् 1930 के आसपास सामाजिक चेतना से युक्त साहित्यिक धारा का जन्म हुआ और जिसे 1936 में प्रगतिशील साहित्य या प्रगतिवाद कहा गया। निराला की कई कविताएँ जैसे ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेल’, ‘अणिमा’, ‘नए पत्ते’ आदि इसी विचारधारा की कविताएँ थीं लेकिन निराला को प्रगतिवादी मानने में साहित्यकारों ने हमेशा संकोच किया। लेकिन इस किताब में लेखिका ने धर्म, देश प्रेम, सामाजिक समस्याओं, ग़रीबी आदि विषयों पर प्रेम, क्रोध, करुणा, दुख आदि भावनाओं के साथ लिखे गए अनेकानेक उदाहरणों के माध्यम से साबित किया है कि छायावाद से प्रगतिवाद की तरफ़ अग्रसित होने वालों में निराला सबसे आगे थे और उनकी भूमिका सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी रही। निराला के व्यक्तित्व/कृतित्व की विशालता, निराला की ही पंक्तियों से दर्शाती हुई लेखिका लिखती हैं – “ठहरो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा/ तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।” 
‘अभी न होगा मेरा अंत : निराला’ में लेखिका उषारानी राव, निराला के प्रति कई स्थापित पूर्वाग्रहों और आलोचनाओं को अपने तार्किक और बौद्धिक क्षमता का परिचय देते हुए साक्ष्यों के साथ काटती हैं और सफलतापूर्वक यह स्थापित करती हैं कि निराला को किसी एक ‘वाद’ की सीमा के अंदर बाँध कर देखना, उनके और उनके साहित्य के प्रति अन्याय होगा। समाज की कुरूपता पर प्रहार हो या समाज के वंचित वर्ग के साथ खड़े होने का साहस, निराला के साहित्य में मानवीय करुणा और सहानुभूति उनकी स्वभावगत ईमानदारी के साथ परिलक्षित होती है। निराला के साहित्य की विराटता को परिभाषित करती हुई लेखिका लिखती हैं “नित्य प्रति जीवन मरण के संग्राम में जो जीता है और संघर्ष के बाद जो जीवित रहता है, वह और उसका जीवन एक विराट सत्य बन जाता है। वह अनुभवजन्य साहित्य, जीवन का सही चित्र उतारने में समर्थ होता है। इसलिए उनका काव्य, युग-काव्य बन जाता है और वह कवि, युग-कवि।“ देश, काल और वाद की सीमाओं तो तोड़ निराला ने अपने लिए एक नए क्षितिज का निर्माण किया और हिंदी साहित्य को अमरता प्रदान की। “मरा हूँ हजार मरण/ पाई तब चरण शरण/ जीवन विष विषम किया।“ निराला के लिए लेखिका, रामविलास शर्मा की पंक्तियाँ उद्धृत करती हैं “जला है जीवन यह – निराला का जीवन जला है, हिंदी का जीवन जला है। निराला के मन की आशाएँ, उल्लास, विषाद, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न यह सब कुछ कहीं न कहीं हिंदी के इस आंतरिक संघर्ष से जुड़ा हुआ है। निराला के बिना हिंदी का यह संघर्ष नहीं समझा जा सकता, इस संघर्ष के बिना निराला नहीं समझे जा सकते, न व्यक्तित्व, न कृतित्व।“ छायावाद के अधिकांश कवियों की तरह निराला सिर्फ़ गुलामी, गरीबी, मजबूरी, दर्द से मुक्ति की कामना नहीं करते बल्कि इससे आगे जाते हुए इस कल्पना को साकार करने का आह्वान करते हैं। उनके इस आह्वान में सामूहिक चेतना और मानवीय संवेदना का स्वर इसे प्रभावी बनाता है। छायावाद से ज़्यादा निराला संघर्ष और मुक्ति के कवि के रूप में जाने जाते हैं। किसी स्थापित मार्ग पर चलने की कामना करना सहज है लेकिन किसी नये मार्ग का निर्माण करना और वहाँ से न केवल खुद वरन सारे समाज को रास्ता दिखाना और उस मार्ग पर अग्रसर करना दुरूह कार्य है जिसे निराला ने कर दिखाया। रामधारी सिंह दिनकर ने जो कहा था “रिश्ते में निराला जी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद, दोनों के पिता माने जाएँगे“, लेखिका उससे सहमति जताते हुए लिखती हैं “छायावाद की चहारदीवारी को लांघकर प्रयोगवादी राह से प्रगतिशील विचारों के प्रतिमाओं की तलाश में सक्षम दिखाई देने वाले निराला छायावादी युग में होते हुए भी अपनी सृजनात्मक रचना प्रक्रिया के द्वारा व्यापक सत्य और संघर्ष की अभिव्यक्ति में बहुत आगे हैं।“ इस किताब की भूमिका में विजय कुमार लिखते हैं “अकादमिक जगत में लेखिका की इस पुस्तक का स्वागत होगा, यह आशा की जानी चाहिए।“ लेकिन जिस तरह इस किताब में लेखिका ने छायावाद और इससे जुड़े कई अन्य अवधारणाओं को खंडित करते हुए निराला की वैश्विक जनकल्याण, मानवीय संवेदना, वंचित सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति, अपने हक के लिए संघर्ष का आह्वान आदि गुणों को रेखांकित किया है, इससे यह किताब अकादमिक महत्व की तो है ही लेकिन उन सभी निराला प्रेमियों के लिए किसी सौगात से कम नहीं है जो प्रतिदिन निराला की पंक्तियों में जीवन जीने की जिजीविषा देखते हैं और प्रभावित होते हैं। गागर में सागर भर देने वाले इस महती प्रयास के लिए, सभी निराला प्रेमियों की तरफ़ से लेखिका डॉ. उषारानी राव को उनके इस शोध-आधारित पुस्तक ‘अभी न होगा मेरा अंत : निराला’ की सफलता के लिए शुभकामनाएँ।   

समीक्षक : प्रवीण प्रणव 
डायरेक्टर, प्रोग्राम मैनेजमेंट, माइक्रोसॉफ्ट 
ईमेल : Praveen.pranav@gmail.com
फ़ोन : 9908855506 
 

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