मरम्मत
काव्य साहित्य | कविता रेखा मैत्र29 Apr 2008
अकसर टूटी-फूटी चीज़ें
सुधारते देखा है तुम्हें
चटखे फूलदान में
इस क़दर जोड़ लगाते
देखने वाले की आँखें
धोखा ही खा जाएँ
एकदम नया नज़र आए
पर, अपनी दूरबीनी आँखों का
क्या किया जाए?
मेरी नज़रें उसे देख भी लेती हैं
और सवाल भी करती हैं
अगर चीज़ें और रिश्ते
हिफ़ाज़त से रखे जाएँ
तो जोड़ लगाने की
ज़रूरत ही क्यों पड़े?
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