मत बनो ज्वालामुखी
काव्य साहित्य | कविता भूपेंद्र कुमार दवे31 Mar 2014
मत बनो ज्वालामुखी, लावा न उगलो शान से
बन हिमालय-सा अडिग गंगा बहावो शान से।
मत कहो आकाश से कुहरा घना करता चले
हर सुबह सूरज हमारा ऊगने दो शान से।
मत गिनो दरख़्त जो ठूँठ से अकड़े खड़े हैं
इक हरा दिखे परिंदों उसको सजावो शान से।
मत चुनो अल्फाज़ जो शर्मसार सबको करें
बोल जो प्यारे लगें, उन्हीं को बोलो शान से।
मत बनो गूँगे इस बहरे जगत के सामने
यह वक़्त की आवाज़ है गूँजने दो शान से।
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