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मौन अधर कुछ बोल रहे हैं

सूखे-सूखे खेत निहारे, भीगी-भीगी आँखें।
जो थी उड़ने को बेकल, सिमट गयीं वो पाखें॥
द्वार पीर का खोल रहे हैं।
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं॥
  
बरखा तुझसे मन है रूठा, देख तेरी निठुराई।
फटी-फटी छाती धरती की, तुझको लाज न आई॥
बूँद-बूँद अनमोल रहे हैं।
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं॥
  
सूखी पड़ गई धान की बाली, हरियायापन पीत हुआ।
गाते राग मल्हार थे जो हल, भग्न हृदय का गीत हुआ॥
सपने आज टटोल रहे हैं।
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं॥
  
बदरा कह, कैसे इस जग को, मिलेगा दाना-पानी।
हल ख़ामोश, बैल चुप-चुप हैं, सहमी-सहमी किसानी॥
भूखे पंछी डोल रहे हैं।
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं॥
  
सूखे-सूखे खेत निहारे, भीगी-भीगी आँखें।
जो थी उड़ने को बेकल, सिमट गयीं वो पाखें॥
द्वार पीर का खोल रहे हैं।
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं। 
मौन अधर कुछ बोल रहे हैं॥

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