मज़ाक
कथा साहित्य | लघुकथा क्षितिज जैन ’अनघ’1 Apr 2020 (अंक: 153, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
"देखो तो!" मधुरिमा बोली।
"क्या?" विनीत ने पूछा।
"तुम्हारे सिर में एक सफ़ेद बाल!"
विनीत ने ड्रेसिंग टेबल के शीशे में देखा, वास्तव में उसके सिर पर एक सफ़ेद बाल की लट झलक रही थी।
"हाँ, सही कहा।"
"जनाब बुड्ढे हो रहे हैं," मधुरिमा ने हँसते हुए कहा।
"हाँ सही कहा। और जैसे तुम तो सोलह साल की लड़की ही रहोगी हमेशा!" उसने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।
"थोड़े दिनों में पूरे बाल सफ़ेद हो जाएँगे!"
"और थोड़े दिनों में, तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ आ जाएँगी, झुर्रियाँ! फिर लगोगी तुम बूढ़ी!"
"हाँ-हाँ, तुम तो चाहते ही यह हो, कि मै बूढ़ी दिखने लगूँ," मधुरिमा चिढ़ते हुए बोली।"
"ऐसा तो मैंने कहा ही नहीं।"
"थोड़ा सा मज़ाक भी नहीं समझते। बोला क्या, बस चालू हो गए चिढ़ कर ताने देना।"
"मैंने भी तो मज़ाक ही किया था," दिन भर के थके विपिन को इस किचकिच में भी मज़ा आ रहा था।
"तुम और तुम्हारा मज़ाक..." मधुरिमा ने दूसरी ओर करवट कर ली।
विपिन को अब भी हँसी आ रही थी।
"हाँ, हँसी तो आएगी ही न, पत्नी का जी जो दुखाया है।"
विपिन ने कुछ नहीं कहा, बस अपनी हँसी को अंदर ही अंदर दबाते हुए साइड टेबल के लैंप को बंद कर दिया।
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