मज़दूर
काव्य साहित्य | कविता विजय कुमार15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
वह मज़दूर - वह मज़दूर,
है देखो कितना मजबूर।
नैनों में एक सपना लिए,
आशाओं का उजाला लिए,
घर से निकलता है बस वह,
अपने जिस्म का सहारा लिए,
नहीं ठिकाना उसके काम का,
नहीं पता उसके दाम का,
ऐसी क़दर होती है उसकी यहाँ,
बन जाए वह सूरज शाम का,
ख़ामोशियाँ हैं होठों पर,
बिकती ज़िंदगी नोटों पर,
परिवार पले उसका यहाँ,
ज़माने की चोटों पर,
धिक्कारा जाता है वह,
उसका क्या क़ुसूर,
वह मज़दूर- वह मज़दूर,
है देखो कितना मजबूर।
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