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मेहरून्निसा परवेज के उपन्यासों में नैतिक मूल्यों का द्वंद्व 

स्वतंत्रता के बाद जहाँ मूल्यों में परिवर्तन आया वहीं नैतिक मूल्यों का द्वंद्व भी बढ़ता गया। मेहरुन्निसा परवेज ने अपने उपन्यासों में समाज में व्याप्त समस्याओं को उठाकर नवीन-दृष्टि का परिचय दिया है। मेहरुन्निसा परवेज ने परंपरागत मूल्यों को त्यागकर प्राचीन और आधुनिक नैतिक मूल्यों में फँसी नारी के द्वंद्व को चित्रित किया है। नैतिक मूल्य मानव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इन गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है और आज इन मूल्यों में परिवर्तन आने से द्वंद्व की भावना उत्पन्न होती जा रही है जैसे– राग-द्वेष, प्रेम, अहिंसा, करुणा, पवित्रता, कर्तव्य-बोध आदि सभी मूल्यों के अंतर्गत आते है। प्लेटो ने कहा है कि “पुरुष में एक प्रकार का शौर्य होता है, परंतु नारी चरित्र में शौर्य का नैतिक-विवेकशून्य चातुर्य का समावेश अनुचित होगा।”1 पुरुष और स्त्री के शौर्य की भिन्नता बता नारी के शौर्य में इन मूल्यों का परिवर्तित रूप-स्वरूप बताया गया है। प्लेटो ने जहाँ मूल्य को प्रतिष्ठा माना है वहीं डॉ. धर्मवीर भारती ने मानवतावाद को नैतिकता के समानन्तर माना और कहा है कि “मानवतावाद के उदय में ईश्वर जैसी किसी मानवोपरि सत्ता या उसके प्रतिनिधि धर्माचार्यों को नैतिक मूल्यों का अधिनायक न मानकर मनुष्य को ही इन मूल्यों का विधायक बनने की प्रवृत्ति विकसित हुई।"2 

हिंदी की महिला उपन्यासकारों में मेहरुन्निसा परवेज का स्थान विशिष्ट है। लेखिका ने अपने उपन्यासों में जीवन की विविध समस्याओं और उसमें बदलते मूल्यों का यथार्थवादी चित्रण किया है। आदर्श एवं संस्कारों में घुटते पात्रों के द्वंद्व की समस्या को चित्रित कर नैतिकता का अंतर्द्वंद्व को भी उभारता है। उनके प्रमुख उपन्यास है– ‘आँखों की दहलीज’, ‘उसका घर’,‘अकेला पलाश’, ‘पत्थर वाली गली’, ‘समरांगण’, ‘पासंग’ आदि। 

‘आँखों की दहलीज’ उपन्यास में दांपत्य जीवन में आयी दरार के कारण द्वंद्व एवं राग-द्वेष को लेखिका ने नायिका तालिया के माध्यम से दिखाया गया है। तालिया शादी के बाद भी माँ नहीं बन सकी। पति शमीम से बार-बार माँ बनने की इच्छा दोहराने से शमीम उस पर क्रोधित हो जाता है। बहुत समझाने पर भी तालिया में माँ बनने की तीव्र इच्छा जागती रहती है। इसी इच्छा की आशा लिए तालिया का शारीरिक संबंध जावेद से बन जाता है। संबंध बनाने के बाद तालिया को एहसास होता है कि उसने ग़लत किया। पति शमीम उसे बहुत चाहता है। तालिया इसी परेशानी में उलझी रहती है और अपनी मित्र जमीला से अपने द्वंद्व को व्यक्त करते हुए कहती है– “मेरी आँखों की खिड़की से कोई भी झाँक कर मेरी ज़िंदगी की मज़ार देख सकता है। मैं क्या करूँ।"3 तालिया में पति के प्रति समर्पित भाव नहीं है। वह अपनी नैतिकता से विमुख हो परपुरुष के प्रति आकर्षित हो जाती है। वह भीतर ही भीतर अपने आप कोसती रहती है। तालिया अपने आप को दोषी मानकर जीवन ख़त्म करने की कोशिश करती है। उसमें भी विफलता मिलती है। इसी विफलता के कारण पति का घर छोड़ अपने आप को कहीं गुम कर लेती है। तालिया का यह सारा व्यवहार उसके भीतर द्वेष को प्रकट करता है। तालिया अपनी बेबसी और उससे उत्पन्न झल्लाहट को अभिव्यक्त करती– “ज़िंदगी बहुत मुश्किल है, जाने कितने रोल यहाँ अदा करने पड़ते हैं। मोहब्बत करना ज़ुल्म नहीं, बेकार अपने को गुनेहगार मत समझो।"4 तालिया इस कैफ़ियत से बाहर निकल ही नहीं पाती। तालिया अपने को अब पवित्र नहीं मान रही है। मूल्यों में जितनी तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है,उससे उसके मापदंड ही बदल गए हैं।   

शमीम तालिया को उसकी समस्याओं से मुक्त कराने का प्रयास करता है। तालिया पति शमीम को अपने गुनाहों को नहीं बता सकती। आत्महत्या के विफल हो जाने के कारण अपना रोष प्रकट करते हुए कहती– “तालिया, तुम क्या समझती हो। तुम ख़ुश रहा करो। इस घर के सुख के लिए।"5 पति शमीम तालिया के दुख को देखकर दुखी होता है। अपने प्रेम को तालिया को लगातार समझना चाहता है। तालिया अपनी अपवित्रता को देख ग्लानि महसूस करती है।

मेहरुन्निसा परवेज ने अपने उपन्यासों में प्रेम का त्रिकोणीय रूप का दिखाया गया है। लेखिका ने अपने उपन्यास ‘उसका घर’ में मध्यमवर्गीय परिवार में उत्पन्न टूटन और द्वंद्व को चित्रित किया है। नायिका  अपने कर्तव्य और अधिकार की माँग करती है। संबंधों के सामाजिक रूप को न अपनाकर आधुनिक रूप की परिकल्पना की है। रिश्तों में टकराहट आने से उन्हें जीवन-भर लगने से अच्छा है, उन संबंधों से अलग हो जाए तो बेहतर होगा। नायिका एलमा अपने हिंदू प्रेमी से अलग हो अपना जीवनयापन करती है। एलमा बिना अदालत गए ही तलाक़ स्वीकार कर लेती है। एलमा का मानना है कि “यह तो दिल के संबंध होते हैं। पत्नी को भीख में माँगा हुआ अधिकार कभी सुख नहीं देता। जब उनके मन से ही उतर गई तो हठात वह अधिकार प्राप्त नहीं होगा। रही अदालत जाने की बात, तो पति-पत्नी में यदि दरार पड़ ही जाए तो दुनिया की कोई अदालत उसे नहीं जोड़ सकती।"6 संबंधों में आई दूरी से रिश्ते दोबारा नहीं बनते। परिवार एवं समाज जितना भी प्रयास कर ले। मूल्यों में निरंतर परिवर्तन से संबंधों में द्वंद्व और मनमुटाव उत्पन्न हो रहे हैं। 

एलमा नियति को मान सभी दुख झेलने के लिए मजबूर हो जाती है। परिवार के सुख के लिए वह अपनी बलि देने से भी नहीं घबराती। एलमा अपनी पीड़ा किसी से नहीं कहती। घुटती-तड़पती और अपने आप को कोसती रहती है। मन ही मन सोचती है– “वह तो अपने को कितना सताएगी? कितनी भुलाने की कोशिश करेगी। क्या यीशु को सलीब पर लटकाये जाने पर मदर मरियम इतना दुखी रही होगी।"7 एलमा अपने इष्ट को याद कर उनकी सहनशक्ति को देख, याद कर अपनी समस्याओं को तुच्छ समझती है। एलमा के पति के साथ-साथ उसका भाई भी उसे दर्द पहुँचाने से बाज़ नहीं आता। उसका शोषण कर वेदना और यंत्रणा देने से नहीं चूकता। जहाँ एक और एलमा की बेबसी और घुटन को दिखाया है वही रेशमा समस्याओं से लड़ समाज एवं परिवार का विरोध कर अपने प्रेम का रूप व्यक्त करती है। नायिका रेशमा अपने प्रेमी से अंतरर्जातीय विवाह कर अपनी माँ की हिंसा का शिकार बनती है। रेशमा के विवाह से दुखी माँ उसे कोसती और अपना रोष प्रकट करती है– “किसी भी ठोर चमार से बच्चा जन्माकर वह आ जाये तो क्या मैं उसे मान लूँ? कभी नहीं।"8 रेशमा अपने प्रेम की प्राप्ति के लिए सभी से लड़ जाती है। हर समस्या का सामना करते हुए आगे बढती जाती है। रेशमा किसी के आगे घुटने नहीं टेकती– "क्या ठोर चमार की बात करती हो तुम जैसी चुड़ैलनी माँ दुनिया में दूसरी नहीं होगी। क्या तुमने मुझे भी ठोर चमार से जन्मा था।"9 रेशमा अपने प्यार के लिए अपनी माँ का भी विरोध करने से नहीं हिचकिचाती। जातिगत भेदभाव के पक्ष में अपने विचार करती है। 

उपन्यास ‘कोरजा’ में आर्थिक समस्या से नैतिक मूल्य में आए बदलाव के कारण द्वंद्व को चित्रित किया है। नायिका की आत्मपीड़ा को दिखाया गया है। पति की मृत्यु के बाद स्त्री का जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं है। परिवार और समाज भी उसका साथ नहीं देता। समस्या आने पर सब किनारा कर जाते हैं। ऐसा ही हुआ साजो के साथ। पति की अकस्मात मृत्यु के बाद मकान मालिक घर ख़ाली करवाने के लिए उसके सामने एक शर्त रख देता है। साजो रोज़ रात जुम्मन के पास आएगी। साजो अपनी आर्थिक स्थिति के हाथों मजबूर हो उसकी शर्त को स्वीकार कर लेती है। साजो कहती है– “मकान की कीमत से बढ़कर होती है शायद औरत की इज्जत।"10 साजो इस पीड़ा को सहन कर जुम्म्न जैसा कहता है वैसा वह करती है। नायिका उसके अनुसार अपना जीवन चलाती है। साजो अपनी वेदना को अभिव्यक्त करते हुए कहती है– “अम्मा वह बूढ़ा मुझे नंगी करके सारी रात खड़ा रहता है, मेरे बदन को झिंझोड़ता है। मैं विरोध नहीं करूँ इसलिए खंभे से बाँध देता है, हँसते हुए मेरे शरीर पर हाथ फेरता नोचता रहता है, पूरे सौ पावर का बल्ब जलता रहता है और मैं नंगी खड़ी रहती हूँ वह हँसता हुआ शराब पीकर झूमता है।"11 साजो आर्थिक मजबूरी के तहत अपनी वेदना को प्रकट कर रही है। विरोध करना चाहती है पर अंतर्द्वंद्व में फँसी रहती है। साजो विरोध करना चाहती है पर समाज से लड़ने की ताक़त उसमें नहीं है। 

मेहरुन्निसा परवेज ने जहाँ एक तरफ़ नारी के नैतिक मूल्यों की चर्चा की है, वही पुरुष भी आर्थिक बोझ तले दबकर द्वंद्व की स्थिति में उलझा और तड़पता दिखाई देता है। ‘अकेला पलाश’ उपन्यास के पात्र तुषार पर अनेक ज़िम्मेदारियों में फँसा हुआ है। तुषार और जमशेद दोनों मित्र है। जमशेद की पत्नी तुषार के प्रेम में आकर्षित हो जाती है। तुषार से संबंध भी बना लेती है। तुषार तहमीना के प्रति प्रेम को प्रकट कर उसके साथ जीवन यापन करना चाहता है। तुषार अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों से विमुख भी नहीं होना चाहता। तहमीना को अपने फ़र्ज़ और अधिकार के प्रति सजग रहने के लिए कहता है। तुषार तहमीना को समझाते हुए कहता है– “देखो तहमीना, जिस दिन तुम्हारे नाम पर कोई धब्बा लगेगा, मैं उस दिन अपने आप आप पीछे हट जाऊँगा। मैं तुम्हें झूठे आश्वासन देना नहीं चाहता। तुम्हारा भी एक दायरा है। मेरा भी एक दायरा है, तुम अपना घर नहीं छोड़ सकती और नहीं छोड़ना चाहिए। मैं भी अपना घर नहीं छोड़ सकता; मेरी जिम्मेदारियाँ बहुत बड़ी-चढ़ी हैं। मेरी कई-कई बहनें बिन ब्याही बैठी है, भाइयों को पढ़ाना है, माँ हैं, पिता हैं, बहुत बड़ा परिवार है। तुम मुझे अनायास ही मिल गई हो। तहमीना मैं तुम्हें दिल से चाहता हूँ, मैं तुम्हारे साथ इतना पास रहना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें जीवन में कुछ नहीं मिला। मैं दे सकूँगा, यह भी नहीं कहता, मैं चाहता हूँ, तुम मेरे पास रहो, मैं तुम्हें,अपने आप को दुनिया को तुम्हारी निगाह से पढ़ूँगा। पर तहमीना तुम मेरे साथ मेरा विश्वास कर क्यूँ इतना आ गई हो, तुम मुझे भी धोखा दो या मेरी बात मानो।"12 तुषार तहमीना के साथ अपने संबंध भी रखना चाहता और परिवार पर कोई लाँछन भी नहीं लगाना चाहता। तहमीना तुषार के प्रति अपने भावात्मक प्रेम के प्रति समर्पित है। तुषार के लिए अपना घर छोड़ने के लिए भी तैयार हो जाती है। तहमीना और तुषार अपने प्रेम के प्रति भावों को स्पष्ट करते हुए कहते है– “न, ऐसा मत करना, तुम्हारा परिवार है, घर है, तुम्हारी अपनी प्रतिष्ठा है, तुम मेरे लिए मत तोड़ना!... मैं जानता हूँ मैं अपने को ठग रहा हूँ, तुम्हारा साथ पलभर का है, पर क्या करूँ मैं नदी के बहाव के ख़िलाफ़ तैरने की कोशिश में इतना थक गया हूँ कि अब जैसे हिम्मत ही जवाब देने लगी है,लेकिन मैं अपना अहं ओढ़े अभी भी बहाव के ख़िलाफ़ पड़ा हूँ। हाथ-पाँव मारना कुछ कम कर दिया... बस इंतज़ार है, बाक़ी मनोबल के टूटने का ताकि मैं भी एक आदमी बन कर सकूँ।"13 तहमीना अपने प्रेम को प्राप्त करने के लिए सारी मर्यादा ताक़ पर रख देती है। उसे तुषार के अलावा कुछ नहीं सूझता। तहमीना पति को छोड़ अपनी अलग घर-गृहस्थी बनाना चाहती है तुषार के साथ। पति जमशेद तहमीना के प्रति शारीरिक आवश्यकता का रोना तो रोता है पर भावनात्मक रूप से उसका आदर-सत्कार नहीं करता। तहमीना और जमशेद के रिश्ते में अजनबीपन आ गया है। जमशेद को तहमीना की ज़रूरत नहीं है। घर-गृहस्थी का बोझ तहमीना के सिर पर ही है। उसी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए समझौता कर रही है। तहमीना जमशेद के प्रति अपने बढ़ते असंतोष भाव को अभिव्यक्त करते हुए अपना द्वेष प्रकट करती है– “आज...। आज की रात भी वही हुआ था, जो पहले कई रातों हो चुका है। आज फिर जमशेद की बाँहों में उसने महसूस किया कि वह एक पुरुष के साथ नहीं नपुंसक पुरुष के साथ है। जमशेद उसके शरीर को जगाकर ख़ुद शांत हो जाता है और तहमीना अपने आप से लड़ती है, अपने कमरे में फिर लौट आती है।"14 तहमीना पति जमशेद से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कहती है जो जमशेद पूरा नहीं कर पाता। तहमीना स्वतंत्र रूप से अपने पति जमशेद से कहती है– “तो मेरे शरीर के साथ जो खिलवाड़ करते हो और इन इच्छाओं को जगा देते हो, इन इच्छाओं की माँग को पूरा नहीं कर सकते, तब तुम मेरे पास आते ही क्यों हो? इससे तो अच्छा है तुम मेरे पास आया ही मत करो, मैं तुम्हारी पत्नी ज़रूर हूँ और समाज ने मेरे शरीर के साथ हर खिलवाड़ करने का जो अथोर्टी तुम्हें दे रखी है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम रोज़ मुझे मारो, रोज़ मेरी मृत्यु हो, कितनी परेशान हो जाती हूँ। आज से तुम मेरे पास मत आया करो और हमारा पति-पत्नी का संबंध ख़त्म समझो। दुनिया के लिए हम पति-पत्नी ज़रूर रहेंगे, पर आपस में मेरे और तुम्हारे बीच दो हाथ का फ़ासला रहेगा। तुम समझते हो, तुम मुझ पर दया करते हो। नहीं मैं जीवन भर ऐसे रह लूँगी,पर तुम्हारा कभी-कभार भीख में दिया यह सुख तो मेरे लिए यातना बन जाता है।"15 प्राचीन जड़ होती हुई परंपराओं और मूल्यों में परिवर्तन हुआ। नारी का दृष्टिकोण बदला। सेक्स संबंधित बातों को लेकर स्त्री अपने द्वंद्वों से बाहर निकली। समाज और परिवार मैं प्रेम से उत्पन्न राग-द्वेष के द्वंद्व से मुक्त हुई। अपनी स्वतंत्र विचारधारा के अनुकूल अपना जीवन जीने की नयी परिभाषा रखी। 

उपन्यास ‘समरांगण’ लेखिका ने नारी के भीतरी द्वंद्व को चित्रित किया है। पात्र सुहासनी पति की बेवफ़ाई और विश्वासघात के बाद भी सारा जीवन पति की जी हज़ूरी में लगा देती है। न चाहते हुए उसके साथ अपना जीवन बसर करना पड़ता है। नायक गोपीलाल अपने व्यवसाय में उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है, तभी दिल्ली में दंगे हो जाते हैं। गोपीलाल बंगाली सिंह के साथ नमी तट पर चले आते है। गोपीलाल मित्र मिट्ठू सिंह और बंगाली के साथ रहते है। एक दिन गोपीलाल नृत्यंगना बुद्धा जान की ओर आकर्षित हो जाता है। बुद्धा जान बेहद ख़ूबसूरत थी। गोपीलाल उसे कोठे से बाहर निकालकर एक कोठी में ले जाता है। उस पर अपना सब कुछ लुटाकर जीवन बसर करता है। गोपीलाल की प्रेमिका के विषय में पत्नी कुछ नहीं जानती होती। अचानक मिट्ठू और उसकी सुहासनी को इस विषय में जानकारी दे देते हैं। सुहासनी अंदर ही अंदर घुटती जाती है। अपनी मित्र लता से अपने दोष का कारण जानने के लिए कहती है। लता सुहासनी को समझाते हुए कहती है– “दोष तो नारी का कभी नहीं होता, परंतु हमेशा यह दंड उसे दिया जाता है। यह पुरुष का अपना अहं है। पुरुष प्रधान समाज ने पुरुष को स्वामी बनने के अधिकार दे रखे हैं, और उन्हीं अधिकारों का ग़लत उपयोग है। तुम जैसी सुंदरी के साथ भी पति ऐसा धोखा दे सकता है तो बताओ स्त्री सुरक्षित है? यह पुरुष की दुष्टता है। चरित्रहीन व्यक्ति ही ऐसा करता है।"16 सुहासिनी पति के छलावे से जीने की चाह ख़त्म सी हो रही है। पति के हर दुख-सुख में साथ चलने वाली पत्नी को जब इस बात का एहसास होता है कि वह ठगी गई तो उसे बहुत पीड़ा होती है– “तुमने ब्याह के पहले कहा था हम एक होंगे, एक-दूसरे के पूरक होंगे, जीवन के दो पहिए होंगे, सिक्के के दो पहलू होंगे। क्या यह सारी बातें कोरी भावुकता में कही थी।"16 शादी के समय लिये गए वचन केवल झूठे थे। सारे रीति-रिवाज़ खोखले थे। जीवन के हर क्षण साथ रहने का वादा निरर्थक एवम अर्थहीन था। सुहासिनी बिखर-सी गई है। सारे के सारे शिष्टाचार समाज एवं परिवार औरत को ही क्यों सिखाए जाते हैं। नैतिक आधारों का खोखला पिटारा उनके सिर पर ही क्यों मार दिया जाता है। सुहासनी टूट सी गई है– “लगा, अब कैसा संसार? कैसा जीवन? सब अर्थहीन हो गए थे। पति और पत्नी के बीच पवित्रता नहीं सात्विकता नहीं तो जीवन का, बंधन का कोई मूल्य नहीं था। संसार में तो सभी लोग एक-दूसरे को छलते हैं परंतु इतनी बड़ी सामाजिक व्यवस्था के बीच किए गए बंधनों में यदि छल-कपट का गणित बीच में आ गया तो फिर इतना सब करने का सामाजिक बंधनों में भी यदि नक़लीपन आया तो मनुष्य और जानवर में क्या अंतर रह जाता है?”17 सुहासनी के मन में केवल अब अपने पुत्र के लिए ही प्रेम और स्नेह की भावना रह गई थी। पति के साथ तो केवल रहना ही है। बेटे के साथ वह अपनी पूरी ज़िंदगी जी लेगी। बेटा मोहन भी अपनी माँ के प्रति समर्पित है। सुहासनी की सेहत दिन पर दिन गिरती जा रही है। अंदर ही अंदर घुटने के कारण शरीर में अनेक प्रकार के रोग पाल लिए हैं। बिस्तर में दिन-रात पड़ी रहती है। सुहासनी के मन में एक चाह अब भी विद्यमान है। अपने बेटे की शादी की। मोहन की शादी पृथा से होने वाली है, तो वह तुरंत ठीक हो जाती है। सुहासनी घर के आयोजनों में अपनी बीमारी को भी भूल जाती है। सुहासिनी मन ही मन ख़ुश होती हुई कहती है– “एक औरत के प्राण उसके बच्चे होते हैं, उन्हीं में वह अपना खोया हुआ रूप दोबारा जीवित होते देखती है। ईश्वर का निर्माण सृष्टि है, मनुष्य उसी तरह माँ का निर्माण संतान होती है। वह उन्हें जन्मते, बढ़ते, पलते देखती है और सुख पाती है। औरत के अपने स्वयं के जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता, उसे तो लगता है वह अपने बच्चों से बँधी है उसके जीवन की डोर बच्चों के हाथ है, वही उसे चलाते हैं, रुलाते हैं, हँसाते हैं। बच्चों के दिए सुख और दुख, धूप और छाया में सरक गई। सारी उम्र वह इसी छाया में सरक-सरक कर ही बिता देती है। स्त्री माँ बनकर ही अपने जीवन के सारे आधार भूल जाती है।"18 स्त्री माँ बनकर जीवन के गहरे से गहरा आघात भूल जाती है। पति की बेवफ़ाई से टूट वह अपने बेटे के प्रेम में उसको भूल गई है। मोहन की शादी ने उसकी उमंगों को नई राहें दी। शादी हो जाने पर सुहासनी ज़्यादा दिन तक जीवित नहीं रह पाती। सुहासनी के जाने के बाद गोपीलाल को एहसास होता है कि उसने पत्नी को कितना दुख दिया। इसी पछतावे से पीड़ित गोपीलाल अपनी सारी संपत्ति दोनों पत्नियों के नाम कर दोबारा जहाँ से उठा था वहीं अपने आप को रख देता है। 

‘पासंग’ उपन्यास में स्त्रियों के प्रति अत्याचार, अन्याय एंव शोषण की व्यथा को अभिव्यक्त किया है। पात्र कनी के प्रति दादी का स्नेह बहुत था। कनी को हर दुख एवं पीड़ा से बचाकर रखना चाहती थी। कनी के पिता की मृत्यु के बाद माँ ने दूसरी शादी कर ली। कनी कि माँ उससे मिलने कभी-कभार आ जाया करती थी। ये देखकर दादी भिनभिनाती रहती। दादी को यह अच्छा नहीं लगता कि उस औरत से मिले। कनी चोरी चुपके अपनी माँ से मिलने के लिए नए-नए बहाने करती रहती। माँ अपने बच्चे के सब दुख-सुख सह लेती है। बच्चों पर कोई विपता नहीं आने देती चाहे कुछ भी हो जाए– “हर दुख कष्ट-दुख में भी नारी बच्चे के लिए सब सह लेती है, भीख माँगकर, शरीर बेचकर भी, हर मजबूरी में अपने बच्चों को पाल लेती है।"19 माँ और बच्चे के प्रेम की मार्मिक अभिवव्यक्ति की है। दादी कनी की सुरक्षा में कोई कमी नहीं छोड़ती। हर वक्त उसके लिए चिंता करती रहती है। कभी दादी की नसीहतें ध्यान में रखते उनके रास्ते पर चलकर ही अपना जीवन सुरक्षित मानती। दादी ने कनी कि शादी के रिश्ते ढूँढ़ना शुरू कर दिया था। एक रिश्ता उनकी आँखों को भा गया। दादी के द्वारा किए गए रिश्ते के लिए अपनी सहमति दे दी। दादी कनी को समझाती रहती- “थोड़ी सी उपेक्षा से तो बड़े-बड़े पेड़-पोधे तक सूखने लगते हैं और थोड़ी सी देखभाल से जी उठते हैं। ऐसे ही तो इंसान ज़रा से प्रेम पुचकार, अपनों के दुलार से सँवर जाता है।"20 किसी भी रिश्ते में प्रेम, स्नेह और सुरक्षा का भाव अहम होता है, तभी रिश्ता निखरता है। दादी की ज़िंदगी में केवल कनी ही जीने का सहारा थी। बेटे की मृत्यु ने दादी के जीने की चाह को ही ख़त्म कर दिया था। कनी की माँ से उसे ज़्यादा कुछ वास्ता नहीं था। बेटे के जाते ही नया जीवन बसा लिया। फ़िरोज़ के कारण दादी का मन अपनी बहु रानी से हट गया था। 

उपन्यास ‘पत्थर वाली गली’ में लेखिका ने नारी की व्यथा को व्यक्त किया है। पुरुष का भोगवादी रूप का अंकन किया है। पुरुष एक स्त्री के प्रति अपने भाव नहीं रखता। अवसर मिलते ही वह सारे दायरे को तोड़ अलग दुनिया बना लेता है। पात्र ज़ेबा और उसकी माँ के साथ भी ऐसा ही हुआ। बेटी ज़ेबा को दादा बार-बार पड़ोस की दुकान में भेजा करता था। दुकानदार की नज़र ज़ेबा पर थी। ज़ेबा पर चाहे अनचाहे रूप से अपनी भावना अश्लील हरकतें कर व्यक्त करता। ज़ेबा ये सब बातें दादा को बताती पर दादा नासमझी में ले जाता। ज़ेबा के पिता तस्करी के मामले में जेल खाने में बंद थे। ज़ेबा के घर उसके पिता के दोस्त का आना-जाना बहुत था। ज़ेबा की माँ से उसके संबंध शारीरिक कब बन गए किसी को पता ही नहीं चला। ज़ेबा के पिता कई महीने बाद जब जेल से आए, तब पता चला। ज़ेबा की माँ को घर से निकालकर कम आयु की लड़की से शादी कर ली। ज़ेबा घर में अकेली रह गयी। बूढ़ा दादा उसकी देखभाल करता लेकिन कब तक। एक दिन बूढ़ा दादा ने फिर से टाइम जानने के लिए घड़ी की दुकान में भेजा था। दुकानदार ने उसके साथ दुष्कर्म कर दिया। इस बात को जब ज़ेबा ने दादा को बताया तो वह भी स्वर्ग सिधार गए। ज़ेबा का जीवन बद से बदतर हो गया। लेखिका मेहरुन्निसा परवेज ने मुस्लिम समाज में जन्मी नारी की दयनीय स्थिति को उजागर किया है। दिन-प्रतिदिन मूल्यों में परिवर्तन आने से जीवन का अर्थ ही बदल गया है। नारी की व्यथा को अनेक दृष्टियों में दिखाने का प्रयास किया गया है। 

समग्रत; कहा जा सकता है कि मेहरुन्निसा परवेज ने अपने उपन्यासों में नैतिक मूल्यों में आए अभाव का चित्रण किया है। आधुनिक युग में प्रेम, पवित्रता और कर्तव्य-अधिकारों के मूल्य में जहाँ परिवर्तन हुआ वहीं लोगों में राग-द्वेष उत्पन्न हो गया है। उपन्यास ‘आँखों की दहलीज’ में स्त्री अपने दोषी मानने के कारण निराश एवं हताश हो जीवन को समाप्त करने में लगी हुई है। ‘कोरजा’ उपन्यास में जीवन अभिशाप बन जाता है। नैतिक आधरों का महत्त्व अर्थहीन लगने लगता है। जीवन के मायने ही बदल गए है। लेखिका वैवाहिक जीवन में आई रिश्तों की नीरसता दिखाया है वही पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति समर्पण भावना न रखते हुए किसी तीसरे के प्रति अपने भाव को अभिव्यक्त करते हुए दिखाई पड़ते हैं। जिससे जीवन कठिनाई भरा को जाता है। ‘अकेला पलाश’ और ‘उसका घर’ में इन्हीं मूल्यों में गिरावट को लेखिका ने दिखाने का प्रयास किया है। नारी के मन में जहाँ प्रेम, पवित्रता और करुणा आदि मूल्यों में बदलाव नहीं था वही अब क्रोध, अपवित्रता, आक्रोश एंव द्वंद्व ने ले लिया है। 

संदर्भ सूची:

  1. बलराज मानव-मूल्य और स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास, पृ.47 

  2. वही, पृ.47 

  3. मेहरून्निसा परवेज- आँखों की दहलीज, पृ.108 

  4. वही, पृ.99 

  5. वही, पृ.100 

  6. मेहरून्निसा परवेज-उसका घर, पृ.5 

  7. वही, पृ.81

  8. वही, पृ.81 

  9. मेहरून्निसा परवेज-कोरजा, पृ.72 

  10. वही, पृ.92 

  11. मेहरून्निसा परवेज- अकेला पलाश, पृ.165 

  12. वही, पृ.165 

  13. वही, पृ.81

  14. वही, पृ.63 

  15. मेहरून्निसा परवेज-समरांगण, पृ.146 

  16. वही, पृ.41 

  17. वही, पृ.146 

  18. वही, पृ.196 

  19. मेहरून्निसा परवेज-पासंग, पृ.127 

  20. वही, पृ.314 

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टिप्पणियाँ

संतोष श्रेयांस 2021/10/26 01:51 PM

मैं सृजनलोक नामक त्रैमासिक पत्रिका का संपादक हूं। मैं मेहरुन्निसा परवेज जी पर विशेषांक निकाल रहा हूं। जिसमे इज आलेख को शामिल करना चाहता हूं। कृपया जल्द ही अपने निर्णय से अवगत कराएं।

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