मेरा गाँव
काव्य साहित्य | कविता मुकेश कुमार ऋषि वर्मा1 Nov 2019
कभी बड़ा ख़ूबसूरत था मेरा गाँव
मिलती थी बरगद वाली ठण्डी छाँव
शहरों ने सीमा जब से तोड़ी
गाँव की पगडंडियाँ हुईं चौड़ी
लग गई हवा शहर की गाँव को,
तो हर चीज़ का होने लगा मोलभाव
हृदय बने मशीनी, दया रही न तनिक
ऑनलाइन रिश्तों में मिली न महक
हरे-भरे खेत सब हो गये बंजर
कैसा चला गाँव पर शहरी खंजर
सर्वत्र खड़ा कचरे का पहाड़ मिले
धरती के आँचल में विनाश पले
कभी बड़ा ख़ूबसूरत था मेरा गाँव
अब पहले जैसा नहीं रहा मेरा गाँव
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