मेरा कमरा
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. सुरंगमा यादव15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
"भगवन्! एक स्त्री जिसे आज ही मृत्युलोक से लाया गया है, उसे कमरा न. 25 में भेजा जा रहा है। वैसे तो वह कमरा मोतीराम के नाम बुक है लेकिन उन्हें आने में अभी चार दिन का समय शेष है। तब तक हम उस स्त्री को मोतीराम के कमरे में भेज देते हैं। बाद में उसे दूसरे कमरे में शिफ़्ट कर दिया जायेगा, परंतु एक समस्या है प्रभु।"
"क्या समस्या है?" चित्रगुप्त को चिंताकुल देख भगवान ने पूछा।
"प्रभु वह स्त्री कहती है कि मैं किसी दूसरे व्यक्ति के नाम बुक कमरे में नहीं जाऊँगी। मुझे मेरे नाम का कमरा दीजिए।"
"उसे हमारे सामने बुलाओ।"
"हे भगवन्! आप तो सब कुछ जानते हैं। मैं जब तक मृत्युलोक में थी जान ही नहीं पायी अपना घर कौन-सा होता है। शादी से पहले पिता के घर और उसके बाद पति के घर में रही। पिता कहते थे, पति का घर ही तुम्हारा घर है। पति अक़्सर कहते—तुम्हारे घर जैसा यहाँ नहीं चलेगा, यहाँ हमारे हिसाब से रहना होगा। प्रभु! मुझे यही समझ आया मेरा घर कौन-सा है? इसलिए मेरी विनती है कम से कम यहाँ तो मुझे ऐसा कमरा दीजिए, जिसे मैं अपना कह सकूँ।"
भगवान गंभीर मुद्रा में कहते हैं, "हम आपकी समस्या पर विचार करने के लिए अति शीघ्र एक मीटिंग बुलायेंगे। आप चिंता न करें इस मामले पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया जायेगा।"
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
दोहे
कविता
कविता-मुक्तक
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
शोध निबन्ध
कविता-माहिया
पुस्तक समीक्षा
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
Rajeev kumar 2021/06/17 04:25 PM
Laghukatha pasand aayee