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मेरे आदर्श मेरे पिता

शायद ही मैंने कभी कहीं लिखा हो कि मेरी जीवन यात्रा में मेरा आदर्श कौन है। यहाँ मैं ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व की बात करने जा रहा हूँ— मेरे परम पूज्य पिताजी श्री प्रहलाद सिंह चौहान।

प्रेम, सहिष्णुता, सहजता, सादगी, करुणा, दया, सेवाभाव और प्रसन्नता की प्रतिमूर्ति परम पूज्य पिता जी को मैंने बहुत क़रीब से देखा है। क़रीब से? जब हम किसी के क़रीब होते हैं तो हमें सही मायने में मालूम होता है कि अमुक व्यक्ति कैसा है— यानी कि उसका आचरण कैसा है, उसकी सोच कैसी है, उसकी बोली-बानी कैसी है आदि। जब हमें यह सब मालूम हो जाता है तब हम उस व्यक्ति के बारे में सटीक बात कह सकते है। इसीलिये मैं यहाँ पर साधिकार अपने परम पूज्य पिता जी के बारे में बात कर रहा हूँ। लम्बी भूमिका न बाँधकर यदि एक वाक्य में कहूँ तो मेरे पिता जी उत्तम चरित्र के श्रेष्ठ व्यक्ति हैं। शायद इसीलिये मुझे उनसे सदैव प्रेरणा मिलती है, बल मिलता है, और जब कभी मेरे क़दम लड़खड़ाते हैं तब मैं उन्हीं को याद करता हूँ, उनके कहे हुए शब्दों को याद करता हूँ या फिर उनसे निवेदन करता हूँ कि 'पिता जी, मेरा मार्गदर्शन करिये!' तब पिता जी बड़े संयम और विवेक से मेरे प्रश्नों का उत्तर देते हैं। मन को हल्का और परम संतुष्ट करने वाले उत्तर। यह सब मेरे साथ ही नहीं होता? उन तमाम लोगों को भी उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से निरन्तर प्रेरणा मिलती रही है जो उनके संपर्क में हैं, रहे हैं। अब तो हाल यह है कि गाँव-आनगाँव-शहर के तमाम लोगों को वह प्रतिदिन आदर्श जीवन मूल्यों की सीख देते हैं। वह गाँव में घर के बाहर चबूतरे पर, लगभग हर रोज़, प्रवचन करते हैं। लोग उन्हें बड़े धैर्य से सुनते हैं। यह बुद्धिजीवियों को साधारण-सी बात लग सकती है, है भी। परन्तु, मैंने कहीं पढ़ा है कि साधारण बातों में असाधारण कहानी छुपी होती है? श्रीमद्भागवत गीता भी कहती है— 'यद्यदाचरित श्रेष्ठस्ततदेवे तरो जन:' (3.21: अर्थात् चरित्रवान व श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, संसार के साधारण लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं)। श्रेष्ठ लोग जो आदर्श प्रस्तुत करते हैं, जो जीवन-सूत्र देते हैं, धीरे-धीरे लोग उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं— यह तो हम सभी जानते और मानते भी हैं। शायद इसीलिये गाँव-समाज-शहर के तमाम लोग पिता जी द्वारा बताये गए मार्ग का भले मन से अनुसरण कर रहे हैं। आज जब अनेकों प्रभावशाली, धनी-मनी और उच्च अधिकारियों के कथित श्रेष्ठ आचरण का देश-दुनिया में गुणगान हो रहा है, जो वास्तव में श्रेष्ठ हैं ही नहीं, तब क्यों न हो कि सच्चे और अच्छे लोगों की बात की जाय, भले ही वे हमारे अपने ही क्यों न हों?

तुलसी बाबा की चौपाई— 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' कई सवाल छोड़ जाती है। सवाल कि क्या उपदेश करना, प्रवचन करना ही पर्याप्त है? फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी लिया जाय तो पर्याप्त भी और अपर्याप्त भी। पर्याप्त तब जब 'नाना मामा से काना मामा अच्छा'; अपर्याप्त तब जब उपदेशकर्ता अमलकर्ता न हो; क्योंकि बाबा तुलसीदास ने सदैव आचरण पर ज़ोर दिया है— 'जे आचरहिं ते नर न घनेरे।' यह बात पिताजी के जीवन-व्यवहार पर भी लागू होती है। मैंने देखा कि पिता जी जैसा कहा करते हैं, वैसा ही आचरण करते रहे हैं। उनकी जीवन शैली, उनका जीवन दर्शन, अपने आप में अनूठा है। किन्तु समस्या यह है कि एक छोटे से आलेख में उनके बारे में सब कुछ लिखना आसान नहीं। इसलिए उनके जीवन की तमाम घटनाओं में से एक-दो घटनाओं का ही ज़िक्र करना चाहूँगा। यह घटना 1990 के आस-पास की है। पिता जी उन दिनों कृषि विभाग, इटावा (उ.प्र.) में कार्यरत थे और उन्हें विभाग द्वारा कई सौ बीघे का कृषि फार्म का इंचार्ज बनाया गया था। पिता जी और हम (मैं, मेरी प्यारी माँ श्रीमती उमा देवी और दोनों बहनें प्रियंका और दीपिका; छोटे भाई आकाश का तब तक जन्म नहीं हुआ था) शहर से 19-20 किलोमीटर दूर गाँव— चंदपुरा में रहते थे। उन दिनों गाँव से शहर आने-जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था नहीं थी। लोग अपने साधनों से ही शहर आया-जाया करते थे। पिता जी के पास एक राजदूत मोटरसाइकिल, जिसे उन्होंने 1986 में ख़रीदा था, और एक साइकिल थी। पिताजी का वेतन ज़्यादा नहीं था। इसलिए वह सप्ताह में (कई बार महीने में) एक-दो दिन बाइक से ड्यूटी करने जाते और शेष दिन साइकिल से ही जाना होता। 38-40 किमी प्रतिदिन साइकिल चलाना आसान नहीं था, वह भी तब जब व्यक्ति शरीर से बहुत दुबला-पतला हो। शरीर से कृशकाय पिताजी बड़ी प्रसन्नता से शहर आया-जाया करते थे, रास्ते में सुस्ताते, रुकते-रुकाते, किन्तु सदैव अपनी ड्यूटी के पाबंद।

उन्हीं दिनों पिताजी के गुरुभाई कृषि विभाग के डिप्टी डायरेक्टर (मण्डल स्तर के अधिकारी) ने उनसे सहृदयतावश कहा कि आप रोज़ बाइक से दफ़्तर क्यों नहीं आते? आपके लिए साइकिल चलाना आसान नहीं है। फेफड़े जवाब दे जायेंगे। पिताजी ने उन्हें बताया कि घर-परिवार चलाने और भविष्य के लिए थोड़ा सेविंग करने के बाद इतना नहीं बचता कि बाइक से रोज़ दफ़्तर आया जा सके। यह सुनकर अधिकारी महोदय कहने लगे कि जब विभाग के तमाम लोग चोरी-छिपे ऊपरी कमाई कर रहे हैं, तब आप गाड़ी के पैट्रोल-भर का पैसा कृषि फ़ार्म से क्यों नहीं निकाल लेते? पिताजी ने बड़ी सहजता से उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि उन्हें अधर्म/पाप की कमाई नहीं चाहिए। वह जैसे भी हैं ख़ुश हैं। शायद अधिकारी महोदय ने मेरे पिताजी का मन टोहने के लिए यह बात कही थी, क्योंकि वह तो पिता जी की तरह ही स्वयं बहुत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ थे। यह केवल एक घटना नहीं है, ऐसी तमाम घटनाएँ पिता जी के जीवन में घटीं, किन्तु उनका स्टैंड यही रहा।

कृषि विभाग में उनका जैसे-जैसे प्रमोशन होता गया, उनकी ज़िम्मेदारियाँ बढ़तीं गयीं। पिताजी जनपद में उत्तर प्रदेश सरकार की बेहड़ सुधार, ग्राम्य विकास, ऊसर सुधार परियोजनाओं सहित कई बड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन से जुड़े रहे, किन्तु कभी भी वह कर्तव्य के मार्ग से विचलित नहीं हुए, अनीति से पैसा नहीं कमाया, किसी अन्य प्रकार का लाभ नहीं लिया। पिता जी का नियम रहा कि वह किसी से सेवा नहीं लेंगे, जन-मानस की सेवा करेंगे; किसी का अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे, बल्कि यथाशक्ति दीन-दुखियों, पशु-पक्षियों को अन्नदान करेंगे। इसीलिये उन्होंने ताउम्र अपने विभाग के किसी चपरासी, कनिष्ठ या वरिष्ठ से कभी व्यक्तिगत सेवा, लाभ नहीं लिया और न ही कभी सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया। मैंने उनसे एक बार पूछा था कि आपने रिश्वत न लेने और विभाग में किसी से सेवा न लेने का संकल्प कैसे लिया? उन्होंने बताया कि जब वह जनता डिग्री कॉलेज, बकेवर, इटावा में पढ़ते थे तब उनके विद्यागुरू गाँधीवादी नेता एवं समाजसेवी (स्व) डॉ. ब्रजराज सिंह तोमर ने उनसे कहा था कि नौकरी लगने के बाद कभी रिश्वत नहीं लेना और न ही कभी अपने ऑफ़िस में किसी से सेवा लेना। अतः नौकरी लगने के बाद प्रथम दिन से ही पिताजी ने अपने गुरूजी के आदेश का प्रसन्नतापूर्वक पालन किया और आज भी कर रहे हैं। स्पष्ट है कि यदि उन्हें अपने विभाग में कोई काम करना होता, तो वह स्वयं किया करते थे। कुछ खाना-पीना होता तो अपना पैसे से ही ख़रीदकर खाते-पीते थे, जबकि सप्ताह में कई बार विभाग की तरफ़ से कर्मचारियों एवं अधिकारियों के लिए जलपान की व्यवस्था रहती थी, किन्तु वह यह कहकर खाने-पीने से मना कर देते थे कि यह उनके वेतन का 'पार्ट' नहीं है और जब कभी उन्हें फ़ील्ड में जाना होता तो वहाँ भी वह किसी का अन्न-जल ग्रहण नहीं किया करते थे। उनके आदर्श जीवन से विभाग और अन्य विभागों के कई लोग प्रभावित हुए। शायद इसीलिये वह अपने करियर के शुरुवाती दिनों में (इसके बाद इस तरह की गतिविधियों से उन्होंने अपने आपको अलग कर लिया) विभागीय चुनाव में निर्विरोध 12 वर्षों तक ज़िला उपाध्यक्ष रहे। विभाग के लोग उन्हें बहुत स्नेह और सम्मान देते थे। विभाग ही क्यों, पूरे जनपद में उन्हें भरपूर सम्मान एवं स्नेह मिलता रहा और आज भी रिटायरमेंट के बाद उनके चाहने वालों की संख्या कम नहीं हुई।

पिताजी जो प्रण कर लेते हैं उससे कभी डिगते नहीं, जो सोच लेते हैं वह करके रहते हैं और जो कह दिया उसे कभी भी किसी भी परिस्थिति में बदलते नहीं। उनका जीवन में एक ही उद्देश्य रहा— ‘आत्ममोक्षार्थम् जगत् हिताय च’  शायद इसीलिये वह आजीवन सत्य के मार्ग पर चलते रहे— 'धर्म न दूसर सत्य समाना' और परोपकार की भावना— 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई' से कार्य करते रहे। यह कोई साधारण बात तो नहीं?

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