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मेरे देवता . . .

खिड़की से झॉंकते हुए अर्चना  ख़ुशी से चिल्लाई, “भाभी-भाभी भैया आ रहे हैं” थके-मांदे, ख़ुशी और उदासी से भरे चेहरे पर मुस्कान लाते हुए घर में प्रविष्ट हुए। अर्चना की भाभी सुशीला दौड़ी-दौड़ी आई और अपने पति विनय से बोली, “मेरा दिल कह रहा था कि मेरी प्यारी ननद लड़के वालों को ज़रूर पंसद आएगी ही। क्‍यों जी बोलो न सबने पसंद किया ने हमारी अर्चू को? 

भैया बोले, “मेरी बहना लड़के तथा उसके घरवालों को पसंद तो आई लेकिन . . ."

लेकिन दरवाज़े की ओट में छुपी अर्चना तेज़ी से अपने भैया के पास आई और बोली, “लेकिन क्‍या भैया? वे लोग भारी दहेज़ की माँग कर रहे हैं?"

भैया बोले, “रमेश के पिताजी ने 2 लाख रुपये नकद और शादी का पूरा ख़र्चा हमें ही करने को कहा है। लेकिन कि ऐसा कहने पर कि अर्चना मुझे पसंद है, तथा हमारी आर्थिक स्थिति का एहसास दिलाने पर उन्होंने मुझसे कहा– ठीक है। मैं 25 हज़ार रुपए कम रहा हूँ। अब आप पन्द्रह दिन के अंदर बाक़ी का रुपया नकद लाकर दीजिए और सगाई की तारीख़ पक्की कर दीजिए।"

अर्चना ने ग़ुस्से से कहा, “नहीं भैया मुझे ये बिकाऊ दूल्हा नहीं चाहिए। मुझे ऐसी जगह शादी नहीं करनी है।“ 

तभी भाभी बोली, “नहीं मेरी ननद जी, लड़का अच्छा है, बैंक में मैनेजर है, ख़ुद का मकान है, फिर तुमको लड़के वालों ने पसंद भी किया है। “ फिर विनय से बोली, "हमें कर्ज़ ही क्‍यों न लेना पड़े लेकिन ये रिश्‍ता हाथ से न जाने पाए।“  

बीच में विनय ने कहा, “वैसे तो मैंने रमेश को इस रविवार को घर आने का कहा है, शायद कुछ बात बन जाए।“

शनिवार को विनय और सुशीला अपने दोनों बच्‍चों के साथ पास के शिव मंदिर गये हुए थे। अर्चना घर में अकेली ही थी। किताबों की अलमारी से उसने एक उपन्‍यास उठाया। उपन्‍यास का शीर्षक था ‘मेरे देवता’! अनायास ही अर्चना की आँखों में रमेश की छवि उभर आई। उसकी अंतरात्‍मा से आवाज़ निकली, "काश! रमेश तुम सचमुच देवता बनते।“ 

वह इसी सोच में डूबी हुई थी कि इतने में दरवाज़े पर दस्‍तक सुनाई दी। अर्चना ने झट से दरवाज़ा खोला। सामने पसीने से तथपथ रमेश खड़ा था। अर्चना कुछ हड़बड़ाई, लज्‍जाई, सकुचाई  और हिम्‍मत कर बोली, “आप तो कल आने वाले थे। आज तो घर में कोई भी नहीं है।“

रमेश ने मुस्‍कुराते हुए कहा, “तुम तो हो मुझे भैया से नहीं तुमसे ही मिलना था! बैठने को भी नहीं कहोगी?" कहते-कहते रमेश ख़ुद ही कुर्सी पर बैठ गया। 

अर्चना ने आवेश में आकर कहा तो, “आप ये जताने आए हैं कि आपके पिताजी ने आपकी बोली 2 लाख लगाई थी लेकिन मेरे भैया कि ग़रीबी, घर की स्थिति ने आपके पिताजी को 25 हजार रुपए कम कराने पर राज़ी कर लिया है। आपके इस उपकार का मेरे पास पुरस्‍कार नहीं है।" अर्चना इसी आवेश में बोली और “सुनो मैं अपने विवाह के लिए अपने भैया और भाभी का सब कुछ गिरवी नहीं रखवा सकती। पंद्रह दिन के अंदर आपके पिताजी ने एक लाख हज़ार रुपए माँगे हैं ना? मेरे भैया एक वर्ष में भी इतने रुपये जमा नहीं कर पाएगें! तुम जैसे दहेज़ के लोभी का मैं अपने परिवार को शिकार नहीं होने दूँगी।“

रमेश चुपचाप खड़ा एकाएक अर्चना को निहार रहा था। अर्चना के गुलाबी गालों पर बिखरी हुई लाली और उसके चेहरे पर निखरा नूर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सूरज अभी निकला हो। उसकी मयूरी आँखों के शोलों में दिल में दबी हुई प्‍यार की चिंगारी का आभास उसे मानो जैसे प्रतीत हो रहा था। अर्चना के लंबे घने बाल और पलकें उठाकर आँखें झुकाकर बोलने का ढंग रमेश को बहुत ही कचोट  रहा था।

गुमसुम रमेश से अर्चना ने पूछा,  “तुम्‍हारी बोलती क्‍यों बंद है? ये शादी हरगिज़ नहीं हो सकती, जाओ अपने पिताजी जी से कहो, किसी बड़े बाज़ार में जाकर बोली लगाएँ। आपको वहाँ लाखों रुपए देने वाले शायद मिल जाएँगें।“

लेकिन बीच में ही रमेश मुस्‍कुराकर बोला, “लाखों में जो एक वो मुझे कहाँ मिलेगी?" और मेज़ पर पड़ी किताब उठाते हुए रमेश ने कहा, "मैं इसे ले जा रहा हूँ किसी के हाथ से लौटा दूँगा, अरे वाह! शीर्षक तो अच्‍छा है ‘मेरे देवता’!” 

अर्चना ने झपटकर रमेश के हाथ से किताब छीनते हुए कहा, "आप जैसे नराधम राक्षस क्‍या जाने देवता क्‍या होता है?"

रमेश बोला, “देवी जी हमें भी तो समझने दो, देवता कैसे होते हैं?"

और किताब लेकर रमेश तत्‍काल चल पड़ा। जाते-जाते खिड़की से झाँककर रमेश ने कहा, "मैने ज़िंदगी में जो मन से चाहा, उसे हासिल किया है और मैं तुम्‍हें चाहता हूँ ‘अच्‍चू‘।" और अर्चना आँखों में आँसुओं की लड़ी समेटे खड़ी की खड़ी रह गयी।

चिंतित मुद्रा में मानसिक तनाव की पेरशानी में भैया अर्चना की भाभी से कह रहे थे, “कल का आख़िरी दिन है, रमेश के पिताजी को एक लाख अससी हज़ार पहुँचाने हैं और बड़ी मुश्किल से मैं केवल एक लाख ही जुटा पाया हूँ।" और अनायास ही भैया की आँखों से अश्रु बह रहे थे। भैया की आँखों में आँसू देख अर्चना का दिल दहल उठा। वह भी रोते रोते बोली, “भैया दहेज़ न लेने वाले किसी दिव्‍यांग से शादी करके मैं ख़ुश रह सकती हूँ, लेकिन आपकी आँखों में आँसू कभी नहीं देख सकती।“

अर्चना को सांत्‍वना देते हुए भैया बड़ी विनम्र भाव से बोले, “नहीं बहना, ऐसा नहीं बोलते। कल दफ़्तर के बाद मैं रमेश के पिताजी से मिलने जाऊँगा। उनसे मिन्न्तें करके कुछ और समय माँग लूँगा। मुझे भगवान पर भरोसा है, सब ठीक-ठाक होगा, तू चिंता मत कर।“

दूसरे दिन रात क़रीब दस बजे भैया घर लौटे। प्रसन्‍नता से उनका चेहरा दमक रहा था। ख़ुशी के बारे उनका अंग-अंग मुस्‍कुरा रहा था। अर्चना को देखते ही नाचते झूमते हुए बोले, “मेरी बहना तुम सचमुच भाग्‍यशाली हो। अगले इतवार को तेरी सगाई पक्‍की करके आया हूँ।“ 

अर्चना बौखलाते हुए बोली, "तो आख़िर आपने सब कुछ गिरवी रखकर दुनिया भर का कर्ज़ लेकर उन लोगों को माँगी रक़म दे ही दी। मैं यह शादी नहीं होने दूँ भैया।"

"नहीं!अर्चना मैंने एक रुपया भी नहीं दिया," भैया ने मुस्‍कुराते हुए कहा। 

"तो उन्होंने  दहेज़ नहीं लिया!" अर्चना और सुशीला  एक साथ ख़ुशी से बोल उठे । 

भैया बोले, "लड़के के पिता ने एक लाख अस्‍सी हज़ार रुपये गिनकर लिए।"

सुशीला ने उत्‍सुकता से बोली, “आपकी तबीयत तो ठीक है न, आपने रुपये दिए नहीं, उन्होंने रुपये गिनकर लिए। ये सब क्‍या है?"

भैया बोले, "मैं तो पन्‍द्रह दिनों से इस उधेड़बुन में उलझा हुआ था। एक करिश्‍मा हुआ, और उसने ये रिश्‍ता पक्‍का कर दिया। करिश्‍मा ऐसे हुआ कि जैसे ही मैं दफ़्तर से रमेश के पिताजी से मिलने और मनाने जाने के लिए निकला, उतने में ही रमेश ख़ुद मेरे दफ़्तर में आया और मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला देखिए –’भाई साहब पिताजी ने बड़े प्‍यार से मुझे पाला है। मैं उन्हें नाराज़ नहीं कर सकता। इधर अर्चना को भी मैं  खोना नहीं चाहता।" मैने  पूछा- ’रमेश ये सब कैसे हो सकता?’  रमेश ने कहा, ’हो गया, मैं अपने जी पी एफ फंड से 1 लाख 80 हज़ार रुपए निकाल कर लाया हूँ। आप ये रुपए पिताजी को दे दीजिए और सगाई की तारीख पक्‍की कर लीजिए।’ मैं तो क्षण भर के लिए सुन्‍न हो गया था। मुझे लगा जैसे मुझे साँप सूँघ गया हो। मैं एकटक उसे देखता ही रहा।" 

विनय गदगद होकर बोल रहे थे, "अर्चना दहेज़ लेने वाले लाखों पति हैं लेकिन दहेज़ देने वाला पति लाखों में एक भी नहीं मिल सकता। देवता जैसा पति तुझे मिला है। अरे पगली तेरा दहेज़ तेरे पति ने दिया है, और हाँ, तुम्‍हारी यह किताब रमेश ने लौटाई है।“

अर्चना ने किताब हाथ में ली। वही किताब थी ‘मेरे देवता’ उस पर रमेश ने एक पंक्ति लिख दी थी, "याद है तुमने कहा था, ’मुझ जैसा, नराधम राक्षस रूप क्या जाने देवता क्‍या होता है’?"

इतना पढ़ते ही अर्चना बिलख-बिलख कर रो पड़ी। उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ा, “मुझे माफ़ कर दो – ‘मेरे रमेश’ तुम्‍हारे जैसा देवता कोई दूजा नहीं हो सकता।“  

पूजाघर में भाभी के द्वारा जलाई गई अगरबत्तियों की भीनी-भीनी सुगंध से पूरा घर पुलकित प्रफुल्लित हो उठा था। 

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टिप्पणियाँ

प्रतिभा 2022/02/05 06:00 PM

कृपया कोई वासुदेवन शेष जी का फ़ोन नंबर साझा कर सकते है।

डा.सुनीता जाजोदिया 2021/05/01 11:20 PM

दहेज समस्या का समाधान प्रस्तुत करने वाली अच्छी कहानी के लिए बधाई!

Padmavathi 2021/05/01 05:38 AM

काश इस देश में हर एक अर्चना देवता को स्वीकार हो जाती । बहुत मार्मिक चित्रण । बधाई आपको

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