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मेरे प्रिय गीतकार— किशन सरोज 

 

स्वतंत्रोत्तर हिंदी गीत के इतिहास में आ. बलवीर सिंह रंग जी, आ. गोपाल सिंह नेपाली जी, आ. गोपालदास नीरज जी,  आ. रमानाथ अवस्थी जी एवं आ. भारत भूषण जी की समृद्ध विरासत को संरक्षित, सम्मानित एवं प्रसारित करने वाले सुविख्यात कवि श्रद्धेय किशन सरोज जी का जन्म 19  जनवरी, 1939 को बरेली जनपद के क़स्बा बल्लिया में हुआ। सामान्य परिवार में जन्मे सरोज जी ने फ़र्स्ट डिवीज़न में मिडिल, सेकंड डिवीज़न में हाईस्कूल, थर्ड डिवीज़न में इंटर पास कर सप्लीमेंट्री के साथ आगरा विश्वविद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में पढ़ाई में मन न लगने से एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इसी दौरान समय के प्रवाह में वह एक दिन गुलाबराय इंटर कॉलेज, बरेली में कवि सम्मेलन सुनने जा पहुँचे, जहाँ पर आ. प्रेम बहादुर प्रेमी जी एवं आ. सतीश संतोषी जी के गीतों ने उन्हें मन्त्र-मुग्ध कर दिया। इस कविसम्मेलन का प्रभाव उन पर बहुत गहरा पड़ा। कविता का ख़ुमार चढ़ने लगा। उस समय अपने अजनबीपन और आवारगी से मुक्ति के लिए उनके मन में काव्य-पथ पर चलने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। बस ज़रूरत थी तो एक सदगुरु की— 

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।"
                                                   (कबीरदास)

उन्होंने अपने समय के चर्चित कवि आ. प्रेम बहादुर प्रेमी जी को अपना काव्य-गुरु मान लिया और लगभग बीस वर्ष की आयु में ही काव्य साधना करने लगे। इसी दौरान आपकी भेंट आ. गोपालदास नीरज जी, आ. रमानाथ अवस्थी एवं आ. भारत भूषण जी से हुई, जिन्होंने आपको कवि-सम्मेलनों में आमंत्रित कर आपका भरपूर उत्साहवर्धन किया। आपकी चर्चा कवि-बिरादरी में बड़े सम्मान से होने लगी, लेकिन अब भी आपको किसी बड़े अवसर की प्रतीक्षा थी। संयोग से या सौभाग्य से या माँ सरस्वती की कृपा से इस लाल को लाल किले से आमंत्रण मिल गया। आ. गोपालप्रसाद व्यास जी के माध्यम से। सन्‌ 1963 के इस लाल किले के राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में आपने अपना बहुचर्चित गीत 'चंदन वन डूब गया' का सुमधुर पाठ किया— 

छोटी से बड़ी हुई तरूओं की छायाएँ
धुँधलाईँ सूरज के माथे की रेखाएँ
मत बाँधो आँचल में फूल, चलो लौट चलेँ,
वह देखो! कुहरे में चन्दन-वन डूब गया।

इस गीत को इतनी अधिक लोकप्रियता मिली कि इसे आकाशवाणी के 'लीजिए फिर सुनिए' कार्यक्रम में लगातार दो वर्षों तक प्रति गुरुवार को प्रसारित किया गया। उस समय इस युवा कवि के लिए यह कोई सामान्य उपलब्धि तो नहीं थी! धीरे-धीरे प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति के अद्भुत शब्द-शिल्पी आ. किशन सरोज जी ने हिंदी गीत साहित्य के आलोचकों, रचनाकारों, पाठकों के मन-मस्तिष्क में अपनी विशिष्ट जगह बना ली। लगभग ढाई दशक के बड़े अंतराल के बाद 1986 में आपका प्रथम गीत संग्रह— 'चंदन वन डूब गया' प्रकाशित हुआ। समय यूँ ही बीतता रहा और 2006 में आपकी दूसरी पुस्तक— 'बना न चित्र हवाओं का' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित हुई। इन लोकप्रिय संग्रहों में आपने राग, रंग, रूप, गंध की चित्रात्मक एवं जीवंत शैली के माध्यम से उदात्त प्रेम और मानवीय सरोकारों को बखूबी गीतायित किया। 'चंदन वन डूब गया', 'ईश्वर जाने', 'नावें थक गयीं', 'याद आये', 'नींद सुख की', 'याद कर लेना मुझे', 'अनसुने अध्यक्ष हम', 'ताल-सा हिलता रहा मन', 'गुलाब हमारे पास नहीं, 'एक बरन हो जायें', 'कसमसाई देह', 'तुम निश्चिंत रहना', 'नदिया के किनारे', 'इस गीत कवि को क्या हुआ', 'हार गये वन', 'बड़ा आश्चर्य है', 'आज भी', 'मेरे मन', 'और कब तक' आदि चार सौ से अधिक गीतों का सृजन कर साहित्य भूषण सम्मान (2004) से अलंकृत सरोज जी काव्य-मंचों पर ही नहीं, बल्कि साहित्य की मुख्य धारा में भी लाड़ले कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। 

लोकजीवन एवं लोक-संस्कृति को केंद्र में रख रागात्मक जीवनानुभवों को व्यंजित करने वाले इस रस-सिद्ध कवि की सदैव यही धारणा रही— "रागात्मक अनुभूतियों वाली इन गीत-कविताओं की सर्जना मेरी विवशता है, मेरी नियति है"; तथापि, इसे उनकी विवशता और नियति मान लेना ठीक नहीं लगता। यह सब तो उनकी सद-प्रेरणा, सद-इच्छा, सद-भाव एवं सद-अभिव्यक्ति का प्रतिफल मानना ज्यादा समीचीन लगता है। जो भी हो, अपने मधुर कंठ से लाखों भावकों को आकर्षित एवं आह्लादित करने वाले सरोज जी उत्तम प्रकृति के अनुकरणीय व्यक्तित्व थे। बहुत कुछ ऐसा ही संपादक-समीक्षक  डॉ. प्रदीप जैन आ. किशन सरोज जी की रचनाओं पर केंद्रित पुस्तक— ‘मैं गीत गाता रहूँगा’ (अनुभव प्रकाशन, 2018) में कहते प्रतीत होते हैं। आ. किशन सरोज जी पर केंद्रित 'निर्झरिणी' पत्रिका के अंक-11 (मार्च 2011) में आ. रमेश गौतम जी ने आ. किशन सरोज जी को 'गीत के तेजोमय नक्षत्र' कहकर अपनी बात रखी; जबकि उससे भी कई वर्ष पहले कीर्तिशेष कवि-संपादक दिनेश सिंह जी के साथ जब मैं 'कैलाश गौतम स्मृति अंक' (नये-पुराने, रायबरेली, 2007) के संपादन का कार्य कर रहा था, तब दिनेश जी उन्हें 'बड़का कवि' कहकर सम्बोधित किया करते थे। और भी बहुत लोग ऐसा ही कहते रहे, कह रहे हैं और कहते रहेंगे। "मैं समय हूँ" और वह कहाँ रुकता है, बस हमें ही ठहरना होता है—  

मोह में जिसका धरा तन
हो सका अपना न वह जल
देह-मन गीले किये, पर
पास रुक पाया न दो पल

घूमते इस घाट से उस घाट
नावें थक गयीं। 

आख़िरकार यह नाव भी थक गयी। लगभग छह माह से बीमार चल रहे सरोज जी ने आजादपुरम-बरेली स्थित अपने आवास पर बुधवार दोपहर (8 जनवरी, 2020) अंतिम साँस ली और हम सब गीत-प्रेमियों को सदा के लिए अलविदा कह कर चले गये। उन्हीं की इन पंक्तियों से अपने इस प्रिय गीतकार को विनम्र श्रद्धांजलि— 

तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ
 रेल छूटी रह गया केवल धुँआ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
 हाथ के रूमाल-सा हिलता रहा मन।  

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