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मेरे ठाकुर जी

यूँ तो कस्तूरी अपने जद्दी घर अलीपुर में सुख-शान्ति से रह रही थी, किन्तु पिता के जाने के बाद अशोक को माँ की चिंता हर समय सताती रहती। चाहे वह हर इतवार बेटे अंकुर को ले मंडी बंद होने पर, उनसे मिलने जाता और हर बार माँ को अपने साथ चलने की कहता भी, पर पहले रस्में निभाने के नाम पर और अब कोई भी बहाना बना माँ टाल देती: "बेटा, मैं यहाँ ठीक हूँ, तुम लोग परेशान न हो, रामु है न। क्यों परेशान होते हो।"

"पर, माँ! हमें चिन्ता रहती है तुम्हारी। मोहिनी हर बार तुम्हें साथ लाने को कह चुकी है।"

"चिंता न करो मैं ठीक हूँ। तुम दूर थोड़े हो, कोई तकलीफ़ हुई तो मैं ख़ुद चली आऊँगी," अक़्सर यही जवाब मिलता।

इस बार सभी मिल कर आए तो मोहिनी को माँ पहले से कमज़ोर लगी। उसने अशोक को कहा, "आप समझते क्यों नहीं? गाँव में भरी बिरादरी में मेरी क्या थू-थू हो रही होगी कि बहु सास को रखना नहीं चाहती। उन्हें वहाँ कुछ हो गया तो मैं क्या मुँह दिखाऊँगी?" 

बात मोहिनी की सही थी। अशोक ने अपनी बहन शकुन को कह माँ को शहर लाने पर राज़ी कर ही लिया। 

माँ घर के पिछवाड़े बग़ीचे के आम से टोकरी-भर आम लाई। उसने मोहिनी से कहा, "बहु पहले आम ठाकुर जी के भोग के लिए रख दो और फिर अंकुर को मीठे आम जी-भर खिलाओ।" 

मोहिनी ने अच्छे से दो आम लेकर मंदिर की अलमारी में रख दिए। माँ ने आते ही अपने ठाकुर लड्डू गोपाल को उसी मंदिर में सजा दिया था। खाने से पहले उन्हें घी-शक्कर की रोटी के साथ आमों का भी भोग लगाया गया।

दादी के आते ही अंकुर के तो पौ-बारह हो गए। दिन भर दादी के साथ मज़े से खाने-खेलने में मम्मी-पापा को जैसे भूल ही गया। सुबह की पूजा से लेकर ठाकुर जी को सुलाने तक वह दादी के साथ बड़े कौतुहल से लगा रहता फिर सोते समय कभी कहानी तो कभी लोरी का भजन सुन, दादी के पास ही सो जाता। वह भी सुबह आराम से जागती, अंकुर जो उनके साथ ही उठ जाता। पोते की अठखेलियों से कस्तूरी के चहरे की रौनक़ बढ़ने लगी।

लेकिन अभी चौथा ही दिन था उसे यहाँ आए कि अशोक ने देखा माँ सुबह-सुबह बहुत परेशान है। कभी मंदिर की अलमारी में ऊपर-नीचे कुछ ढूँढ़ रही है तो कभी अपने कमरे में पड़े अंकुर के खिलौनों को टटोल रही है। उसके रोज़मर्रा के ज़ुबानी पाठ की आवाज़ भी अचानक ग़ायब थी। मोहिनी को रसोई में चाय बनाने में व्यस्त देख, बिस्तर छोड़ माँ के पास आकर उसने पूछा, "क्या हुआ माँ? परेशान लग रही हो।"

"हैं, कुछ नहीं," कह कर बिस्तर उलटने-पलटने लगी। 

"क्या खो गया अम्मा!" परेशान हो बोला अशोक। उसकी आवाज़ सुन मोहिनी भी आ गई। 

"हैं.. ठाकुर जी... "

"मंदिर में देखो न, वहीं तो सुलाती हो!" अशोक का ध्यान गया अंकुर वहाँ नहीं है वह समझ गया कि वही अम्मा के ठाकुर जी को ले गया होगा सुन्दर खिलौना समझकर, तो आवाज़ लगाई, "अंकुर, बेटे कहाँ हो?"

"पापा मैं यहाँ हूँ।"

"यहाँ, कहाँ ?"

"टॉयलेट में।"

"जल्दी बाहर आओ, तुम से कुछ पूछना है।"

"पर जल्दी कैसे आऊँ, अभी ठाकुर जी ने पाटी नहीं की।"

 "ये लो ..." कह कर अशोक की त्यौरी चढ़ गई, मोहिनी ने हँसी रोकने को मुँह पर हाथ रखा। 

"कोई बात नहीं बेटा!" कस्तूरी ने हौले से कहा, "बच्चा है!" पर अशोक फिर भी भुनभुनाता-सा अपने कमरे में चल दिया और वह अंकुर की तरफ़।

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