मेरी चाह
काव्य साहित्य | कविता आभा नेगी1 Oct 2019
कभी चाह उठती मन में मेरे
कोई सरिता बन बहने को।
कल-कल की ध्वनि को
अधरों पर सजाने को।
प्यास बुझाने कण-कण की
प्रदत्त करूँ सौंदर्य प्रकृति को,
फैल जाऊँ सकल जग में
प्यासी धरा के संग में।
कहीं पहाड़ों, कहीं मैदानों में
निर्जन वीरानों, जलते शमशानों में
नहीं अछूता रहे कोना कोई
जहाँ पानी न मिले प्यासे को।
धरा पूर्णतः भीग जाए
माटी उसकी सींच जाए
खेत खलिहान हरित हो उठे
मेरी चाह को राह मिले।
जहाँ पग अपना मैं धरूँ
हरित क्रांति की लहर उठे
हरा-हरा धरती का हर छोर बने
हरे रंग की हरियाली से सज उठे॥
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Shikha 2019/10/05 05:50 PM
Nice