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मेरी जनहित याचिका की पड़ताल


समीक्ष्य पुस्तक : मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां
लेखक : प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक : अनुभूति प्रकाशन.
पृष्ठ :464
प्रथम संस्करण :2018 
पेपर बैक
मूल्य 350 

प्रदीप श्रीवास्तव के कहानी संग्रह "मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां" में कुल दस कहानियाँ हैं लेकिन चर्चा के लिए मैंने उनकी कहानी ‘मेरी जनहित याचिका' को चुना है चूँकि मुझे लगा कि यह उनकी प्रतिनिधि कहानी है।

प्रदीप की इस कहानी में और प्रसंगवश अन्य कहानियों में नरेटर अर्थात कथावाचक की ज़बरदस्त उपस्थिति है और मैं उनकी कहानी को आत्मस्वीकारोक्ति शैली की कहानी कहना चाहूँगा। यहाँ जानबूझ कर मैं आत्मस्वीकारोक्ति के साथ शैली शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ ताकि यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाए कि यह किसी आप-बीती का कन्फ़ेशनल कच्चा-चिट्ठा नहीं है वरन् एक लेखक की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। वस्तुतः कोई भी कथाकार यदि यह कहे या उसके बारे में कहा जाए कि वह भोगे हुए यथार्थ को ही लिखता है तो यह बात साहित्य की रचनात्मक प्रक्रिया की अवहेलना करने जैसी बात होगी। साहित्य यथार्थ की कल्पनात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है न कि यथातथ्य का बयान।

इस नज़रिए से देखने पर हम पाते हैं कि "मेरी जनहित याचिका" का वाचक-नायक स्वयं को मानव मानस के हर तल-अतल पर ले जाता है। कहानी में उसका जीवन एक ऐसे युवा के रूप में शुरू होता है जिसके पारिवारिक सरोकार बहुत गहरे हैं लेकिन इस शुरुआत में ही हम देखते हैं कि कथाकार अरबनाइज़ेशन की जटिलताओं को एक्सप्लोर करने के लिए तत्पर है। वस्तुतः शहरीकरण ही इस कहानी का प्रस्थान बिन्दु है जिसके तहत पिता अपनी ज़मीन-जायदाद-ग्रामीण सम्पत्ति बेच कर उसे शहरी ज़मीन-जायदाद में तब्दील करने का उपक्रम करते हैं। पिता अपना पुश्तैनी बाग़ बेचते भी हैं और बेचते समय दुःखी भी हैं। उनके इस दुःख के साथ किसी की सहानुभूति नहीं है, परिवार के बाक़ी सदस्य यही कहते हैं कि अगर इतना ही दुःखी होना था तो बेचा क्यों। इसमें सबसे गौरतलब वह मुक़ाम है जब पिता की भावुकता का एक वीडियो बना कर उसे यूट्यूब में अपलोड कर दिया गया। यह परिघटना इस परिवार के लिए आने वाले समय का संकेत है जो यह बताएगा कि सारे मानवीय अहसासात अब मोबाइल के दृश्य हो जाएँगे और दिल की गिरफ़्त से छूट जाएँगे। बाग़ का बेचना किसी क्लीशे की तरह जड़ से उखड़ना ही नहीं है वरन् इस बात का संकेत है कि जब पीढ़ियों से चला आ रहा आदमी और ज़मीन का रिश्ता टूटेगा तो अन्य रिश्ते भी इस उलटफेर से प्रभावित होंगे।

इस कहानी को हम जीवन के एक टुकड़े की कहानी नहीं कह सकते हैं। इस कहानी का अपना एक पूरा जीवन है इसलिए घटनाओं, चरित्रों और भावनाओं के बाहुल्य के कारण एक सामान्य पाठक के समक्ष यह निर्धारित करने की थोड़ी मशक्क़त दरपेश हो सकती है कि आख़िर इस कहानी का मूल कथातत्व क्या है? एक सामान्य पाठक की तरह मैंने भी यह कोशिश की। जहाँ तक मुझे समझ में आया है कि कालान्तर में नायक की स्वेच्छाचारी जीवनशैली के बावजूद इस कहानी में परिवार की केन्द्रीयता है और परिवार में भी पिता की केन्द्रीयता है। कथानायक परिवार के शेष चरित्रों को पिता की मानसप्रतिमा की कसौटी पर कसता है और तद्नुसार उनको अंक प्रदान करता है। बाद में वह इस वैयक्तिक पारिवारिकता से उबर कर कहानी को बृहत्तर सामाजिक उत्तरदायित्वों के फलक पर ले आता है जिसके कारण कहानी में एक के बाद एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे प्रकट होते हैं।

यह कहानी शहरी मध्यवर्ग की कहानी है हालाँकि शहरी मध्यवर्ग एक ऐसा पद है जो शहर की औक़ात के अनुसार बदलता है। केवल एक उदाहरण के रूप में कहूँ तो जो मुम्बई का मध्यवर्ग है वही लखनऊ का मध्यवर्ग नहीं है और जो सुल्तानपुर का मध्यवर्ग है वह मुम्बई के निम्न मध्यमवर्ग से ज़्यादा नहीं है। अतः इस हिसाब से अगर मैं इस कहानी की लोकेशन ढूँढ़ने की कोशिश करूँ तो यही कहते बनता है कि यह एक छोटे शहर के मध्यवर्गीय परिवार की किसी अपेक्षाकृत बडे़ शहर के विशाल मध्यवर्ग में अपना मुक़ाम पाने की कोशिश है। कहानी में वर्णित परिवारिक खींचतान भी इसी मुक़ाम पाने की जद्दोजेहद का नतीजा है जिसमें बहुत ही स्वाभाविक तरीक़े से एक मध्यवर्गीय परिवार का नौजवान जो अविवाहित है और अन्य भाइयों की तरह अभी उसकी कोई अपनी गृहस्थी नहीं है। इसीलिए वह अपने बडे़ भाइयों और भाभियों पर प्रतिकूल टिप्पणी करने में हिचकता नहीं है। वह मानता है कि पिता और परिवार के प्रति उसकी निष्ठा अनन्य है चूँकि वह यह नहीं समझ पा रहा है ऐसा केवल इस कारण है कि उसकी निष्ठा को कुछ अन्य रिश्तों से होकर नहीं गुज़रना है, परन्तु उसकी यह सरल अनुभवहीनता ही उसे एक ऐसी तीव्र भावुकता से सम्पन्न करती है जिससे वह हर व्यक्ति और घटना को शिद्दत से महसूस करने में समर्थ होता है। 

यह कहानी ढेर सारे सुपरिचित परिवारिक वृतान्तों यथा बहनों की अच्छी शादी, भाइयों की गृहस्थी और मंझले भाई की पत्नी द्वारा स्त्री के संरक्षण के लिए बनाये गये क़ानूनों का परिवारघाती दुरुपयोग और पुलिस और न्यायपालिका की कार्यशैली की यथातथ्य रिर्पोट ही रह जाती यदि कथावाचक स्वयं को आत्मान्वेषण के लिए प्रस्तुत नहीं करता। नायक का दिल्ली जाना इस कहानी की भावभूमि में एकाएक ऐसा बदलाव लाता है जो हमें चौकन्ना कर देता है। क्या यह वही कथानायक है? हम पाते हैं कि हमारा नायक वह सब करने के लिये प्रस्तुत है जो उसकी परिवारिक निष्ठा की मुखर उद्घोषणाओं के प्रतिकूल है। ऐसा करके जाने-अनजाने कभी-कभी वह अपने पिता की संस्कार प्रतिमा से भी विमुख हो जाता है। वह जिगलो बन जाता है। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है फ्रांसीसी व्युत्पत्ति के इस शब्द का सटीक हिन्दी अनुवाद सबसे पहले मैंने नागर जी के महत्वपूर्ण सामाजिक सन्दर्भों वाले उपन्यास ‘अमृत और विष‘ में देखा। उन्होंने जिगलो के लिए ‘शिश्नजीवी’ शब्द का प्रयोग किया है। इसके अलावा एक जिगलो चरित्र का उद्घाटन सुरेन्द्रवर्मा के एक सर्वथा विस्मरणीय उपन्यास ‘दो गुलदस्तों के बीच’ में हुआ है।

प्रदीप श्रीवास्तव ने अपनी कहानी में पॉलीटिकली करेक्ट होने की परवाह नहीं की है। मंझली भाभी की कुटिलता और उनके परिवार द्वारा स्त्री की गरिमा के संरक्षण के लिए बनाए गये क़ानूनों के भीषण दुरुपयोग का चित्रण करने में उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की है कि उनका यह प्रत्याख्यान नारीविमर्श की लोकप्रिय वाचालताओं से उन्हें दूर कर देता है, परन्तु यहाँ यह सवाल करने लायक़ है कि दिल्ली जाने से पहले और दिल्ली जाने के बाद के कथानायक के विचार और व्यापार में इतना अन्तर कैसे निभ पाता है। हमें यहाँ नैरेटर के विभाजित स्व से साबका पड़ता है जिससे जूझते हुए कहानी कुछ उपाख्यानों के माध्यम से आगे बढ़ती है। हम पाते हैं कि अनुप्रिया के साथ मझले भाई की लिव-इन व्यवस्था और पिता के प्रति उनकी कथित लापरवाही के कारण नाराज़ रहने वाला नायक एक अराजक जीवन शैली जिसमें तरह-तरह के नशे और व्यवसायिक रतिक्रीड़ा है, में लिप्त हो जाता है। हालाँकि यहाँ हमें ख़ुद से भी यह सवाल पूछना होगा कि क्या ज़रूरी है कि हमारे पात्रों में सदैव एक गणितीय संगति रहे। लोग बदलते हैं और यह कहानी आश्चर्यजनक बदलावों की कहानी है और इस कारण यह सुनिश्चित नायकत्व की अवधारणा पर प्रहार करती है।

दिल्ली पहुँचने पर इस कहानी का सामाजिक भूदृश्य एकदम से बदल जाता है। परिवार केन्द्रित चिन्ताएँ बैकबर्नर पर चली जाती हैं और एक नई सामाजिक स्थिति से हमारा परिचय होता है। इस नए परिदृश्य में एक शिश्नजीवी की क्रीत यौनिकता और परिणामी यौनरोग ही नहीं है बल्कि अराजक भोग-विलास का अतिशय उल्लेख है जिसके कारण कहानी वर्णनाधिक्य का शिकार हो जाती है। इसके बाद लगता है कि कहानीकार कहानी का सामाजिक उद्धार करना चाहता है और एक आख्यानात्मक प्रविधि की तरह शम्पा जी का अवतरण होता है।

शम्पा के माध्यम से कथावाचक न केवल अकादमिक जगत में व्याप्त धाँधलिओं को उजागर करता है वरन् स्वयं की वैयक्तिक-सामाजिक दृष्टि को भी प्रतिमानित करता है। वस्तुतः शम्पा के माध्यम से प्रदीप श्रीवास्तव ने एक आकर्षक और दृढ़ चरित्र की रचना की है जो ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जीने का प्रयास करती है, परन्तु उस प्रयास में स्वच्छन्दता नहीं है वरन् एक चेतन और जुझारू सामाजिक दृष्टि है। शम्पा के माध्यम से समीर उस प्रत्येक अवधारणा को प्रश्नाकुल करता है जो अब तक उसके जीवन का सम्बल रही है। शम्पा के माध्यम से वह पारम्परिक गृहस्थ जीवन के उस विचार और व्यवहार को प्रश्नचिह्नित करता है जिसकी अपेक्षा वह किसी समय दूसरों से करता था। शम्पा की व्यवसायिक नैतिकता निश्चय ही उन प्रोफ़ेसर साहब से श्रेष्ठतर है जो रिसर्च गाइड के रूप में अपना कर्तव्यपालन नहीं करते हैं। निश्चय ही वह उन अनेक लोगों से अधिक प्रतिभावान है जो समझते हैं कि मेधा किसी वर्ण या वर्ग की चेरी है। वह समय को बदलना चाहती है कुछ कर के न कि केवल कुछ कह के। वह समीर को नई आस्था देती है।

परन्तु उक्त के बावजूद हम यह भी देखते हैं कि समीर के अन्दर एक पैट्रोनाइज़िंग सवर्ण हिन्दू भी है जो शम्पा को अपना माउथपीस बना लेता है। दलितों की विश्वदृष्टि जिसमें आरक्षण भी शामिल है, उसका विरोध वह शम्पा के मुख से करता है। इस क़लम कौशल के कारण किसी-किसी जगह ऐसा लगता है कि लेखक ने शम्पा के चरित्र का गठन स्वयं अपनी मानसिक और शारीरिक वरीयताओं की सिद्धि के लिए भी किया है।

इस कहानी में कहीं कहीं कथावाचक की शारीरिकता के वृतान्तों का आधिपत्य दिखता है जिसके तहत खान-पान और यौनसम्बन्धों का अबाध उल्लेख है। बात-बात में मयनोशी के साथ प्रबल यौनिकता का अनवरत वर्णन है जिसमें अकुष्ठ भोग और कुंठित वासना के क्षण आस-पास डूबते उतराते रहते हैं चाहें पैसे देकर यौनसुख ख़रीदने वाली रईसज़ादियाँ हों या तन-मन प्रिया शम्पा हो। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि दुर्घटना में शम्पा की अचानक मृत्यु के बाद प्रोफ़ेसर आयशा जो मुस्लिम महिलाओं के तलाक़ के मुद्दे पर काम कर रही थीं के बारे में कथावाचक कहता है कि "आयशा मेरे इतने क़रीब थीं कि उनकी गर्म साँसों को मैं महसूस कर रहा था।" इस वाक्य की आवश्यकता और आशय दोनों ग़ौरतलब हैं। एक पाठक के रूप में हम इसकी परिहार्यता पर सवाल उठा सकते हैं या साहित्यिक ग्रहणशीलता को नियोजित करते हुए यह भी कह सकते हैं कि भाई यह फ़्रॉयडियन चूक का एक साहित्यिक क्षण है।

‘मेरी जनहित याचिका’ में मुद्दों की भीड़ जैसी जमा हो गयी है जिसका कारण कदाचित यह है कि प्रदीप अपना सब कुछ इस एक कहानी में लगा देते हैं हालाँकि मेरी अपनी विनम्र राय यह है कि इस कारण कहानी कभी-कभी लेखक का एकालाप लगने लगती है। यहाँ यह जोड़ना आवश्यक है कि मैंने प्रदीप जी की अन्य कहानियाँ भी पढ़ी हैं और यह सन्तोष की बात है कि उनके पास अनुभवों और अनुभूतियों, सहानुभूतियों और समानुभूतियों की जो जमापूँजी है उनका उपयोग समुचित मितव्ययिता के साथ संग्रह की उन कहानियों में किया गया है। हम जानते ही हैं कि जो एक रचना में छूट जाता है वही दूसरी रचना का आधार बनता है।

प्रदीप जी के पास यथार्थबोध की एक ऐसी पूँजी है जिसमें तरह-तरह के सिक्के संकलित हैं। जिस तरह से दिल्ली प्रवास के समय यह कहानी समीर के लगभग उन सभी उद्घोषित मूल्यों को एक के बाद एक विखंडित करती है जो उनका प्रारम्भिक संबल थे उससे यह स्पष्ट होता है कि उनका लेखकीय स्व चुन-चुन कर उन चुनौतियों को ढूँढ़ता है जो एक लेखक प्राणी के वास्तविक और कल्पित परिवेश का हिस्सा हैं। इस लेखक के पास सटीक भाषा का साहस और कौशल भी है। इस सिलसिले में मैं कहानी के पृष्ठ 84 से एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूँगा। यह रात्रि शम्पा और समीर की रात्रि है जो ऐन्द्रिक ग्रहणशीलता से ओत-प्रोत है। यौन-संसर्ग के द्वारा एक स्त्री एक पुरुष में प्राणप्रतिष्ठा कर रही है, ऐसा अर्थगुम्फित भाषा-प्रयोग कम ही देखने को मिलता है।

प्रदीप श्रीवास्तव में स्वयं से संवाद करने की जो चाह और क्षमता है वह भविष्य में उनके लेखन को नये मुक़ाम पर पहुँचाएगी, ऐसी मेरी आश्वस्ति और शुभकामना है।

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