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अपनी विलक्षण अनुभूतियाँ

(जब अपने मुख पर स्व. पापा की छवि देखी)

आज डॉ. डी.एस.शुक्ला का संस्मरण उनकी माँ के विषय में पढ़ कर मेरी भी इच्छा हुई कि मैं भी कुछ अद्भुत अनुभूतियों को लेखनीबद्ध करूँ जिन्हें अभी तक नहीं लिखा है। अपनी अनुभूतियों की चर्चा के पूर्व उसके संदर्भ को लेखनीबद्ध कर रही हूँ।

जब मैं छोटी थी और विवाह के उपरांत भी मैंने देखा था कि मेरे पापा श्री राधेश्याम शर्मा दोपहर को भोजन के उपरांत माला लेकर टहलते हुए मंत्रों का जाप करते थे और  पूजा समाप्त करने के पश्चात मम्मी को दीर्घ जीवन का आशीर्वाद दिया करते थे। मैंने पापा को कहते सुना था – "सेठ! (मम्मी को पापा इसी नाम से सम्बोधित करते थे) तुम्हारे बिना मैं कैसे ज़िंदा रहूँगा?" सम्भवतः मम्मी के लिये किसी ज्योतिषी ने अल्पायु योग बता दिया था और पापा की आयु 80 वर्ष बताई थी। हुआ उल्टा– पापा 53 वर्ष की आयु के पूर्व ही चले गये और सौभाग्यवश हमें मम्मी का 93 वर्ष की आयु तक आशीर्वाद प्राप्त हुआ। हो सकता है पापा के मंत्रों के प्रभाव से यह उलट-फेर हो गया।

पापा के ब्रेन ट्यूमर का एम्स में ऑपरेशन हुआ था जिसके बाद पापा ने हमसे विदा ली। अंतिम समय पापा ऊपर आई.सी.यू. में थे और हम दोनों बहिनें मम्मी के पास प्राइवेट वार्ड में थीं। अचानक प्रातः 4 बजे मम्मी एकदम से चौंक कर जग गईं और चारों ओर विस्फारित नेत्रों से ध्यान से देखते हुए बोलीं– "अभी तुम्हारे पापा यहाँ आये थे। वह जवान थे और साफ़-सुथरे कपड़े पहने थे। मुझसे बोले– ’सेठ! मैं जा रहा हूँ, तुम्हारा साथ नहीं निभा पाऊँगा।’ यह कहकर पास में एक शिव मंदिर था उसकी तरफ़ चले गये।" 5 बजे हम लोगों को यह दुखद सूचना मिली कि पापा हमें छोड़ कर चले गये। 

पापा ने हम लोगों को जुलाई सन्‌ 1974 में दातागंज बुलाया था। उस समय पापा लखनऊ में डायरेक्टर विजिलेंस थे और द्विवेदी जी सहारनपुर में पुलिस अधीक्षक थे। उन दिनों यह जनपद साम्प्रदायिक दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील था। साम्प्रदायिक तनाव के कारण सबकी छुट्टियाँ बंद थीं। जीवन में पहली बार अपने प्रभाव से पापा ने हमें एक दिन की छुट्टी दिलवाई थी। दातागंज में नया घर बन कर तैयार हुआ था। पापा ने मुझे बुला कर समझाया– "तुम लोगों को जब बरेली से निकलना हो तो एक रात यहाँ नाइट हाल्ट करके दूसरे दिन आगे चले जाना। इस तरह यहाँ का काम ठीक से चलता रहेगा।” 

मैंने उत्तर दिया– "पापा जब से ताऊ (पं. त्रिवेणी सहाय शर्मा) का मर्डर हो गया, मेरा दातागंज आने का मन नहीं होता।" 

पापा बोले– "ताऊ चले गये, मैं चला जाऊँगा, पर काम तो नहीं रुकेंगे।" इसके बाद कुछ बातें द्विवेदी जी को बताने के लिये कहीं। 

मैंने कहा‌‌– "पापा! ये बातें आप ही इनको बता दीजिये।" 

पापा हँस कर बोले–"अभी नहीं जब ज़रूरत हो तुम समझा देना।" मैं समझ गई कि इनकी बहस करने की आदत के कारण पापा ने इनसे नहीं कहा। मुझे पापा के काम करने की पद्धति में बहुत दिलचस्पी रहती थी इस कारण उन्होंने मुझे कुछ आवश्यक गुर सिखाये। मुझे नहीं ज्ञात था कि पापा अंतिम बार ये सब बातें बता रहे हैं और मम्मी को मुझे सौंप रहे हैं।

पापा को स्वयं हस्त रेखाओं का ज्ञान था। वह अक़्सर अपना हाथ देखते तो कहते थे‌– " सेठ! मुझे जाना पड़ेगा।" पूछने पर कुछ नहीं बताते थे। दातागंज से लौटकर कुछ दिनों के बाद ही पापा बहुत बीमार हो गये और उन्हें डॉक्टर के.पी.दीक्षित के पास कानपुर मेडिकल कॉलेज में जाना पड़ा। इसी के बाद उन्हें दिल्ली आल इंडिया इंस्टिट्यूट में ले जाया गया। 16 अगस्त को ब्रेनट्यूमर के ऑपरेशन के पश्चात 26 अगस्त 1974 को वह ईश्वरलीन हो गये। मम्मी को पेंशन के लिये जिन काग़ज़ों की ज़रूरत पड़ती वे पापा ने फ़ाइल बनाकर ऑफिस की अलमारी में रख दिये थे।

अब मैं जिन अनुभूतियों का वर्णन करने जा रही हूँ, इनको पहले कभी नहीं लिखा। पापा के न रहने पर भी, मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब मम्मी गम्भीर रूप से बीमार हो जातीं तब पापा ही उनकी पूरी व्यवस्था करा देते थे।

इसकी प्रथम अनुभूति हुई तब द्विवेदी जी डी.आई.जी. पी.ए.सी. थे। हम लोग पी.ए.सी. के मेस में रहते थे, अभी आवास आवंटित नहीं हुआ था। एक दिन मैं बाथरूम में स्नान करके दर्पण में देख कर अपने बाल काढ़ रही थी कि अचानक मेरी दृष्टि मेरे नेत्रों की ओर गई। पहली बार एक विचित्र अनुभव हुआ। मेरे मुख पर मुझे पापा के नेत्रों की छवि दिखाई दी। पापा के नेत्र बहुत बड़े-बड़े थे। एक क्षण को मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैंने पापा को देखा है। उस समय मैं कुछ विचलित सी हुई, समझ में नहीं आया कि यह क्या है? मैं बाहर आकर कुछ कार्य करने लगी। इसी बीच 10 बजे के लगभग मेरे ताऊ की बेटी संतोष (जो कांग्रेस की विधायक थी) मुझसे कई वर्ष के बाद मिलने आई। उसने बताया कि‌‌– "दो-तीन दिन पहले चाची (मेरी मम्मी श्रीमती सुशीला शर्मा) की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी। उनकी नाक से लोटा भर कर ख़ून निकला था। मेरे मामा (श्री राजेंद्र कुमार मिश्रा) का घर पापा के घर के सामने ही है। मामा हरिद्वार गये हैं तो चाची को भी अपने साथ ले गये हैं। जीजी! मैं ख़ास तौर पर आपको यह बताने के लिये ही आई हूँ।"

उसी दिन दोपहर को लंच के पहले अचानक द्विवेदी जी का फोन आया और उन्होंने मुझसे पूछा– "नैनीताल चलना है क्या? वी.वी.आई.पी. ड्यूटी के लिये नैनीताल जाने के लिये पूछा गया है। आज ही जाना होगा।" अंधे को क्या चाहिये–दो आँखें। मैंने तुरंत हाँ कर दी। वास्तव में नैनीताल जाने के लिये बरेली जाना था और नैनीताल के लिये बदायूँ से भी रास्ता था। इस प्रकार मैं रात को दातागंज मम्मी के पास रुक सकती थी। उसी दिन हम लोग रात को दातागंज पहुँच गये। मम्मी हरिद्वार से लौट आई थीं। हमने देखा कि रात में मम्मी की तबियत काफ़ी ख़राब थी। प्रातः इन्होंने डॉक्टर को बुला कर मम्मी को दिखा दिया। मैं मम्मी के पास रुक गई और द्विवेदी जी नैनीताल चले गये। 3 दिन के बाद जब द्विवेदी जी लौट कर आये तब हम लोग मम्मी को ज़िद करके अपने साथ लखनऊ ले आये। मेरा भाई राजीव राजस्थान में था। भाई को छुट्टी नहीं मिली पर भाभी नीरा मम्मी को अपने पास ले जाने के लिये लखनऊ आई थी। मम्मी बहुत कमज़ोर हो गई थीं अतः हमने उन्हें अपने पास ही रोक लिया। मेरी छोटी बहिन सुषमा भी लखनऊ में थी। हम सबके साथ मम्मी पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गईं।  

दूसरी बार की अनुभूति बड़ी विलक्षण है। 1 अगस्त सन्‌ 2000 से 31 जुलाई 2001 तक द्विवेदी जी उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक थे। दिल्ली में "आल इंडिया पुलिस डी.जी.पी’ज़. कॉन्फ्रेंस" में इनको भी सम्मिलित होना था। तारीख़ मुझे याद नहीं है। द्विवेदी जी को कार से बरेली होते हुए दिल्ली जाना था। बरेली में अधिकारियों से मीटिंग करने के बाद संध्या को सात बजे के बाद हम लोग दातागंज चले गये। सौभाग्य से भैया भी राजस्थान से आये हुए थे। अगले दिन भैया को वापस जाना था और हम लोगों को भी। उस समय मम्मी बिल्कुल ठीक थीं और प्रसन्न थीं। मैं भी इनके साथ दिल्ली चली गई। हम लोग यू.पी भवन में रुके थे। दूसरे दिन इनकी कॉन्फ्रेंस थी जो सुबह से शाम तक चली। अगले दिन इन्होंने कानपुर आदि के निरीक्षण का कार्यक्रम बना रक्खा था अतः हम लोग दूसरे रास्ते से लखनऊ जाने वाले थे।

तीसरे दिन सुबह के आठ बजे थे। मैं नहाने गई तो बाल काढ़ते समय पुनः मुझे अपने नेत्रों में पापा की छवि दिखाई दी। मैं सोचने लगी कि क्या बात है, पापा क्यों दिखाई दिये? परसों ही मम्मी को देख कर आई थी। वह बिल्कुल ठीक थीं। मैं बाहर निकल कर आई ही थी कि अचानक इनके पास वायरलेस से अत्यंत आवश्यक सूचना आई कि बनारस में कोई भयंकर घटना हो गई है। इन्हें तुरंत बनारस पहुँचना था। इन्होंने मुझसे कहा– "मैं हवाई जहाज़ से बनारस जा रहा हूँ। तुम तैयार होकर कार से निकल जाना। रात में मम्मी के पास रुकते हुए कल लखनऊ वापस आ जाना।" मैंने पापा की छवि को देखा था। मम्मी को देखते हुए आई थी अतः मैं मम्मी की ओर से निश्चिंत थी।  मेरे पति अकेले जा रहे थे अतः मैं उनकी तरफ़ से सशंकित थी। मैंने इनसे अपना ध्यान रखने को कहा।

मैंने किसी को सूचित नहीं किया था पर रास्ते भर मेरे प्रस्थान के विषय में अधिकारियों को सूचना थी। जब मैं शाम को मम्मी के पास पहुँची तो वहाँ मेरे स्वागत के लिये पुलिस अधिकारी उपस्थित थे। सुबह कितने बजे यहाँ से जाना है यह बता कर मैंने इनके अधिकारियों को वापस कर दिया।

मैंने देखा कि मम्मी  को बार-बार खाँसी आ जाती है। मम्मी थकी लग रही थीं। मैंने सोचा कि इतने लोगों के लिये चाय-नाश्ते की व्यवस्था कराने में मम्मी थक गई होंगी। मम्मी को एंजाइना की समस्या थी अतः मैंने मम्मी को आराम से बैठने को कहा। अभी तक मुझे यह नहीं ज्ञात था कि हमारे और भैया के जाने के बाद मम्मी की तबियत ख़राब हो गई थी। मेरे मामा श्री राजेंद्र कुमार मिश्रा ने मम्मी को डॉक्टर को दिखा दिया था।

जब रात को मैं सोई तो मैंने देखा कि मम्मी को बार-बार तेज़ खाँसी आ रही है और उनकी साँस कुछ उखड़ सी रही है। मैंने मम्मी की जीभ पर सॉर्बिट्रेट की एक गोली रख दी तो मम्मी को कुछ आराम मिला। थोड़ी देर में फिर मम्मी को एक गोली देनी पड़ी जिससे मम्मी आराम से सो गईं। अगले दिन चलने से पहले पुलिस अधीक्षक बदायूं का फोन आया तो मैंने उनसे मम्मी के विषय में बताया और कहा– "मैं वापस जाने के पूर्व मम्मी को किसी हार्ट स्पेशलिस्ट को दिखाना चाहती हूँ।" उन्होंने मुझसे कहा कहा– "मैम! आप मम्मी को लेकर इंस्पेक्शन हाउस में आ जाइये। डी.एम. साहब भी आपसे मिलना चाहते हैं। आप चाहेंगी तो हम मम्मी को दवा दिलवा कर दातागंज घर पहुँचा देंगे। आप बिल्कुल चिंता न करें।" 

मैंने सोचा कि मम्मी को अपने साथ ही लिये चलती हूँ। मैंने स्वयं ही मम्मी का सामान एक अटैची में रक्खा। उनके भगवान पूजा की अटैची में रक्खे और मम्मी का कमरा लॉक करके बाक़ी घर कुसुम जीजी (मेरी फुफेरी बहिन जो मम्मी के साथ रहती थीं) को सौंप कर बदायूं चली आई। मेरे पहुँचने के पहले ही पुलिस अधीक्षक, जिलाधीश और हार्ट स्पेशलिस्ट डॉक्टर इंस्पेक्शन हाउस में उपस्थित थे। तुरंत ही मम्मी का चेक अप हुआ। जब डॉक्टर ने कहा – "माता जी को माइल्ड हार्ट अटैक पड़ा है, तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा" तो यह सुन कर मैं सन्न रह गई। तुरंत मम्मी को अस्पताल में भर्ती किया गया। इनकी कार और फ़्लीट मैंने वापस कर दी और स्वयं मम्मी के पास रुक गई।

डॉक्टर ने शाम को बताया– "आप बड़े मौक़े से माताजी को ले आई हैं। चिंता की बात नहीं है। अब ठीक हैं माताजी। आप इनको ट्रेन पर लिटा कर लखनऊ ले जायें।" रात को हमारे लिये ट्रेन में रिज़र्वेशन करा दिया गया और हम लोग लखनऊ पहुँच गये। जब तक मम्मी पूरी तरह ठीक नहीं हुईं हम दोनों ने मम्मी को दातागंज नहीं लौटने दिया।

तीसरी बार की अनुभूति बड़ी विचित्र है। हम लोग देवर्षि के पास सियाटल से होकर वापस आये थे। मम्मी से मैं प्रातः नित्य फोन पर बात करती थी और उनका हालचाल लेती थी। मम्मी कहती थीं कि मैं ठीक हूँ। मम्मी को चलने में कष्ट रहने लगा था। शायद 26 या 27 दिसम्बर की बात है। मुझे फिर पापा की छवि अपने नेत्रों में दिखाई दी। मैंने मम्मी से बात की तो यह ज्ञात हुआ कि हरारत हो गई थी, अब ठीक हूँ। मैंने द्विवेदी जी से कहा कि चलिये मम्मी से मिल आते हैं। अपनी बहिन सुषमा को भी हमने अपने साथ ले लिया था। दातागंज जाकर ज्ञात हुआ कि मम्मी की नाक से ख़ून निकला था। मम्मी अपने स्वास्थ्य की बात छिपा रही थीं। वास्तव में मम्मी को दातागंज से बहुत प्रेम था और मम्मी घर नहीं छोड़ना चाहती थीं। दूसरा कारण यह था कि भाई राजीव शर्मा सेवानिवृत्त होने के बाद ह्यूमन राइट्स कमीशन में सदस्य बन गये थे और उन्हें बार-बार लखनऊ से दिल्ली जाना पड़ता था। भैया को हिप्स की तकलीफ़ के कारण चलने में तकलीफ़ थी अतः भाभी उनके साथ जाती थीं। मम्मी को लगता था कि भैया के पास न रहकर यदि बेटी के पास रहूँगी तो बेटे को बुरा लगेगा अतः वह लखनऊ नहीं आना चाहती थीं। किसी तरह मम्मी को हम दोनों बहिनों ने समझाकर लखनऊ आने के लिये सहमत किया। यहाँ आकर हार्ट स्पेशलिस्ट डॉक्टर शुक्ला की कृपा से मम्मी का इलाज ठीक से हुआ और  मम्मी का स्वास्थ्य दो माह के बाद जाकर ठीक हुआ। नव दुर्गा की पूजा मम्मी कलश स्थापना कराके करती थीं। मार्च के अंत में मम्मी भैया-भाभी के साथ दातागंज गईं ताकि पूजा करा सकें। 

मैं इस बात का दावा कि मेरे पापा दिवंगत होने के बाद भी मम्मी के लिये व्यवस्था करते थे, इस आधार पर कर सकती हूँ क्योंकि मुझे अपने नेत्रों में पापा की छवि तीन बार तभी दिखी जब मम्मी को मेरी आवश्यकता थी। जब से मम्मी को मैं अपने पास ले आई तब से फिर कभी ऐसा नहीं हुआ।

मम्मी जब दातागंज में रहती थीं तब उनके पास कुसुम जीजी रहती थीं। मेरी ताऊ की बेटी का परिवार समीप ही रहता था। मामा का घर भी पास था और ममेरे भाई एवं उनके परिवार के लोग भी वहाँ रहते थे। उनके नौकर थे और देखभाल के लिये भी कई लोग थे। इतना सब होने पर भी हम लोग मम्मी के लिये चिंतित इसलिये रहते थे कि घर बहुत बड़ा है। नौकर जहाँ रहते थे उस  जगह तक आवाज़ नहीं पहुँचती थी। उन्हें जाकर बुलाना पड़ता था। 

मम्मी को बार-बार न्युमोनिया हो जाता था। ममेरे भाई लोग मम्मी को बरेली अस्पताल में भर्ती करके भैया को सूचित कर देते थे। जब मम्मी ठीक हो जातीं तो भैया-भाभी मम्मी को दातागंज ले जाते। कुछ दिन साथ रहकर लौट आते। पंद्रह–बीस दिन भी नहीं बीतते कि फिर मम्मी को अस्पताल में एडमिट कराना पड़ता। चौथी बार मम्मी को अस्पताल से आँख में हर्पीज़ का इंफ़ेक्शन हो गया। भैया के साथ छोटी बहिन भी मम्मी के पास गई थी। द्विवेदी जी और मैंने तय किया कि मम्मी को हम लोग अपने पास रक्खेंगे। डॉक्टर ने भाई के दोनों हिप्स ट्रांसप्लांट के लिये कहा था। बहिन के यहाँ उनकी वृद्धा सास साथ रहती थीं। अतः उनकी देखभाल केवल मैं ही कर सकती थी। दातागंज में भाई ने मम्मी की खेती-बाड़ी की व्यवस्था की और बहिन ने मम्मी की सारी तैयारी कर ली। मम्मी गम्भीर स्थिति में सन 14 में गर्मियों में मेरे पास आ गईं। जब भी मम्मी को अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता होती हम तीनों भाई-बहिन मिल-जुल कर मम्मी की देखभाल कर लेते थे। जब मुझे लखनऊ से बाहर जाना होता तब भाई आकर मम्मी के पास रह जाते थे। जब भाई नौ दुर्गा की पूजा के लिये दातागंज जाते तब मम्मी को भी साथ ले जाते थे। सन 2017 के बाद मम्मी दातागंज नहीं जा पाईं क्योंकि भैया के दोनों हिप्स का एक-एक करके आप्रेशन हुआ था। नीरा के भी हिप्स का फ़्रैक्चर हो गया था। 10 नवम्बर 2019 को मम्मी हम लोगों को छोड़ कर चली गईं। उनको यह तसल्ली थी कि उनके सामने भैया के दोनों ऑपरेशन हो गये थे और नीरा भी ठीक हो रही थीं।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि पापा ने न रहने के बाद भी मम्मी के लिये सब व्यवस्था कराई। यदि ऐसा न होता तो मम्मी को जब आवश्यकता होती थी तभी  क्यों मुझे पापा की छवि दिखाई देती थी। जब से मम्मी स्थाई रूप से हमारे पास आ गईं उसके बाद कभी मैंने पापा की छवि नहीं देखी। लगता है अब पापा अपने सेठ को अपने साथ लेकर चले गये। 
 

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