मेरी एक पड़ोसन
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी निवेदिता तिवारी1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
रोज़ अख़बार में एक बार और टेलीविजन में अनगिनत बार यूनीवर्सल ट्रुथ की तरह महँगाई नाम की पड़ोसन का नाम मैं सुनता हूँ। जो न चाहते हुए भी सुबह के दूध के साथ मेरे घर में आ धमकती है और रात को जब बिजली के बिल के बारे में सोचकर लाइटें बुझाता हूँ। तो कुछ देर के लिए फिर वह अपना अहसास कराती है। महँगाई पड़ोसन इसलिए है क्योंकि मैं इससे संबंध नहीं रखना चाहता फिर भी यह मेरे इर्द-गिर्द रहती है।
महँगाई में भी अजीब सा आकर्षण है, चाहें न चाहें हम उसका ज़िक्र किए बिना नहीं रह पाते। इसके भाव बढ़ते तो रोज़ हैं। मैंने इतना अपनी पत्नी को उसके रूठ जाने पर नहीं मनाया जितना इसे अपना क्रोध कम करने के लिए मनाता हूँ। मेरे एक मित्र कहते हैं, क्यों दुखी होते हो पत्नी और महँगाई दोनों, हमारे नियंत्रण में नहीं हैं। हम उनके ग़ुलाम हैं ऐसा कहते हुए ठहाके के साथ चिंता कहीं खो जाती है।
अर्थशास्त्र के दो नियम सुने थे कहीं, पहला– माँग बढ़ने पर क़ीमत बढ़ती है। दूसरा– माँग बढ़ने का उत्पादन बढ़ता है और जब बहुत सारा उत्पादन होता है तो लागत अपने आप घट जाती है; यानि कुल मिलाकर क़ीमत घट जाती है। या यूँ कहें कि रात जब गहरी हो जाए तब सबेरा होता है। मेरी रात गहरी होती जा रही है और सुबह की उम्मीद पर पूरी रात मैनें महँगाई पर सोचते बिता दी। ये मेरे बच्चों की माँ नहीं है, पर उनके खाने में आने वाला स्वाद इसके कारण ही बदलता है। ये मेरी बीबी की सहेली भी नहीं है पर उसकी साड़ियाँ महँगाई ही पसंद करवाती है।
हे ईश्वर इसकी छाप मेरे मन में कुछ यूँ है कि बस . . .। काश कि इसके मायाजाल से मैं निकल सकता। पुरुष होने के कारण रो नहीं सकता लेकिन यह पीड़ा मेरे चारों ओर उन सभी की है जो अपने घर के मुखिया हैं। काश कि मैं पद्मावत की नायिका रानी नागमती की तरह कह सकता कि मेरे दुख देखकर गेहूँ का कलेजा फट गया। कहते हैं कि यह आर्थिक चक्र का हिस्सा है। चक्र में महँगाई जैसे बढ़ती है वैसे घटती भी है। इसके चक्रव्यूह में तो मैं ख़ुद को अभिमन्यु सा देखता हूँ, लेकिन इसके जाल को तोड़ने में विवश। जैसे इसने जन्म-जन्म मेरे साथ रहने के लिए कोई तप व्रत या उपवास किया हो!
प्रार्थना बस इतनी है कि मेरे बूढ़े होने से पहले चंचल चपल पड़ोसन बूढ़ी हो जाए वरना इसके प्रेम में मैं सब कुछ न गवाँ बैठूँ!
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