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मिशिगन लेक की सुन्दरता

“मामी! अमेरिका में सब चीजें हमारे यहाँ से उल्टी हैं”, रेखा ने देवर्षि के आवास के सामने लगे फूलों से लदे वृक्षों पर दृष्टिपात करते हुए कहा।

“कैसे” चौंक कर मैंने प्रश्न किया? “देखिये न........अपने यहाँ वृक्षों पर पहले कोंपल आती हैं तब फल आते हैं। आप स्वयं देख लीजिये यहाँ पहले फूल आते हैं तब पत्ती आती है और उसके बाद फल आते हैं। रेखा ने वृक्षों की ओर इंगित करते हुए कहा - “अपने यहाँ स्विच नीचे करने पर ऑन होते हैं और ऊपर करने पर ऑफ़ होते हैं। यहाँ ऊपर करने पर स्विच ऑन होते हैं और नीचे करने पर ऑफ़ होते हैं। ड्राइविंग भी यहाँ हमारे यहाँ से उल्टी है। भारत में राइट हैन्ड ड्राइव है, अमेरिका में लेफ़्ट हैण्ड ड्राइव है।” कहकर रेखा हँसने लगी। रेखा शुक्ला मेरी फुफरी नन्द की बेटी है। न्यूजर्सी से हमारे पास मिलने आई है। उसकी पुत्री लवी जो शिकागो में मेडिकल की स्नातक है, भी साथ आई है। लवी का कालेज व हास्टेल मिशिगन लेक के पास ही है। लवी जब वहाँ की सुन्दरता का वर्णन करती है तो मेरे स्मृतिपटल पर भी कुछ वर्ष पूर्व शिकागो में मिशिगन लेक के देखे गये दृश्य साकार हो उठते हैं।

गोपाल सिंह व कमला सिंह के विवाह की पैंतालिसवीं वर्षगांठ थी। सौभाग्यवश हम दोनों पति-पत्नी भी वहाँ उपस्थित थे। गोपाल सिंह ने शिकागो में क्रूज पर डिनर बुक कराया था। कालामाजू से हमलोग उनके साथ ही लैक्सस कार पर शिकागो पहुँचे। पहले वे लोग हमें दीवान मार्केट घुमाने ले गये। वहाँ पहुँचकर हमें अपने नेत्रों पर विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हम भारत के किसी नगर में हैं। भारतीय परिधानों की दुकानें, भारतीय जेवरों की दुकानें, देशी मुखाकृति और हिन्दी भाषा देख सुनकर किसी तरह यह विश्वास नहीं हो रहा था कि यह अमेरिका है। ऐसा ही अनुभव मुझे एक बार अटलान्टा में भी हुआ था जब साध्वी ऋतम्भरा का भाषण सुनने के लिये विशाल पन्डाल में भारतीय परिधान धारण किये, भारतीय भाषा में वार्तालाप करते असंख्य भारतीयों को देखा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कुम्भ के समय हरिद्वार में या इलाहाबाद में श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्रित हो गई हो। कहते हैं कि अकेले जार्जिया स्टेट में चालीस हजार भारतीय हैं।

हाँ तो दीवान मार्केट देखने व वहाँ दोसा, इडली, साँभर खाने के पश्चात् हम मिशिगन लेक के किनारे पर पत्थरों पर जाकर बैठ गये। वहाँ पर हमने पैर पानी में डालकर और जल में पत्थर फेंक कर जलक्रीड़ा का आनन्द लिया। मिशिगन लेक का विस्तार समुद्र से कम नहीं है। उसमें पानी के जहाज चलते हैं। शाम को सात बजे हम लोगो को लेकर गोपाल सिंह ’मर्मेड’ नामक फेरी पर गये। लेक के किनारे जेट्टी पर तमाम तरह के झूले और वीडियो गेम पार्लर बने थे। जेट्टी रंग बिरंगी लाइटों से जगमगा रही थी। “फज”, “केक”, “पेस्ट्री” की दुकानें वहाँ थीं और मनोरन्जन के तमाम साधन वहॉ पर उपलब्ध थे। फेरी के समीप व ऊपर उसके कर्मचारी सफेद यूनिफार्म में सजे खड़े थे। वे यात्रियों का टिकट चेक करके उन्हें ऊपर जाने की अनुमति देते थे। अन्दर प्रवेश करने पर एक लड़की ने कमला का नाम पूछा और फिर उन्हें ’बुक’ भेंट किया। तत्पश्चात वह हम चारों व्यक्तियों को खिड़की के सामने आरक्षित मेज के पास ले आई और हमें वहाँ बैठने के लिये आमन्त्रित किया। वहाँ चार कुर्सियाँ थीं, मैं और मेरे पति एक ओर बैठ गये। खिड़की से मिशिगन लेक की उत्ताल तरंगों की शोभा देखते ही बनती थी। दूर क्षितिज में एक जलपोत की रोशनी अत्यन्त मनभावन प्रतीत हो रही थी। कुछ देर के पश्चात् दो गायकों ने कमला व गोपाल सिंह के समीप आकर गाना गाकर शादी की वर्षगाँठ की बधाई दी। थोड़ी देर के पश्चात् वेट्रेस स्नैक्स व ड्रिंक्स लेकर आ गई। इसी बीच ट्युडर-कालीन वेषभूषा में सज्जित नर्तक और नर्तकियों ने नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। साथ ही साथ वेट्रेस मेज पर भोज्य पदार्थ भी एक-एक कर रखती जाती थी। हमें भान ही नही हुआ कि कब रात के साढ़े बारह बज गये। नृत्य नाटिका समाप्त होने पर हम लोग उठकर बाहर डेक पर आये। उस दिन का वह भव्य दृश्य आज भी नेत्रों के समक्ष साकार हो उठता है। पूर्णमासी की रात थीं - सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा अपने पूर्ण सैान्दर्य के साथ अवतरित होकर गगन की शोभा बढ़ा रहा था। रूपहली चाँदनी रात में दमकता आकाश एकदम स्वच्छ, हल्के नीले रंग का था। मिशिगन लेक में चन्द्रमा की परछाई पड़ रही थीं और आकाश से नीचे जल तक चाँदी की पगडन्डी जैसी बन गई थी। चन्द्रमा का आकार इतना विशाल था और रंग एकदम श्वेत और धवल दिखाई दे रहा था कि लगता था जैसे चन्द्रमा नकली है। जैसे पुरानी फिल्मों में स्टेज पर चन्द्रमा बनाकर नायिका को उससे दौड़ कर नीचे उतरते हुए दिखाया जाता था, कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य नेत्रों के समक्ष उभर रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे अभी कोई अप्सरा चन्द्रमा से उतरकर नीचे रूपहले जल मे तैरने लगेगी।

मिशिगन लेक की प्राकृतिक सुन्दरता के समक्ष ही मानवीयकृत भवनों की सुन्दरता भी थी। किनारे पर दिखती भव्य बहुमंजिली भवनों की रोशनी और जल में पड़ते उनके प्रतिबिम्ब अत्यन्त मनोहारी थे। इतने में ही जेट्टी के समीप आतिशबाजी प्रारम्भ हो गई। रंग-बिरंगी आतिशबाजी जितनी ऊॅंची आकाश में जाती उसके प्रतिबिम्ब उतने ही गहरे लेक के जल में दिखाई देते थे। ऐसा मनोरम भव्य दृश्य आज तक कभी नहीं देखा था। एक ओर तट पर प्राकृतिक सौन्दर्य और दूसरी ओर तट पर मानवीयकृत सौन्दर्य परस्पर स्पर्धारत थे। उनकी प्रतिस्पर्धा वास्तव में अद्वितीय थी। वह दृश्य आज भी मानस की विलक्षण स्मृतियों में संजोया हुआ है और माँ के अंक से निकले चंचल-चपल बालक की भाँति यदा-कदा चमत्कृत कर जाता है।

गोपाल सिंह व कमला के साथ ही शिकागो से हम मैकनेक आइलैन्ड गये थे। वहाँ पर एक पार्क में बैठकर हम लोग भोजन कर रहे थे तो अचानक देखा कि प्राचीन वेशभूषा धारण किये हुए अनेकों स्त्री-पुरूष वहाँ एकत्रित हो रहे हैं। पुरुष लम्बी चोटी बाँधे थे, ब्रीचेज व जैकेट पहनकर हैट लगाये थे। स्त्रियाँ घेर वाली नीची फ्रॉक पहने तरह-तरह के फ्रिल व फूलों वाले हैट लगाये थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे परिस के लूव्र म्यूजियम के पेन्टिग्स के पात्र बाहर निकलकर सामने खड़े हो गये हैं। थोड़ी देर में प्राचीन वेशभूषा में सज्जित पाइप बैन्ड भ पी-पी करता आ गया। इतने में बाा आदम के जमाने की टुटही साइकिल पर बैठकर बुड्‍ढा पादरी हाँफते - हाँफते वहाँ आ पहुँचा। वह बीच में खड़े होकर शादी राने लगा। बीच में दूल्हा-दुल्हिन थे। हमें प्रतीत हो रहा था कि यह कोई नाटक हो रहा है और हम बड़े कुतूहल से सब कार्यवाही देख रहे थे कि इतने में माइक पर घोषणा हुई कि दूल्हा-दुल्हिन की इच्छा है कि पुराने रीति-रिवाजों व प्राचीन वेशभूषा में विवाह हो इस कारण सभी घराती व बाराती इस प्रकार सुसज्जित होकर आये है। उस दिन चौदह जून थी और कुछ दम्पत्ति जिनकी उस दिन एनिवर्सरी थी नवविवाहित दम्पति के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। हम लोगों की भी शादी १४ जून को हुई थी अतः हम लेागों ने भी उस दम्पति के साथ फोटो खिंचवाई जो हमारे उस अद्‌भुत एवं विचित्र विवाह में सम्मिलित होने की प्रतीक है।

“मामी! आप कहाँ खो गई? क्या सोच रही हैं”- रेखा ने मुझसे मेरा कंधा हिलाकर पूछा।
“कुछ नहीं सोच रही थी अमेरिका में और क्या-क्या उल्टा है।” सबकी समवेत हँसी में बात वहीं समाप्त हो गई।

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नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

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