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मील का पत्थर

मील के पत्थर से
रहा न गया
रुआँसा था कल तक
आज रो ही पड़ा . . .
 
एक तू ही अकेली
है ठहरी यहाँ
बाक़ी किसी को
है फ़ुरसत कहाँ . . .
 
भागे फिरते हैं पागल-से
बस भीड़ में,
जाना किसको, किधर,
ये ख़बर है कहाँ . . .
 
जो मेरा ही जश्न
न मनाएँगे वो,
पछतावे सिवा
कुछ न पाएँगे वो . . .
 
मैं तो थक गया
तू ही समझा ज़रा –
"हर लम्हा है मन्ज़िल
अरे, नासमझ,
ये न लौटेगा फिर
इसे ज़ाया न कर!"

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