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मक्खी-मच्छर 

सुबह से अबोला जारी...।

पास बैठे हुए भी दोनों अपने-अपने अदृश्य घेरों में क़ैद; संजीव आरामकुर्सी पर टाँग-पे-टाँग रखे अधलेटा इण्डिया-टुडे के पन्नों में और तनु गार्डन चेयर पर सीधी तनी बैठी ऊन-सिलाइयों की उधेड़बुन में मस्त होने के उपक्रम में व्यस्त।  

एक अच्छे-ख़ासे अंतराल के बाद चुप्पी टूटते न देख तनु उठकर रसोई की ओर चल दी। संजीव ने कनखियों से देखा। 

और फिर कुछ ही क्षणों में चाय-बिस्कुट की ट्रे उन दोनों के बीच रखे टेबल पर लाकर रख दी। 

तनु की थोड़ी तनी हुई निगाहों ने ही चाय पीने का इशारा किया और साथ ही इस चुप्पी पर अपना सक्रियता का एहसान जताना भी नहीं भूली। 

अब आँगन में चाय नाश्ते की ख़ुश्बू हो और मक्खियाँ न आएँ! एक मक्खी आई। संजीव को मानो बात करने का सबल सहारा मिल गया। सोचा- ’क्यों न अब इस मक्खी से ही बातचीत का आगाज़ किया जाए। तनु चाय-नाश्ता लाई है, बोलचाल मैं शुरू कर देता हूँ।' मौक़ा न गँवाते हुए मैगज़ीन साइड पर रख दोनों हाथ से मक्खी को झटकते हुए बोला, "ये एक मक्खी ही नाक में दम करने के लिए काफ़ी है। कितना परेशान कर रखा है इसने।"   

सुनते ही तनु फटाक से बोल उठी, "और अगर इसकी जगह एक मच्छर हो तो?"

"मच्छर?"

"कम-से-कम ये काटती तो नहीं।"

संजीव मन ही मन सिर धुन कर सोचने लगा, "अब ये मच्छर कहाँ से आ गया?"   

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