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मोटा दाढ़ी वाला

वह साँवली सी बमुश्किल पंद्रह-सोलह वर्ष की रही होगी। यही कोई पाँच फुट उसकी ऊँचाई थी। पहले लम्बे कोरोना लॉक-डाऊन के बाद ऑफ़िस जाते-आते समय उसे रोज़ पॉलिटेक्निक वाले चौराहे पर भीख माँगते देखता था।

चेहरे पर पीड़ा दुख की गहन छाया के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से उसकी मासूमियत भी बनी हुई थी, वह खोई नहीं थी।

उस चौराहे पर तीन-चार साल के बच्चों से लेकर प्रौढ़ महिलाएँ तक, क़रीब दो-ढाई दर्जन भिखारी हर आने-जाने वाले के सामने हाथ फैला कर, भीख के लिए गिड़गिड़ाते मिलते हैं। लॉक-डाऊन के बाद उनमें से बहुत से चेहरे वहाँ मुझे नहीं दीखते थे। मुझे यह बिलकुल नहीं मालूम कि वो महामारी का शिकार हो गए थे या कि कहीं और चले गए।

लॉक-डाऊन के समय इन सब को एक स्कूल में ठहराया गया था। सरकार ने इनके खाने-पीने की भी व्यवस्था की थी। उस दौरान इन सब ने क्या खाया-पीया, क्या हुआ इनके साथ इसका तो पता नहीं, लेकिन चौराहे पर इनके बच्चे अब भी पैदल चलने वालों के पैर पकड़ कर लटक जाते हैं।

पैर खींचने पर घिसटते रहते हैं। छोड़ते ही नहीं। ऐसे में कुछ निष्ठुर जहाँ तेज़ झटका दे, डाँट-डपट कर चल देते हैं, वहीं कुछ लोग एक-दो रुपये देकर पिंड छुड़ाते हैं।

इस समूह में कुछ को छोड़ कर, बाक़ी सब एक-दो रुपए मिलने पर, या ना मिलने पर आदमी के आगे बढ़ते ही अपशब्द कहने से भी नहीं हिचकते। लेकिन वह मासूम पीड़ा में गहरी डूबी, लोगों के सामने मूक बनी केवल हाथ फैलाती थी। वह पूरे समूह में अलग-थलग दिखती थी।

धूल-मैल से उसके कपड़ों की ही तरह काली हो रही उसकी हथेली पर, जब मैंने पहली बार पाँच रुपये दिए थे, तब सर्दियों के दिन थे। वसंत-पंचमी ज़्यादा दूर नहीं थी। पाँच रुपये पाकर भी उसके चेहरे पर मुझे कोई भाव नहीं दिखे थे।

वह मुट्ठी बंद कर आगे बढ़ गई थी। कार में मेरी बग़ल में बैठे, मेरी ही तरह के अव्वल दर्जे के रिश्वतख़ोर मित्र ने यह देख कर कहा, "क्या यार, तुम इन सब को रोज़ पैसे दे-दे कर मुफ़्तख़ोर बना रहे हो। इनकी आदत ख़राब कर रहे हो। किसी घर में चौका-बर्तन करके भी, भीख से बहुत ज़्यादा पैसा कमा सकती हैं ये सब। लेकिन ये निठल्ले, निकम्मे काम के नाम पर हिलना भी नहीं चाहते। इन्हें बैठे-बैठे मुफ़्त में पैसा चाहिए। और अपनी सरकार का भी क्या कहना। क़ानून तो बनाती है कि भीख माँगना अपराध है। लेकिन इनको पकड़ती नहीं, जेल में डालती नहीं। ऐसी दोगली सरकारों से कुछ होने बनने वाला नहीं है।"

इसी समय सिग्नल ग्रीन हुआ तो, मैंने गाड़ी आगे बढ़ाते हुए कहा, "तुम सही कह रहे हो, कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें करने की हिम्मत, नैतिक बल इन सरकारों में नहीं है। हाँ बातें बड़ी-बड़ी करेंगे। इसलिए इन्हें दोगला कहना कहीं से ग़लत नहीं है। रिश्वत लेना अपराध है, जेल की सज़ा है। लेकिन हम-दोनों का दिन बिना रिश्वत लिए पूरा नहीं होता। ऑफ़िस में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो रिश्वत की सोचे बिना साँँस लेता हो।

"जब-तक टारगेट पूरा नहीं होता, तब-तक किसी का घर लौटने का मन नहीं करता। सबका मन करता है कि ऑफ़िस साल के तीन सौ पैंसठ दिन खुला रहे। बंद ही न हो।"

"क्या यार तुम भी कमाल करते हो, भिखारियों से अपनी तुलना कर रहे हो। ये मुफ़्त-ख़ोर हैं। काम के नाम पर हाथ भी नहीं हिलाना चाहते, हम काम करते हैं, तब कुछ लेते हैं, कोई अपराध नहीं करते कि हमें जेल में डाला जाए।"

मैंने गाड़ी के एक्सीलेटर पैडल पर दबाव बढ़ाते हुए कहा, "हम जो काम करते हैं, सरकार उसके लिए हमें हर महीने एक तारीख़ को सैलरी देती है। रिश्वत की समानांतर व्यवस्था तो हम-तुम जैसे रिश्वतख़ोर चला रहे हैं। यह व्यवस्था तो सरकार ने नहीं बनाई।"

"देखो यह समानांतर व्यवस्था हम-तुम जैसे न पिद्दी, न पिद्दी के शोरबा ने नहीं बनाई है। हमारी हैसियत ही नहीं है कुछ बनाने की, यह व्यवस्था भी अपनी सरकार ने ही बनाई है। वह भी देश की पहली सरकार ने।

"उसने देश में लिखित संविधान तो लागू किया २६ जनवरी, १९५० को। लेकिन उससे पहले इस समानांतर व्यवस्था का एक अलिखित संविधान १९४८ में ही रिश्वतख़ोरी, जाल-साज़ी का जीप घोटाला करके लागू कर दिया था।

"इंग्लैंड से जीप ख़रीदी दो हज़ार, देश में पहुँची एक सौ पचपन। बाक़ी का पैसा डकार गए वहाँ भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्णा मेनन। ख़ूब खाया और इतना खिलाया कि नेहरू ने एक पैसे की वसूली तो छोड़ो, उन्हें अपनी कैबिनेट में शामिल करके पुरस्कृत कर दिया। और हम-तुम जैसे लोग नेहरू के इसी अलिखित संविधान का पूर्ण ईमानदारी, सत्यनिष्ठा के साथ पालन करते हुए, देश की अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत कर रहे हैं, समझे।

"स्पीड बढ़ाओ, देर हो रही है। वैसे एक मज़ेदार बात सुनो, अभी जल्दी ही मैंने कहीं पढ़ा कि दो नंबर की अर्थ-व्यवस्था एक नंबर की अर्थ-व्यवस्था के लिए खाद-पानी की तरह है। बिना उसके यह पनप नहीं पाती। इसका विस्तार नहीं हो पता। उसने उदाहरण दिया था कि जबसे ब्लैक-मनी पर ज़्यादा नकेल कसी गई है, तब से रियल-एस्टेट इंडस्ट्री ठप्प पड़ी है। उससे जुड़ी बाक़ी भी पस्त हैं।"

यह कहकर मित्र जोर से हँस पड़े। देर तो नहीं हो रही थी, फिर भी मैंने स्पीड बढ़ाते हुए कहा, "यार मैं तुमसे कभी भी बहस नहीं कर पाऊँगा, क्योंकि तुम सच मानने के बजाये कुतर्क करने लगते हो। मैं केवल इतना कह रहा हूँ कि वर्तमान सरकार इस अलिखित संविधान, व्यवस्था को डिलीट करने में लगी हुई है। इसलिए थोड़ा कंट्रोल करना ही पड़ेगा। अब पहले की तरह लापरवाही ना ही की जाए तो अच्छा है। फोन पर तो लेन-देन की बात एकदम बंद कर देने में ही भलाई है। किसी ने बात रिकॉर्ड कर ली, तो नौकरी तो जाएगी ही, जेल बोनस में मिलेगी। मैंने फोन पर सब बंद कर दिया है समझे।"

"हाँ ये तो सही कह रहे हो। आये दिन फोन के चलते लोगों के पकड़े जाने की न्यूज़ आती रहती है। आज से फोन पर ऐसी सारी बातें बंद। लेकिन तय यह भी है कि अलिखित संविधान अपनी जगह पर अटल रहेगा। मुफ़्त में तो काम नहीं करूँगा। जिसको काम कराना है, उसको पैसा देना ही होगा, नहीं तो फ़ाइल में ऑब्जेक्शन लगते रहेंगे, लगते रहेंगे, इतने लगेंगे कि वह फ़ाइल, फ़ाइल ऑफ़ ऑब्जेक्शन्स हो जाएगी। आख़िर देश के पहले अलिखित संविधान को जीवित तो बनाए ही रखना है। और साथ ही यह भी सुन लो कि जो कुछ हो रहा है, मैं वही कहता हूँ। बाक़ी सुतर्क, कुतर्क तुम देखते रहो।"

बात करते-करते वह फिर हँसे। तभी उनके मोबाइल पर एक कॉल आ गई। बात करके उन्होंने कहा, "यार और तेज़ चलाओ ना। दिन की शुरुआत अच्छी होने जा रही है। क्लाइंट ऑफ़िस आ चुका है।"

कई सालों से हम कार पूल कर रहे हैं। एक दिन वह अपनी कार निकालता है, एक दिन मैं। हम-दोनों ने कार किश्त पर ज़रूर ली। लेकिन सच यह है कि हम चाहते तो इससे महँगी कार कैश पेमेंट करके ख़रीद सकते थे।
लेकिन दुनिया की नज़रों को रिश्वतख़ोर न दिखूँ, इसलिए किश्त पर ली। कार क्या, घर का हर सामान किश्त पर लेते हैं। घर तक लोन लेकर लिया। हम-दोनों उत्कोच-ख़ोर मित्रों में एक-मात्र अंतर यह है कि वह मित्र इतना पैसा होने के बावजूद किसी की एक पैसे की मदद नहीं कर सकता। लेकिन मैं मुश्किल में पड़े व्यक्ति की मदद करने की हरसंभव कोशिश करता हूँ।

उस दिन की शुरुआत मेरे लिए भी अच्छी रही है। रिश्वत जिसे मैं ‘सद्भावना-शुल्क" कहता हूँ, के रूप में अच्छी-ख़ासी रक़म मिली थी। और शाम को घर वापसी के समय वह किशोरी भी। मित्र को चिढ़ाने, और उस मासूम किशोरी को ज़्यादा से ज़्यादा मदद देने की गरज़ से मैंने उसे सौ रुपये दे दिए।

मैंने सोचा कि इस कोरोना महामारी के समय लोग विपन्न लोगों की कितनी मदद कर रहे हैं। दूसरों की मदद करने के एक से बढ़ कर एक समाचार देखने, पढ़ने को मिल रहे हैं। वह आदमी कितना साहसी है, जिसने बेरोज़गार हुए लोगों को खाना खिलाने के लिए अपना मकान तक बेच दिया। भगवान ने दिया है तो मुझे भी कुछ तो करते रहना चाहिए।

लेकिन मेरे मित्र को उसे रुपया देना इतना खला कि वह साफ़-साफ़ बोले, "सुनो दान-वीर कर्ण, यह कलियुग चल रहा है, द्वापर युग नहीं। उस समय आज जैसी बदतर स्थिति नहीं थी, फिर भी कर्ण की दान-वीरता ही उनकी मौत का सामान बन गई थी। तुम जैसों की यह दान-वीरता देश को मुफ़्तख़ोरों, निठल्लों का देश बना कर छोड़ेगी। भिखारी बना देगी।"

उनकी यह बात, और कहने का ढंग, दोनों ही मुझे ग़लत लगे। इसलिए उन्हें, उन्हीं की शैली में जवाब देते हुए कहा, "तुम भी कितना स्लो चलते हो यार, अपना देश कब का मुफ़्तख़ोरों का देश बन चुका है। देखते नहीं, बड़ी-छोटी पार्टियाँ सभी ’मुफ्त्रास्त्र’ के सहारे राजनीति कर रही हैं। इवेन एक टुटपुँजिया-सा आदमी नौकरी छोड़कर, फ़लां-फ़लां चीज़ें मुफ़्त कर दूँगा, कहकर मुख्य-मंत्री बन गया। इसी मुफ्त्रास्त्र के सहारे वह प्रधानमन्त्री बनने के सपने सँजोये आगे बढ़ रहा है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा, यदि वह सफल हो गया।"

"अरे अब इतना भी आसान नहीं है यह सब। ऐसे तो हर कोई जो चाहे वो बन जाएगा।"

"तुम भी हद करते हो। यह सब तुम्हें दिखता नहीं कि एक ने कहा बिजली-पानी मुफ़्त कर दूँगा, सारे मुफ़्तख़ोर बार-बार अंधी भेड़ों की तरह उसी के पीछे हो लिए। वह सी.एम. बन बैठा। यह अलग बात है कि बराबर धोखा ही दे रहा है। एक ने कहा कर्ज़ माफ़ कर दूँगा तो, मुफ़्तख़ोरों का झुंड का झुंड उधर ही चल पड़ा।

"इन लोगों ने ऐसे लोगों के पीछे जाने से पहले एक बार भी यह नहीं सोचा कि सत्ता-लोलुप लोगों की इस घिनौनी चाल को सफल बनाने से देश रहेगा कि खड्ड में जाएगा। ध्यान दो ना, जब से सत्ता पाने के लिए मुफ़्तख़ोरी की व्यवस्था को ज़्यादा बढ़ावा मिला है, तब से देश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ झुकती ही जा रही है।

"अपने विभाग को ही देखो ना, हर साल बजट की घोषणा की जाती है। लेकिन कभी पूरा पैसा नहीं मिल पाता। हर प्रोजेक्ट सालों-साल अधूरे पड़े रह जाते हैं। समय, लागत कई गुना बढ़ जाती है। न जाने ऐसे कितने प्रोजेक्ट हैं, जिन पर शिलान्यास से आगे काम ही नहीं बढ़ पाया है।

"सत्ता-लोलुप और इनके झाँसे में आने वाले निठल्ले मुफ़्तख़ोर यह नहीं सोचते कि इस मुफ़्तख़ोरी से जिस दिन देश की अर्थ-व्यवस्था चरमराई तो, देश में वेनेज़ुएला की तरह दस लाख नहीं, दस करोड़ के नोट जारी करने की नौबत आ जाएगी। आज दुनिया से भीख माँग रहा वेनेज़ुएला दस-बारह साल पहले सबसे अमीर देशों में गिना जाता था।

"कभी कारों में घूमने वाले लोग अब वहाँ भीख माँग रहे हैं। अराजकता, अव्यवस्था इतनी कि देश में कितने राष्ट्रपति हैं, यही नहीं पता। अपने यहाँ तो ऐसी हालत में सड़कों पर खाने के लिए ऐसी मार-काट मचेगी कि सड़कें काली नहीं हमेशा लाल ही लाल दिखेंगी।

"सत्ता के सियारों ने लोगों की जींस में ही, मुफ़्तख़ोरी के गुण कितने गहरे पहुँचा दिए हैं, तुम्हें यह जानना है तो एक काम करो, शाम को घर पहुँच कर गेट पर यह सूचना लिख दो कि कल सुबह सात से दस बजे तक यहाँ पर कूड़ा मुफ़्त मिलेगा। देखना सुबह तुम्हें गेट पर भीड़ ना मिले तो कहना।"

मेरे मित्र को मेरी बात अच्छी नहीं लगी। वह मुस्कुराते हुए चुप रहे, तो मैंने कहा कि "तुम यह तो समझ ही रहे हो कि लोग कूड़ा इसलिए ले जाएँगे जिससे कि उसमें से तमाम चीज़ें अलग कर-कर के कबाड़ में बेच कर पैसा बना लें। जैसे विभाग में वह डबल चेहरे वाला फारुखी, एक-एक रद्दी काग़ज़ घर उठा ले जाता है, बिग-बाज़ार में बेचकर दूसरे सामान खरीदता है।"

मैं उन्हें यह सब सुना ज़रूर रहा था। लेकिन मेरी आँखों के सामने किशोरी का मासूम चेहरा बना हुआ था। उसकी दयनीय हालत मुझे कचोट रही थी। मैंने अगले दिन उसे अपनी बेटी के दो सेट कपड़े, कोविड-१९ से बचाव के लिए कई मॉस्क और कुछ खाने-पीने की चीज़ें दे दीं। मॉस्क लगाने के लिए भी कह दिया। मिसेज को जब बताया था, तब उसी ने कपड़े निकाल कर दिए थे।

आते-जाते रोज़ ही उस चौराहे पर मेरी निगाहें, उस किशोरी को ज़रूर ढूँढ़ती। कभी-कभी वह नहीं भी मिलती थी। मिलने पर मैं उसे कम से कम दस रुपये ज़रूर देता था। जल्दी ही वह हमारी प्रतीक्षा में रहने लगी। हमारी कार देखते ही लपकती हुई हमारे पास आ जाती। मेरा ध्यान इस तरफ़ भी गया कि आशा से ज़्यादा पैसा मिलने पर भी उसके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं होता। एकदम मूक बनी आती है और पैसा मिलते ही यंत्र-वत सी चली जाती है।

जिस दिन ओवर-इनकम अच्छी होती, उस दिन मैं वापसी के समय भी उसे पैसे देता। मैंने उससे दो-तीन बार नाम पूछा, लेकिन वह मूक ही बनी रही। मुझे शक हुआ कि कहीं यह मूक-बधिर तो नहीं है।

असल में मेरे दिमाग़ में धीरे-धीरे यह बात मुखर हो रही थी कि इसके माँ-बाप, घर-परिवार का कुछ पता चले तो, उस हिसाब से इसके लिए कुछ करूँ।

यदि नहीं हैं तो, किसी अनाथालय या फिर किसी एन,जी.ओ. संस्था के सुपुर्द कर दूँ। जो ख़र्च होगा देता रहूँगा। क्योंकि मुझे बार-बार यही लगता कि वह जन्म से भिखारी नहीं है। लेकिन वह एक चुप तो हज़ार चुप बनी रही। यह रहस्य बना रहा कि वह मूक-बधिर है कि नहीं।

जल्दी ही वसंत के मौसम ने पदार्पण किया और बढ़ चला तेज़ी से। प्रकृति अपने को ख़ूब सजा-सँवार रही थी। इसी बीच एक दिन शाम को जब वह मिली तो, मुझे लगा कि उसके कपड़े पेट पर बहुत ज़्यादा टाइट हो रहे हैं। उसने मेरी बेटी वाले ही कपड़े पहन रखे थे। जो शुरू में उसे बिलकुल फ़िट थे।

ध्यान देते ही मुझे कोई संदेह नहीं रहा कि वह प्रेग्नेंट है। मैं आवाक्‌ उसे देखता रह गया। उसे देने के लिए नोट पकड़े मेरे हाथ जड़ हो गए। एक बार फिर उससे बात करने की कोशिश की, लेकिन वह भी मेरे जड़ हाथ की तरह मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाए जड़ बनी खड़ी रही। तभी मित्र ऊबते हुए बोले, "चलो यार, मिसेज़ को लेकर मार्केट जाना है। देर हो रही है। तुम भी पता नहीं क्यों, क्या से क्या होते जा रहे हो।"

उनकी नाराज़गी भरी यह बात सुनते ही मैंने उसके जड़ हाथ पर पैसे रखकर गाड़ी आगे बढ़ा दी। रास्ते-भर मित्र की बातें सुनता रहा, जो मुझे मानवता पर कठोर प्रहार लग रही थीं। मैं उनसे बातों में नहीं उलझना चाहता था। क्योंकि वह अपने तर्कों से मुझे हमेशा निरुत्तर कर देते हैं।

मासूम की स्थिति जब मिसेज़ को बताई तो उसने कहा, "क्या हो गया है दुनिया को, एक बच्ची एक बच्चे को जन्म देगी। कितनी पेनफ़ुल ज़िंदगी जी रही होगी। उसके माँ-बाप ने उसे किसी के साथ बाँधने का पागलपन क्यों किया?"

"पता नहीं, माँ-बाप ने उससे छुट्टी पाने के लिए किसी के पल्ले बाँध दिया या वो अनाथ है, और किसी के कमीनेपन का शिकार हो गई है।"

उस मासूम से शुरू हुई हमारी बातें अपनी बेटी पर आकर केंद्रित हो गईं। उसके भविष्य, सुरक्षा को लेकर ख़ूब बातें हुईं।

अब ऑफ़िस से घर पहुँचने पर मिसेज़ रोज़ ही मासूम किशोरी के बारे में पूछती। शाम का चाय-नाश्ता बिना उसकी चर्चा के समाप्त ही नहीं होता। उसमें मुझसे ज़्यादा इंट्रेस्ट मिसेज का बढ़ गया था।

उसके ही कहने पर मैंने उसे इतने ज़्यादा पैसे देने शुरू कर दिए, जिससे कि वह ठीक से खा-पी सके। वह और बच्चा कुपोषित न हों। उसे क्या खाना है, यह भी बताता। और मॉस्क लगाने के लिए भी कहता कि इससे तुम बीमारी से बची रहोगी। मैं सोचता कि सरकार को इन सबको मॉस्क देते रहना चाहिए। दिन-भर में ये हज़ारों लोगों के पास जाते हैं। ये सभी कोविड-१९ के एक सुपर स्प्रेडर ग्रुप से कम नहीं हैं। मेरे सारे प्रयासों के बावजूद वह मूक ही बनी रही। आख़िर हमें यह विश्वास हो गया कि वह अबोली है।

एक दिन मैंने उसे एक काग़ज़ पर सरकारी हॉस्पिटल का पता लिखकर देते हुए समझाया कि "तुम यहाँ चली जाओ। यहाँ डॉक्टर तुम्हें सारी दवा दे देंगे। मैं तुम्हें और पैसा दे दूँगा।"

लेकिन मेरी हर बात का उसके पास एक ही जवाब होता था, गहरा मौन। भाव शून्य चेहरा। कुछ हफ़्ते बाद मेरा ध्यान इस ओर गया कि उसने ज़्यादा पैसे मिलते रहने और बराबर कहते रहने से खाने-पीने पर ध्यान दिया है। क्योंकि बुझे-बुझे से उसके चेहरे की रंगत अब बदल रही थी। वज़न भी बढ़ा हुआ लग रहा था।

जल्दी ही मैंने यह महसूस किया कि उसके साथ एक भावनात्मक जुड़ाव बनता जा रहा है। लेकिन मेरी ही तरह मेरे प्रचंड रिश्वतख़ोर मित्र को यह सब न जाने क्यों इतना अरुचिकर लगा कि उसने किसी ना किसी बहाने से मेरे साथ ऑफ़िस जाना-आना बंद कर दिया। वह भाग्यवादी भी अव्वल दर्जे का है।

उसके साथ छोड़ने के कुछ समय बाद ही वसंत को पीछे ठेलते हुए चिलचिलाती धूप गर्मियों का मौसम सामने आ खड़ा हुआ। अब-तक मासूम किशोरी का पेट बहुत बढ़ चुका था। चलने-फिरने में उसे होने वाली तकलीफ़ अब साफ़ पता चलती थी।

यह देख कर मैंने उससे वहीं पास में एक सुरक्षित जगह बताते हुए कहा, "तुम वहीं बैठी रहा करो। मैं वहीं पर आ जाया करूँगा। इस धूप, गर्मीं में ज़्यादा चलो नहीं, नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी।" वह एक बार फिर गहन मौन धारण किये रही। लेकिन अगले दिन वहीं मिली जहाँ बताया था।

मैंने उसे उस दिन चार सेट कपड़े और दिए, जिसे मिसेज ने इतना ढीला बनवाया था कि वह आराम से पहन सके। उसके उभरे पेट पर टाइट होकर दबाव ना डालें। कपड़े देते समय मैंने सोचा कि इस बार और अच्छे कपड़े हैं। ज़रूर ख़ुश होगी, बात का जवाब देगी, लेकिन . . . 

जैसे-जैसे उसकी डिलीवरी का टाइम नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे मेरी और मिसेज़ की चिंता बढ़ रही थी कि वह मासूम किशोरी, बच्चे की डिलीवरी जैसी पहाड़ सी कठिनाई को कैसे पार करेगी। उसका जीवन भयानक ख़तरे में है। वह न जाने क्यों अपना मौन तोड़ नहीं रही है। अगर बोल नहीं सकती तो संकेतों में तो कुछ बता ही सकती है।
आज-तक एक आदमी उसके आस-पास ऐसा नहीं दिखा जिससे कुछ पता चल सके। जो कर पा रहा हूँ, उससे ज़्यादा करने के लिए कोई रास्ता ही नहीं खुल पा रहा है। कई बार खीझ उठता। मन में आता कि जब यह बोल ही नहीं रही है तो, आख़िर मैं क्यों परेशान हूँ? घर हो या ऑफ़िस दिमाग़ बार-बार इसी के पास चला जाता है।

उसको लेकर हम अजीब मनःस्थिति में पहुँचते जा रहे थे कि इसी बीच कोविड-१९ महामारी की दूसरी लहर ने अकस्मात ही हमला कर दिया। हमला पहली बार से इतना ज़्यादा तेज़ था कि देखते-देखते देश-भर में हाहाकार मच गया। मृत्यु का ऐसा भयावह तांडव क्या नगर, क्या गाँव, कहीं किसी ने नहीं देखा था। हर साँँस में यही प्रश्न कि अब क्या होगा? देखो कौन बचता है।

देखते-देखते फिर सब बंद, घरों में क़ैद हो गए हम। मगर वह मासूम हमारे बीच बनी रही। हम-दोनों यही सोचते कि पता नहीं अब वह कभी मिलेगी भी या नहीं। या हम ही बच पाएँगे कि नहीं। मगर ईश्वर की कृपा रही कि हम-दोनों उत्कोच-ख़ोर मित्र सपरिवार सुरक्षित रहे, और चरणों में सब-कुछ खुलते ही फिर अपने प्रिय ऑफ़िस जाने लगे। वह समूह भी फिर अपनी जगह मिला, मगर उनमें से आधे से ज़्यादा चेहरे गायब थे। उन बेचारों के पास ख़ुद को बचाने के लिए कुछ था ही नहीं, तो महामारी के लिए नर्म चारा बन गए।

मेरे लिए संतोष की बात यह रही कि छोटे से बचे उस समूह में वह मासूम भी थी। जो बहुत कमज़ोर हो गई थी। अंदर धँसी हुई आँखें, चेहरे की उभरी हुई हड्डियाँ। और ज़्यादा बड़ा हो चुका पेट। उसकी हालत देख कर मेरा कलेजा काँप उठा। मैंने फिर उसे पहले से ज़्यादा मदद करनी शुरू की। मिसेज़ ने कहा, "जैसे भी हो उसके लिए कुछ ऐसी व्यवस्था करो कि वह आराम से रह सके। सरकारी हॉस्पिटल में ही उसके लिए कार्ड वगैरह बन जाता तो भी अच्छा था।"

मैंने कहा, "यह सब-कुछ करवा दूँ, लेकिन वह कुछ बोले, तभी तो कुछ कर पाऊँगा।"

एक दिन ऑफ़िस में काम करते हुए सोचा कि किसी दिन मिसेज़ को लेकर आता हूँ, शायद उससे यह बात करे। तभी वह नाराज़ मित्र पास आये, सिस्टम पर जो फ़ाइल मैंने ओपन की हुई थी, उसे मिनिमाइज़ कर दिया। एक एड्रेस देते हुए कहा, "यह एक एन.जी.ओ. का एड्रेस है। ये ख़ासतौर से गर्भवती महिलाओं के लिए काम करती है। चाहो तो उनके ऑफ़िस जाकर बात कर लो। उस लड़की की देख-भाल, डिलीवरी, ट्रीटमेंट आदि सब वो मैनेज कर देंगे।"

मैंने उन्हें धन्यवाद कहा। उनके इस काम ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया था।

एड्रेस ऑफ़िस से क़रीब बीस किलोमीटर दूर था। फोन नंबर था नहीं। लेकिन मैं और समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहता था। इसलिए शाम को एक घंटा पहले छुट्टी लेकर एन.जी.ओ. ऑफ़िस चला गया।

वहाँ कुल मिलाकर वह लोग किसी तरह मासूम की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हो गए। मैंने उन्हें, डिलीवरी के कुछ माह बाद तक, एक निश्चित रक़म देते रहने के लिए कह दिया। रजिस्ट्रेशन वग़ैरह के नाम पर बीस हज़ार एडवांस भी जमा कर दिए। वह उसे अगले दिन ले जाने के लिए तैयार हो गए।

वहाँ से घर के लिए चला तो मन में आया कि मासूम से पूछे बिना ही पैसा तो जमा कर दिया, कहीं उसने आने से ही मना कर दिया तो? लेकिन घर पहुँच कर इस उलझन को परे रख कर शेष बातें मिसेज़ को बताईं तो वह बहुत ख़ुश हुई।

अगले दिन सुबह मैं उसके लिए कुछ फल, खाना-पीना लेकर निकला कि उसे अब और ज़्यादा पौष्टिक खाने की बहुत ज़रूरत है। मन में यह बात भी आई कि यह सब देखकर शायद वह अपना मौन व्रत तोड़ कर, अपने परिवार, पति के बारे में कुछ बता दे, जिससे कुछ ज़्यादा मदद कर सकूँ।

लेकिन उस दिन वह नहीं मिली।

गाड़ी से उतर कर उसे आस-पास ढूँढ़ा, लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दी। निराश होकर उसके लिए लाई सारी चीज़ें सामने दिखी एक दूसरी बुज़ुर्ग भिखारन को दे कर, उदास मन से ऑफ़िस चला गया। वह भी उसके बारे में सिवाए इसके कुछ न बता पाई कि एक मोटा दाढ़ी वाला अक़्सर शाम को ठिकाने पर वापसी के समय उसके पास दिख जाता है। 

मैं दिन-भर यही सोचता रहा कि उसकी तबियत तो नहीं ख़राब हो गई। इतनी कम उम्र है। ऐसे में मिसकैरिज वग़ैरह कोई बड़ी बात नहीं है। मिसेज़ को फोन किया तो वह भी चिंता में पड़ गईं। बोलीं, "आते समय उसके साथ के बाक़ी लोगों से पूछना। उन्हें पता ही होगा।" दरअसल मैं भी यही सोच रहा था। दोपहर को एन.जी.ओ. से फोन आया तो उनसे कह दिया, "आज वह मिली नहीं। शाम को देखता हूँ, जैसा होगा बताऊँगा।"

शाम को बड़ी आशा लिए पहुँचा। लेकिन वह फिर नहीं मिली तो, गाड़ी एक किनारे खड़ी कर अन्य भिखारियों से पूछना शुरू किया। कइयों ने कुछ बताने के बजाय पैसे ही माँगे। आख़िर एक प्रौढ़ भिखारी महिला ने बताया कि कल वह खाना लेकर अपने ठिकाने की ओर जा रही थी कि कुत्ते पीछे पड़ गए। डर के मारे वह भागी तो एक गाड़ी से टकरा गई और वहीं अपनी जान गँवा बैठी।

यह सुनते ही मेरे कान एकदम सुन्न हो गए। उसकी आगे की बातें, ट्रैफ़िक शोर, मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। लग रहा था जैसे हर तरफ़ अनगिनत मूक फ़िल्में चल रही हैं। जब-तक यह फ़िल्में मुझे सवाक लगनी शुरू हुईं , तब-तक वह महिला भी ग़ायब हो गई।

मैं उस मासूम बच्ची के बारे में फिर और कुछ नहीं जान सका। कई दिन से आसमान में डेरा डाले बादल उसी समय बरसने लगे। मुझे याद नहीं कि उस समय मेरी आँखों में पानी था या नहीं, मगर कार में बैठने तक में अच्छा-ख़ासा भीग गया था।

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टिप्पणियाँ

डॉ प्रभाकर शुक्ल 2021/07/11 12:12 AM

धरातल पर लिखी सुन्दर अभिव्यक्ति वाली कहानी के लिए लेखक को बधाई.

पाण्डेय सरिता 2021/07/10 05:37 PM

बेहद भावुक और संवेदनशील अभिव्यक्ति

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