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मृग मरीचिका

ममता का आवेग उसके भीतर हिलोरे ले रहा था, जिसके फलस्वरूप वह सातवें आसमान पर विचर रही थी। अपने बेटे अभिनव एवम्‌ बहू अदा के पास वह पहली बार अमेरिका आ रही थी। बहू के नौंवा महीना चल रहा था। कभी भी डिलीवरी हो सकती थी। हमारे इंडिया में तो लिंग टेस्ट करवाना निषेध है, लेकिन इन्होंने तो यहाँ होते हुए भी टेस्ट नहीं करवाया था। कहते हैं कि पहला बेबी है, कुछ भी चलेगा। आप दादा -दादी बन रहे हैं और हम माँ -बाप। फिर भी नीरू के मन में एक हसरत जन्म ले रही थी। काश! पुत्र हो जाए। फिर सोचा, क्या उसकी सोच ठीक है? उसने तो कभी बेटे-बेटी में फर्क नहीं समझा था। वह एक नए ज़माने की स्त्री थी। तो क्या वह अतीत में चली गयी है? अपनी बिन सिर-पैर की सोच पर उसे हँसी आ गयी। अपनी सास व माँ की उम्र की होते ही उसकी सोच भी वैसे ही चलने लगी थी शायद! तभी तो वह भी मंगलवार को सिर धोने का साहस नहीं कर पाती, वृहस्पतिवार को घर में कपड़े नहीं धुलने देती, व शनीवार को घर में - घी-तेल नहीं लाने देती थी। अभिनव के पापा इन बातों को पसंद नहीं करते थे। वह कहते कि पुराने लोगों की बातें उनके साथ खतम हो गयी हैं, आप अपनी सोच को बदल लो। लेकिन पढ़ लिखकर भी हमारी जड़ों में रूढ़िवादिता भरी ही है। पीढ़ी दर पीढ़ी कई बातें हमें घुट्टी में पिला दीं जाती हैं शायद! तभी तो बहू के लिए देसी घी की पंजीरी बनाकर नीरू साथ लाई थी। न मालूम आज की मॉडर्न बहू खाए या न खाए - लेकिन हमारे यहाँ डिलीवरी के बाद चालीस दिनों तक हर सुबह दूध के साथ पंजीरी खाई जाती है। देखें इन मान्यताओं को कितना मान मिल पता है अमेरिका में रहते बच्चों से? खैर, इसी ऊहा-पोह व विचारों की कड़ियों ने नीरू को सफ़र का पता ही नहीं चलने दिया, वह लास-एँजिलिस पहुँचकर भी तरो-ताज़ा दिख रही थी।

दूर से अभिनव को अपनी ओर आते देखकर माँ का चेहरा खिल उठा। उसे गले लगाते ही मानो सफर के चौबीस घंटे हवा में उड़ गये। माँ की आँखें छलछला आईं। ममता की पैनी नज़र ने भाँप लिया कि दोनो थके-थके से लग रहे थे। अपने देश में तो ऐसे हाल में बहुएँ नखरे करती हैं कि काम नहीं होता, चला नहीं जाता। लेकिन बाहर वे नौकरी के साथ-साथ घर का भी पूरा काम स्वयं करती हैं। माँ के आ जाने से उन दोनों को राहत मिली व घर का एकाकीपन भी दूर हुआ। नीरू के भीतर भी ममत्व का सागर उमड़ रहा था। वह बहू को हर तरह का आराम देने का प्रयत्न करती। अदा ने भी प्रसन्नचित्त हो माँ को बेबी नर्सरी दिखाई। जिसमें चार रंगों की सजावट थी। उसने बताया कि इसे 'रेइज़्ल-देज़ल′ थीम कहते हैं। वैसे लड़की के होनेपर पिंक और लड़के के होने पर ब्लू नर्सरी सजायी जाती है। बच्चा होने के पहले कोई दोस्त या रिश्तेदार 'बेबी-शावर' या पार्टी देकर सब को बुलाकर बच्चे का सामान गिफ्ट करते हैं। इस सामान की लिस्ट रजिस्टर की जाती है। निमन्त्रण-पत्र पर स्टोर के नाम व सामान की लिस्ट उनकी कीमत के अनुसार दे दीं जाती है। जिस दोस्त ने जितनी कीमत का सामान उपहार में देना है, वे वहाँ से ले लेते हैं। ये स्टोर बच्चा होने पर उसी के अनुरूप सामान बदल भी देते हैं। नीरू को ये सब बातें दिलचस्प लगीं। 'बेबी शावर 'उसे गोद भराई’ के समानान्तर ही लगा।

नीरू की अनजानी हसरत पूरी हो ही गयी। वक़्त आने पर वह नन्हे आरव की दादी बनी। वह यह जानकार हैरान हुयी कि कार सीट के बिना आप बच्चे को अस्पताल से घर नहीं ले जा सकते। और अगर कार सीट ठीक नहीं लगी तो $५०० फाइन देना पड़ता है। यह अमेरिका का सख्त कानून है। हमारी तरह गोद में लेकर कार में नहीं बैठ सकते।

खैर—ढेरों फोन आ-जा रहे थे। नीरू का मन करे कि घर में बाजे बजें। खुसरे नाचें और लोग बधायी देनें आएँ। उसे स्वयम पर हँसी आ रही थी। आज वह अपनी सास जैसी हो रही थी। वैसे अभिनव के दोस्त व उनके परिवार फूल, गुब्बारे व गिफ्ट लिए बधाई देने आ रहे थे। पर उसे सभी अपने याद आ रहे थे। परदेस में उनकी कमी बहुत खटक रही थी। वैसे इण्टरनेट पर सबको आरव की पिक्चर्स भेज दीं गईँ थीं।

सुह सबके उठने से पहले ही नीरू किचन का काफी काम निपटा लेती थी। अभिनव तैयार होकर ही कमरे से बाहर निकलता और बिना कुछ खाए पीये ही ऑफिस चला जाता था। माँ का दिल रो उठता, लेकिन उसे अब ऐसी ही आदत हो गयी थी। वैसे रात को गरमा-गरम खाना मिलने पर उसका चेहरा प्रफुल्लित हो उठता। इसीमें नीरू का मातृत्व सन्तुष्ट हो जाता। उस पल अभिनव के पापा को अकेले छोड़कर सात समुन्दर पार आना सार्थक हो जाता। एक दिन अदा ने पूछा, "माँ! यह ऑफ़िस-टेबल खाने के कमरे में कैसा लगेगा? बेबी-नर्सरी में ठीक नहीं लग रहा है।" नीरू ने उसकी हाँ में हाँ मिला दीं। जब रात को अभिनव खाना खाने बैठा तो बिन बुलाए मेहमान की तरह ऑफ़िस-टेबल को खाने के कमरे में देखकर हैरान हो पूछ बैठा कि यह टेबल यहाँ क्या कर रहा है? छूटते ही अदा बोली, "माँ ने कहा यहाँ अच्छा लगेगा। वहाँ आरव की नर्सरी में जगह कम है।" तभी अभिनव ग़ुस्से से बोला, "माँ! आप चैन से क्यों नहीं बैठ सकतीं?" नीरू के चहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। हकीकत बताने को नीरू मुँह खोलने ही लगी थी, कि देखा बेटा खाना खा रहा है। कहीं खाना बीच में ही ना रह जाए, यह सोच कर वह चुप ही रही। सोचा कोई बात नहीं। अदा ने उसकी आड़ लेकर अपने मन की बात कर ली। उधर मौके का फायदा उठाकर अदा दुगने जोश से पूछने लगी, "आईस्क्रीम विद केक चलेगी ना!" उस रात नीरू अदा की चालाकी पर सोचती बेचैन रही, ठीक से सो नहीं पाई।

अदा कमरे की दीवारों के भीतर ही आरव को नहला-धुला कर, दूध पिलाकर सुला देती। नीरू आरव को गोद में लेने के सपने संजोती रह जाती। बंद कमरे को खटखटाना तो वैसे ही अदा को पसंद नहीं था। भीतर से आरव के रोने की आवाजें आने पर नीरू तड़प जाती थी। अदा के बदले हुए व्यवहार एवम्‌ बेरुखी से उसे इस घर में अपनापन नहीं महसूस होता था। अदा अधिकतर कमरा बंद ही रखती। नीरू कहती कि तुम नहा धो लो मैं आरव को संभालती हूँ, लेकिन वह उसे सुलाकर ही नहाती। शाम को अभिनव के घर आते ही उसे थमा देती कि अब तुम अपने हिस्से का संभालो। तब वह माँ को पकड़ा देता। आरव को बाँहों में लेते ही नीरू का रोम-रोम खिल उठता। होंठों से मातृत्व लोरियों के रुप में प्रस्फुटित होने लगता। माँ के इस रूप को देख अभिनव मन्द-मन्द मुस्काता। सारे दिन में बस यही कुछ पल नीरू को पोता खिलाने के मिलते थे। रात को बिस्तर पर अकेली पड़ी नीरू सोचती कि उसका मन यहाँ बिल्कुल नहीं लग रहा, फिर भी पुत्र के मोह की मारी यहाँ पड़ी है। दुःख का कारण मोह-ममता ही तो हैं। उसे अपनी भावनाओं पर अंकुश रखना होगा। यहाँ के लोगों का रहन-सहन व उनकी सोच हम से भिन्न है।

नीरू जिस दिन अमेरिका पहुँची थी, उसी दिन अदा ने जो तौलिया उसे नहाने के लिए दिया था, वह पुराना घिसा हुआ किनारे से फटा हुआ था। पहले तो नीरू दूसरा तौलिया माँगने लगी, फिर कुछ सोचकर उसने उसी से नहा लिया। अगले दिन दूसरा फ्रेश तौलिया माँगने पर अदा ने कहा कि रात को धुलने के बाद सुबह आपको यही मिल जाएगा। नीरू ने सरलता से कहा कि घर में मेहमान को हमेशा अच्छा तौलिया देते हैं। जैसे आपके हैं, घिसा हुआ नहीं देते। तभी अदा तपाक से बोली थी, कि वे तो घर की हैं। मेहमान थोड़े ही हैं। तब नीरू उसकी फुर्ती व हाजिरजवाबी की कायल होकर रह गयी थी। वह तभी बाहर लॉन में जाकर बैठ गयी थी। उसे लगा था – धूप कुछ गीली सी हो गई है। मन पर हल्का सा बोझ आ गया था। अदा की शॉपिंग की लिस्ट इतनी लम्बी थी कि उसकी भरपाई उसे अपना तौलिया निकालकर करनी पड़ी थी। अब ५० पाऊँड के अटैची में कितना कुछ समा सकता है। खैर, इतनी छोटी सी बात पर मूड क्या खराब करना। यह सोचकर वह नार्मल हो गयी थी।-

छोटीछोटी-बातें होती ही रहतीं, लेकिन नीरू अभिनव को कभी कुछ नहीं कहती थी। एक दिन नीरू ने अपना एक सूट हाथ से धो लिया, क्योंकि उसका रंग निकलता था। बाहर सूखने डालने को ले जाते हुए लिविंग रूम के कालीन पर कुछ बूँदें पानी की टपक गईँ। सामने सोफे पर बैठी अदा जोर से चिल्ला उठी, "क्या करतीं हैं आप? पता नहीं लगता, सारा कारपेट खराब हो गया है। यह कोई इन्डिया है?" अभिनव भी पास बैठा कुछ पढ़ रहा था। माँ का चेहरा देखते ही वह सकपका गया। बोला कि कोई बात नहीं, आराम से बात करो। पर माँ के अहम् को ठेस लगी थी। वह बाहर धूप में सूट डालने के बाद वहीं पेड़ के नीचे जाकर बैठी रही। उसकी मन की चोट आँखों की कोरों से आज फिर बह निकली थी। गीली कोरों से सब ओर धुँधला दिखाई दे रहा था। वह अपने घर के आँगन की यादों के घेरे में लिपटी, साँझ का धुँधलका छाने तक वहीं बैठी रह गई थी।

कई-कई बार नीरू खाना नहीं खाती थी, पर उन दोनों को पता नहीं चलता था। अब तो अदा की हरकतें असह्य होती जा रही थीं। वह गाजर-मटर की सब्जी बनाने लगी तो, अदा ने उसके सामने से गाजरें उठा कर फ्रिज में रख दीं, केवल दो गाजरें देकर कहा कि वल अपने लिए बना लो बस, हम नहीं खाएँगे। नीरू को लगा उसके दिल में दर्द हो रहा है। अदा से उसे ऐसा व्यवहार कभी भी आपेक्षित नहीं था। उसने कुछ भी नहीं बनाया। एक केला खा लिया। देखती क्या है कि अदा फ्रीज़र से सामान निकालकर बर्गर बना रही है। साथ में सूप का टिन काटकर –सूप गरम कर के ले रही है। अधिकतर अब वह ऐसा ही करती। कभी पास्ता, कभी चाईनीस, कभी सैंडविच बनाती व स्वयं ही खा जाती। वह जानती थी कि नीरू माडर्न है, सब कुछ खाती है। पर उसने कभी औपचारिकता निभाने को भी नीरू को खाने को नहीं पूछा था। अब ऐसे माहौल में तो किसीका भी रहना मुश्किल है। सो, नीरू का भी अब और ठहरना मुमकिन नहीं था। वैसे वह अपने पति व बेटी को फोन पर यही कहती कि उसका मन ख़ूब लग गया है। इतने ढेर सारे पैसे खर्च करके वह इतनी दूर बच्चों की मदद के लिए आई थी। किस मुँह से वह जल्दी वापस जाए? उसने देखा कि ये लडकियाँ बहुत चुस्त हैं। इन्हें मदद की ज़रूरत नहीं है। ये पति से पूरा काम करवा लेतीं हैं। यहाँ का कल्चर उन्हें यही सिखाता है कि बच्चा दोनों की बराबर जिम्मेवारी है। जबकि यह कल्चर यहाँ बहू-विवाह के कारण पनपा है।

सारा-सारा दिन घर में अपनी सोच को अपनी सखी-सहेली बनाकर अकेले पड़े रहना वा बहू का बंद दरवाजा देखते रहना —आखिर ऐसे कैसे वक़्त कट सकता है? अदा तो भीतर टेलीविज़न पर अपने पसंद के प्रोगाम देखती रहती थी। नीरू को इनके प्रोग्राम्स नहीं भाते थे। उसने सोचा बहुत हो गयी। उसने अभिनव से कहा कि उसका मन नहीं लग रहा वह अब वापस जाएगी। सुनते ही अदा बोली, "मेरी ममी अगले महीने आ रही हैं। कुछ दिन हम मैनेज कर लेंगे। आप माँ की टिकेट करा ही दो।" नीरू ने राहत की साँस ली। अपने अन्तस में बहते ममत्व के झरने पर उसने बाँध लगा लिया। अभिनव ने सोचा कि अब माँ को थोड़ा घुमा दिया जाए, व शॉपिंग करा दी जाए। अगले ही दिन शनिवार था। वह माँ को होलीवुड साईन एवं होलीवुड डाऊन्-टाऊन् घुमाने ले गया। वहाँ से गलेरिया माल से शॉपिंग करक वे बरबैंक एल. ए. के पी.एफ़. चैन्ग् से चाय्नीज़ फ़ूड खाकर शाम को घर लौटे। आते ही अदा उन पर बरस पड़ी, "तुम्हे फालतू के कामों के बीच ध्यान ही नहीं रहता कि अपना बच्चा कितना रो रहा होगा। हद है तुम्हारी लापरवाही की।“ सुनते ही अभिनव दोषी महसूसने लगा। अदा ने तो खैर क्या पूछना था कि कहाँ रहे या क्या लाए? जैसे कोई मतलब ही नहीं। नीरू सामान लेकर कमरे में जाकर धम्म से बैठ गयी। आदर ना सही, तिरस्कार सह्य नहीं हो पाता किसी से भी। उसने सोच लिया कि बच्चों का प्यार मृग मरीचिका है, इसके छल से बचना ही होगा।

दो दिनों बाद दिल्ली के एयर-पोर्ट पर अभिनव के पापा ने उसका निस्तेज चेहरा देखा, कुछ नहीं बोले। मुस्करा कर उसका स्वागत किया। "ज़रा रुकना" कहकर नीरू ने अपने पर्स से पासपोर्ट निकालकर उसे फाड़कर पास पड़े कूदा दान में फेंक दिया। और मुस्कराती हुई उनके साथ होली। वे भी मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए उसके आवेग को शांत व स्थिर होते हुए देख रहे थे।

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