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मृग तृष्णा

श्री भगवतशरण श्रीवास्तव ओंटेरियो साहित्य जगत के एक ख्यातिलब्धा सुपरिचित हस्ताक्षर हैं जिनके प्रथम काव्य संकलन “मृगतृष्णा” को हंसराज कमर्शियल सर्विसेज़  टोरंटो ने आकर्षक रूप में मुद्रित किया है। अवारण श्री सुमन घई जी की अनुपम कलाकृति है जिसमें दो पक्षियों की उड़ान वृक्ष की पृष्ठभूमि में उकेरी गई है। पत्तीविहीन वृक्ष स्थात जड़ता, शुष्कता, स्वप्नहीनता और निराशा का प्रतीक है या फिर इस विश्वास का, “अइहहि फेरि बसंत ऋतु इन डारन पै फूल”। सामान्यत: मृगतृष्णा शब्द का भाव भी आशा से निराशा, सत्य में असत्य, आस्था में अनास्था आदि विरोधात्मक युग्मों की ओर संकेत करता और वही आध्यात्मिक क्षेत्र में  जैसा कि शरण जी ने कहा है, “खोज रहा जिसको मन बाहर बैठा अन्तर में जाकर के सत्य को उद्‌घाटित करता सा प्रतीत होता है और उसी भाव की पुष्टि महाकवि तुलसीदास कुछ इन शब्दों में करते हैं:

“तृषित निरखि रवि कर भव बारी।

फिरहहि मृग जिमि जीव दुखारी।।”

पुस्तक के प्रारंभिक 14 पृष्ठों में हिन्दी साहित्यानुरागियों के विशेष आशीष तथा काव्य मनीषियों की स्मृतियाँ हैं जिनमें समीक्षात्मक विस्तार एवं गहनता है अत: पुस्तक के संबन्ध में और कुछ लिखना मात्र पिष्टपेषण होगा इस सत्य से मैं अपरिचित भी नहीं हूँ।

आलोच्य पुस्तक गीतों से सराबोर है वस्तुत: इसका कारण है शरण जी के अन्तर्मन में व्याप्त जीवंतता और रस्वंतता। उन्होंने अपने ख्ट्टे मीठे अनुभवों, सरल गहन विचारों और पारम्परिक आधुनिक मान्यताओं को बिना किसी दुराव छिपाव के व्यक्त किया है जो दिलो दिमाग पर गहरी छाप छोड़ते हैं। कुल मिलाकर यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि शरण जी का काव्य संकलन उनके वयैक्तिक जीवानुभवों का प्रमाणिक दस्तावेज़ है।

प्राय: उनके गीतों में दर्द, तकलीफ, बेचैनी, उदासीनता और छटपटाहट के गहरे रंग बिखरे हैं। जिसकी पुष्टि उनकी स्वीकारोक्ति “मैं पीड़ा का सहचर हूँ” (आभार) तथा ये कवितांश “रहा जीवन आँसू में बीत” , “मैं विरह में जल रहा हूँ”, “तरसे नयना तेरी बाट निहार रहे”, आदि भी करते हैं।

   वाकई में दुख जीवन का अभिन्न अंग है जिसको दार्शनिकों  तथा साहित्यकारों ने एक स्वर से स्वीकार किया है क्योंकि “बिना दुख के सुख है निस्सार” (सु। पंत), मैं “नीर भरी दुख की बदली” ( महादेवी वर्मा), “जो घनीभूत पीड़ा थी” (जयशंकर प्रसाद) आदि कवियों की पक्तियाँ इसी तथ्य का समर्थन करती हैं। अंग्रेज़ी कवि टेनीसन भी अपने को रोक नहीं पाये जब उन्होंने लिखा “आँसू उदासीन आँसू मैं नहीं जानता इसका अर्थ क्या है” लिहाजा जब इस सत्य को शरण जी ने अपने गीतों में समोया तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं।

लेकिन इस यथार्थ को भी तो नज़रंदाज़ नहीं कर सकते कि शरण जी ने दर्द की चौहद्दियों से निकलकर कई ऐसे भी भारहीन प्रभावशाली गीत लिखे हैं जिनमें प्रेम , उल्लास, उमंग और हर्षदि को भी प्राथमिकता दी है उदाहरणार्थ “मन में धीरज धर, तन को सबल कर,” “आशा का दीप ले कौन मौन जा रहा”, “दम मिला लो तुम” आदि में जीवन का ज्योत पक्ष ही मुखरित हुआ है।

प्रेम आदिम अनुभूति है और शरण जी ने उसे नयी दिशा दी है, निखारा और आकाशीय विस्तार दिया है। प्रेम उनके लिए साधना, वंदना, अर्चना, और प्रार्थना है। “प्रेममय है सारा संसार” की भावना को कवि ने पावनमयी सर्वोच्चता प्रदान की है जिसमें संदेह की गुंजायश नहीं।

शरण जी के काव्यानुशीलन से यह तथ्य स्पष्टत: उभरता है कि उनकी दृष्टि और विचार मात्र उनके निजी जीवन पर ही केन्द्रित  नहीं हैं अपितु उन्होंने सामाजिक पुनरुत्थान, जन कल्याण, मानवतावाद और विश्व शांति को भी अपनी अभिव्यक्ति की परिधि में समेटा है। फलस्वरूप उनकी समसामiयक चेतना में युगबोध की स्वीकार्यता है। यह अनुभूति ओढ़ी हुई नहीं लगती बल्कि उसमें खांटी के भारतीय संस्कारों का पारदर्शी समन्वय परिलक्षित होता है जिसे मैं शरण जी के मनन चिंतन का प्रतिफल ही मानने के लिए बाध्य हूँ। उनके कतिपय गीतों “मृदुल श्रवण”, “मैं भिखारी हूँ माँ”, और “माँ शारदे” में वागदेवी अथवा परमसत्ता का भक्तिपूर्वक स्मरण गुणातीत धार्मिक संपदा के उजास का समर्थन है। सिर्फ़ यही नहीं रचनाकार के कई गीतों में भारतीय मिट्टी की सौंधी महक तथा देशप्रेम की भावनायें गुथी बिधीं हुई हैं जैसे “देश की पुकार”, “देश के रक्षक” आदि। शरण जी ने भारतीय उन्नायकों श्री शास्त्री जी, गाँधी जी, बोस जी, और नेहरू जी के प्रति प्रेरणापरक गीत सृजन कर श्रद्धा से उनका स्मरण करना नहीं भूले और इस प्रकार अपनी धरती से सम्बद्ध रहने का सार्थक प्रयास करते हैं।

शरण जी के कुछ एक गीतों, “जनकल्याण करो”, “कदम मिला लो तुम” आदि में जनजागरण का संदेश है। विशेषत: इन पंक्तियों में “उठो चलो उठाओ औरों का उत्थान करो” श्रुति वाक्य “उतिष्ठित जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधित” तथा “न क्लेष है न द्वेष है” में भी श्री शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक “न में द्वेष रागौ न में लोभ मोहौ” का प्रभाव स्पष्ट है। लेकिन शरण जी यहीं नहीं रुकते बल्कि प्रान्त, जाति, और भाषा की पारस्परिक घृणा मोहान्धता की मानसिकता से परे इस पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने की पहल करते हैं। बानगी के बतौर शरण जी के इन गीतांशों “इस अनुपम वसुधा को अपनी, सब मिल स्वर्ग बनाओ”, अथवा “मैं चला बसाने आज धरा पर, नया स्वर्ग तुम देखो” को जाँचा जा सकता है। यही नहीं वे दिवाली तभी मनाने का संकल्प करते हैं जब धरती से गरीबी, भुखमरी और तबाही मिट जाय । इस तरह वे इतिवृत्तात्मक और परिगणात्मक दृष्टि से अलग और पूर्व ग्रहों से मुक्त हो, सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ को लक्ष्य बना, महर्षि अरविंद के महामानव की अवधारणा के समीप पहुँच जाते हैं।

प्रकृति के प्रति आश्चर्य अथवा भय के आदिकालीन विश्वासों से भिन्न कवि उसके अकथनीय सौन्दर्य का वर्णन संवेदनामयी सहचरी के रूप में करते है जिसमें भावोद्दीपन का चटकीलापन नहीं। भौतिकवादी शोषणपरक परिवेश के विरोध में शरण जी प्रकृति के चेतनापूर्ण अनुपम चित्र अंकित करने में पूर्णत: सफल हैं। इस संदर्भ में उनके गीतों, “निशा”, “शशि”, और “पूर्णिमा” का सहर्ष उल्लेख किया जा सकता है। उनके प्रकृति के मानवीयकरण में प्रतीकों तथा बिंबों की चारुता और नूतनता की ऊर्जा  है और यदि उसका संश्लेषण विश्लेषण किया जाय तो उसमें पाश्चात्य एवं पौर्वात्त्य प्रकृति का गंगा जामुनी संगम भी परिलक्षित होगा।

शरण जी ने अपनी वर्तमान कर्मभूमि कैनेडा के जीवन के विभिन्न रूपों को अपनी लेखनी की परिधि मे सतर्कता से समेट कर रूपाiयत करने की यथेष्ट चेष्टा की है परिणामत: वे गीत भी अप्रतिम बन सके हैं।

शरण जी की भाषा सरल और सहज है उसमें शब्द अर्थ और भावगत दुरूहता नहीं। प्राय: भावों के अनुकूल ही शब्दों की संयोजना उसकी प्रभावोत्पादकता में वृद्धि करती है। रचनाकार ने करुण, शान्त, श्रंगार, रसों का बहुलता से प्रयोग किया है। शब्दों का चयन कवि के साहिiत्यक ज्ञान की प्रौढ़ता का परिचायक है। गीतों में अलंकारों की छटा लुभावनी है। नमूने के तौर पर “झंझा के झकझोरे झूम झूम आते हैं” में अनुप्रास, “हार हारकर गया हार, अब हार मुझे उपहार न दो तुम” में उभयालंकार, “नीरज सी नीर बसी” में उपमा और “तुम तो प्राण प्राण में बसकर” में यमक विशेष उल्लेखनीय हैं।

शरण जी ने कुछ शब्दों के नये प्रयोग किये हैं जैसे बादरी (पृ.26), विषफोटन(32), चुपचुपाये(84), अनघर(111)। आलोच्य पुस्तक में सभी रचनायें परम्परागत गीत हैं लेकिन “अतीत” मुक्त छंद और “क्या करोगे” गज़ल के रूप में अपवाद हैं। “रिमझिम झिम” तथा “होली में ठिठोली” आदि में लोकगीतों की गूँज है। शरण जी  के भावों में विशुद्धबौद्धिकता और ठेठ भारतीय चिंतन का समन्वय है।

शरण जी के काव्य के परिप्रेक्ष्य में यह कहना मुश्किल नहीं कि साहित्य सृजन उनके लिये रोजी रोजगार अथवा प्रतिष्ठा अर्जन का साधन नहीं अपितु हिन्दी के दायित्वबोध के प्रति पावन पुष्पांजलि है।

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