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मृत्यु उपरांत व्यक्ति का दर्शन 

आत्म कथ्य: जो लिखने जा रही हूँ वह घटना सन्१९८७ के मई या जून की है। कई बार लिखने का मन हुआ पर यह सोच कर नहीं लिखा कि ऐसी बातें अंधविश्वास बढ़ाती हैं। यह नितांत व्यक्तिगत अनुभव व अहसास हैं, जिनकी दोबारा पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती। पर यह घटना आज तक दिमाग़ में हुबहू अंकित है। आश्चर्य होता है कि क्या ऐसा संभव है? 

 

किसी बड़े संत की कथा सुन रही थी। उन्होंने बताया कि प्राण, पूर्वज, दिवंगत, देवता सूक्ष्म रूप में रहते हैं जिनका हम अपनी श्रद्धा से आह्वान व विसर्जन करते हैं जैसे पूजा में सुपारी में गजदंत विनायक का आह्वान, विभिन्न देवी देवताओं का आह्वान व पूजा के बाद पितरों, देवों का विनम्रतापूर्वक अपने अपने लोकों में स्थापित होने का निवेदन। मन में अचानक विचार कौंधा कि क्या हम अपनी श्रद्धा से किसी दिवंगत के भी दर्शन कर सकते हैं, या करा सकते हैं। यह विचार करते-करते मुझे जून १९८७ की एक घटना याद आ गई। 

मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय में प्रवक्ता थी। गर्मी की छुट्टियों में हम देहली-ग़ाज़ियाबाद अपने परिवार से मिलने गये। लौटते समय हमारी दीदी भी, संतोष गोयल हमारे साथ बनारस आईं थीं। उस समय हम का० हि० वि० वि॰ की हैदराबाद निज़ाम कॉलोनी में रहते थे। जिसको जामुन लाईन कहा जाता था। उसकी सड़क के दोनों तरफ़ जामुन के पेड़ थे। जो घर हमें रहने को मिला था, उसमें कार गैराज नहीं था। अत: हैदराबाद गेट के पास एफ़ क्वार्टर का गैराज हमें दे दिया गया। हमने नई-नई मारुति ८०० ली थी। थोड़ा बहुत कार चलाना मुझे भी आता था। जून की शाम को मैं दीदी को लेकर कार गैराज में रखने गई। यहाँ यह बताना ठीक रहेगा कि उस घर में हम सालभर रह चुके थे। जिसके दाहिने तरफ़ इंग्लिश के प्रोफ़ेसर महरोत्रा रहते थे और बाईं तरफ़ प्रोफ़ेसर चक्रवर्ती, जो आईआटी में अंग्रेज़ी की क्लास लेते थे। 

घटना का सूत्र आगे बढ़ाते हैं, जब हम कार गैराज में रख कर लौट रहे थे तो देखा कि चक्रवर्ती साहब के घर में किसी समारोह के बाद, जैसे सामान समेटा जा रहा था। मैं दीदी को बताने लगी कि दीदी इसमें जो इंग्लिश के प्रोफ़ेसर रहते हैं उन्होंने, इनको (मेरे पति) भी पढ़ाया था। यह बहुत अच्छे टीचर माने जाते हैं। हमारी बेटी नीलू को कुछ आवश्यकता थी, तो आपने सहायता की थी। पता नहीं इनके यहाँ क्या उत्सव है? इनका हमारे यहाँ उत्सवों में आना-जाना है। पर शायद हम यहाँ नहीं थे इसलिये नहीं बुलाया होगा। हम दोनों का मुँह उनके घर के मुख्य द्वार की ओर था। तभी क्या देखती हूँ कि प्रोफ़ेसर साहब बंगाली स्टाइल में झक सफ़ेद कुर्ता-धोती पहने काँधे पर शाल डाले खड़े मुस्कुरा रहें हैं। मैंने कहा, “देखो, देखो वह रहे प्रोफ़ेसर साहब“। कितनी सौम्य व तेजस्वी थी, वह छवि। दीदी कहने लगी कि इनका व्यक्तित्व कितना आकर्षक है। हम दोनों उनकी बात करते-करते जामुन लाइन पहुँच गये। 

बात आई गई हो गई। गर्मी की छुट्टियों के बाद जब विश्वविद्यालय खुला, तो कॉलिज जाना शुरू हो गया। एक दिन स्टाफ़ रूम में इंग्लिश की सहयोगी अध्यापिका से मुलाक़ात हो गई। जाने कैसे यह चर्चा भी बातों में आई कि डॉ. चक्रवर्ती के यहाँ जून में कोई उत्सव था? उन्होंने बहुत आश्चर्य से कहा कि क्या तुम्हें नहीं पता कि वह नहीं रहे। जिस दिन की आप बात कर रही हो उस दिन तेरहवाँ था। मुझे एकाएक विश्वास नहीं हुआ। यह कैसे हो सकता था? मैंने देखा ही नहीं अपनी बहन को भी दिखाया था। वह अपने घर के मुख्य द्वार पर शांत मुद्रा में खड़ा देखा था। 

जब घर आ कर दीदी को यह सब बताया तो वह भी आश्चर्य में पड़ गईं। हमने तो उन्हें देखा था, तुमने मुझे दिखाया था। 

प्रश्न: इसका उत्तर सब खोज रहे हैं कि क्या हम तीव्र इच्छा व श्रद्धा से कुछ क्षण के लिये किसी के दर्शन कर सकते हैं? या हम अपने भ्रम से किसी दिवंगत को ऐसा मूर्त रूप दे सकते हैं ?

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/06/21 10:45 PM

कुछ भी संभव है इस संसार में

मधु 2021/06/15 04:17 PM

उषा जी, आपका अनुभव संभवत: सही हो। कहीं वह प्रोफ़ेसर साहब के जुड़वा या मिलती-जुलती शक्ल वाले भाई तो नहीं थे? हमारे एक परिचित को भी यूँही लगा था परन्तु बाद में मालूम हुआ कि स्वर्गवासी के छोटे भाई देखने में बिल्कुल उन्हीं की तरह थे।

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