मुख्यधारा
काव्य साहित्य | कविता संजीव बख्शी9 Apr 2012
मुख्यधारा जिंदाबाद /
मुख्यधारा की जय /
मुख्यधारा ........मुख्यधारा......
सबको अपनी जगह छोडकर मुख्यधारा में
आ जाना चाहिए, यह एक नारा है
मुख्यधारा कोई नदी की धारा नहीं /
तैरना नहीं आता तो क्या
मुख्यधारा तो कुछ यूँ है कि
सबसे अच्छा है उसमें डूब जाना
बहुत भीड़ कि पैर धरने की जगह नहीं।
जैसे पंख लग गए हैं /
लोग उड़-उड़ कर जा रहे हैं
पहाड़ की ढाल हो कुछ ऐसा /
पता नही क्या है यहाँ
सिर्फ़ आगे बढ़ना चाहते हैं/
यानी आगे बढ़ने की खासतौर पर यहाँ खरीद-बिक्री होती है/
बड़ा बाजार है
जो लोग खरीददारी में लगे हैं,
नहीं जानते क्या खरीद रहे हैं
खरीद रहे हैं सो खरीद रहे हैं,
यही सिर्फ एक रास्ता है
सबको उस पर चलना ज़रूरी है
मुख्यधारा में लाना चाहते हैं
उन्हें जो हमारे मूल हैं
जिनके हम प्रतिलिपि हैं/
जिन्हें अपनी भाषा में पिछड़ा कहते हैं /
हम अगुवा हो गए हैं
खुद अपने से
जबकि अभी यह तय होना बाकी है कि
जिसे आगे बढ़ना कहते हैं
क्या वह वास्तव में आगे बढ़ना है?
यहाँ बिजली बह रही है
जैसे नदी में बाढ़ है
होर्डिंग लगे हैं बड़े-बड़े कि
ठीक से चलने की जगह नहीं
जहाँ तहाँ कचरे ही कचरे हैं
यही तय रास्ता है
कई बार लोग दूर पहाड़ी गाँव जाते हैं
कह आते है "हम तुम्हें मुख्यधारा की ओर ले जाएँगे"
सुन-सुन कर सिनेमा की तरह
मजा लेते हैं पहाड़ी गाँव के लोग
वे तो चाहते हैं एक निश्चित दूरी पर हफ़्ते का बाजार
जहाँ हो सिर्फ हफ़्ते का सामान
हफ़्ते का नमक, हफ़्ते की रोशनी
हफ़्ते का सामान यानी हफ़्ते की खुशी
आज का नृत्य यानी आज की खुशी
अभी का भोलापन यानी अभी की खुशी
शुरु-शुरु तो वे समझते थे
मंच पर होते हैं बड़े-बड़े लोगों के भाषण
जिसके लिए गाड़ियों में भर-भर कर
उन्हें ले जाया जाता है यहाँ वहाँ/
यही है मुख्यधारा
अच्छा हुआ वहीं कहीं भाषण में
किसी ने कहा “हम तुम्हें मुख्य धारा में ले जाएँगे”
लोग लगे हैं कि इ
से बहा कर रहेंगे
अभी समय है
ढूँढ लें यहाँ-वहाँ
यदि सचमुच है कहीं
मुख्यधारा तो कहाँ है वह
क्या हर्ज है यदि
हमें चलकर कहीं और जाना हो दूर
और ताज्जुब नहीं कि
वहीं कहीं हो आसपास
वहीं पहाड़ी गाँव के पार
जहाँ आदिवासी गाँव है
जहाँ दीवाली को सचमुच मनाते हैं/
बिलकुल असल
जहाँ नवाखाई होती है
मिट्टी का घर गोबर से लीपा
लीपते हैं जहाँ दीवार रंगबिरंगी मिट्टी से
लीपते हैं घर गलियाँ कोठार
पूरा गाँव बारात जाता है
जहाँ शादी में
वहीं कहीं आस-पास
जहाँ “सच” घर, बखरी, खेत
बना कर रहता है
झूठ के लिए जहाँ होता है
गाँव के बीचोबीच
एक मंच
नाचा और गम्मत के नाम /
पेट पकड़ हँसता हैं रात भर जहाँ
पूरा का पूरा गाँव
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