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मुक्ति (कुमुद अधिकारी)

अरे यह क्या? जब मैं होश में आती हूँ तो खुद को खिलखिलाती हुई पाती हूँ। सच यह तो अजूबा ही है ना, जैसे आठवाँ आश्चर्य, होश में आना वह भी

खिलखिलाते हुए। पर अभी मेरी स्थिति ऐसी ही है। मैं खिलखिला रही हूँ। इसी क्रम में देखती हूँ मेरे सिद्धार्थ मुझे हथेली में गुदगुदी कर रहे हैं। मेरा खिलखिलाना थोड़ा कम हुआ तो उन्होंने पूछा- "यशू ! कैसी हो? दर्द हो रहा है कि नहीं?"

मैंने आँखें खोलकर चारों तरफ देखा।

"अरे! मैं कहाँ?" सवाल मेरे मुँह से निकल गया। मुझे अच्छी तरह याद है बेहोश होने से पहले मैं अपने किराए के कमरे में थी। शाम का खाना खत्म करके करीब छ: बजे मैं बर्तन साफ कर रही थी। वे पलंग पर लेट कर साप्ताहिक ’नेपाल’ का कोई पुराना अंक देख रहे थे। अचानक मुझे प्रसव-वेदना शुरू हुई, दर्द शुरू हुआ तो थमने का नाम नहीं। मैं बर्तन साफ नहीं कर सकी और उनके पास पलंग पर जाकर लेट गई। दर्द बढ़ता ही गया और फिर मुझे कुछ मालूम नहीं रहा।

 मेरे सवाल को नजर अंदाज कर उन्होंने फिर पूछा- "यशू दर्द कैसा है?"

मैंने कहा- "अभी तो दर्द नहीं है।"

वे मुस्कुराए। मैं खुशी से सर्वांग भीग गई। मैंने देखा मैं किसी नर्सिंग होम के मैटरनिटी वार्ड में हूँ। मेरे बगल में दोनों तरफ मेरी तरह माँ बननेवाली औरतें हैं। मेरे सामने एक शीशे का दीवार है जिसके पर्दों में हँसमुख और स्वस्थ बच्चों की तसवीरें हैं। उन्होंने मुझे एक बार फिर हथेली में गुदगुदी लगाई। मैं फिर एक बार खिलखिलाने लगी। मैंने देखा आसपास की औरतें भी मुस्कुरा रही हैं। मुझे लगा मुझसे और मेरे पति से थोड़ी सी खुशियाँ छलककर उन लोगों को भी भीगो गईं हैं।

मैंने देखा, उनके चेहरे पर वही पहले वाली मुस्कुराहट थी। अचानक मेरी नजर उनकी कमीज पर पड़ी। वे नीली रंग का कमीज पहने हुए थे। वही कमीज जो उन्होंने अठारह महीने पहले उस सुनहरे दिन में पहली बार पहनी थी।  मैं बरामदे में अपने बदन को रेलिंग के सहारे खड़ी कर सामनेवाले बाँस की झाड़ियों में अपने अतीत के पन्ने पलट रही थी। मेरे दोनों हाथ मेरे पीछे थे। मैंने बाएँ हाथ से दाएँ हाथ की कलाई पकड़ रखी थी।  शायद मेरे चेहरे पर विषाद के बादल छाए हुए थे। क्या करें, कितना भी बुरा क्यों न हो ज़िंदगी की किताब को य्¡ ही तो नहीं फेंका जा सकता। जब ज़िंदगी का किताब साथ हो तो, मौसम, आँधी, धूपछाँव ज़िंदगी के पन्ने पलटते रहते हैं। मुझे तो कुछ पता नहीं था। वे मुझे बहुत देर से उस हालत में देखते रहे थे। अचानक उन्होनें मेरी दायीं हथेली पर गुदगुदाना शुरू किया और मैं खिलखिलाकर हँस पड़ी। मेरे चेहरे से विषाद के बादल थोड़े हटे और ज़िंदगी के किताब के पन्ने भी विश्राम करने लगे।

पर खिलखिलाते हुए भी मैं हैरान थी। उनको कैसे पता लगा कि मुझे हँसाने के लिए हथेली पर गुदगुदाना जरुरी है। यह बात तो सिर्फ मेरी माँ को ही मालूम थी। फिर लगा कहीं माँ ने ही बता दिया हो। पर यदि बताया होता तो हमारी शादी के छे महीन हो चुके थे और उन्होंने अब तक ऐसा नहीं किया था। क्या वही नीली कमीज में कुछ है? मैं कुछ समझ नहीं पाई।

मैंने उन्हें पूछा- "सिद्धार्थ ! मुझे हँसाने के लिए हथेली में गुदगुदी लगाने की बात तो सिर्फ मेरी माँ को मालूम थी फिर आप ने कैसे?"

उस वक्त मुझे अचंभे में डालते हुए उन्होंने कहा था- "यशू, तुम्हें मालूम है, प्यार करनेवालों की छठवीं इंद्रिय होती है, यानी कि ’सिक्स्थ सेन्स’।" मैं अभी तक समझ नहीं पाई हूँ यह ’सिक्स्थ सेन्स’ क्या बला है।

अब भी नीली कमीज में सिद्धार्थ उतने ही आकर्षक दिख रहे थे। उनके वहाँ होने से ही मेरा आधा दर्द जा चुका था। मैंने देखा उनके हाथ में साप्ताहिक नेपाल का नया अंक था। पढ़ने लिखने के शौकीन मेरे पति साप्ताहिक नेपाल नियमित रूपसे पढ़ते थे। विशेष रूप से उन्हं डॉ. अभी सुवेदी का स्तंभ ’समय रेखा’ अच्छा लगता था। इसबार मैंने देखा उनके चेहरे पर मलिनता छाई हुई थी। सच! इसी तरह की मलिनता मैंने कुछ महीने पहले उनके चेहरे में देखी थी। जगह वही थी। हमारे दो किराए के कमरे में से एक, बैठक कहें या बेडरूम। वे पलंग पर लेटे हुए थे। उनके हाथ में वही साप्ताहिक नेपाल का कोई पुराना अंक था। मैं उनके पास ही बैठी हुई थी।

अचानक उनकी आँखें नम हो आईं और उन्होंने कहा- "यशू! यदि इस समय भगवान प्रकट होकर यह कहें की तेरी एक मन्नत पूरी कर दूँगा, तो मैं क्या मागूँगा, मालूम है?"

मैं अबोध बनी रही- "नहीं तो!"

वे बोले- "मैं यह वरदान माँगता कि माई नदी उलटी बहे।"

मैंने फिर पूछा- "क्यों?"

जबाव देने के बदले उन्होंने साप्ताहिक नेपाल वह पन्ना मेरे सामने कर दिया जिसमें कृष्णभूषण बल की कविता "इलाम तेरी गोद छोड़ मैं ठंडा बह गया" छपी थी। कविता को पढ़ने के बाद मुझे जवाब मिल गया था।

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वे शायद मेरे मन को पढ़ रहे थे - "क्या हुआ यशू?"

मैंने कहा- "कहाँ, कुछ भी तो नहीं हुआ।"

मैंने कहने के लिए तो कह दिया पर मेरे अंदर बहुत कुछ हो रहा था। उन्होंने फिर पूछा- "यशू, उस खिड़की से बाहर देखो तो!"

मैं सर को दाएँ तरफ मोड़कर खिड़की से बाहर देखने लगी। वाह! ऑर्किड! ऑर्किड को देखकर तो मैंने खुद को भुला दिया। न भुलाऊँ भी क्यों, ऑर्किड तो करीब मेरा पर्याय ही है। मैं भूल गई मैं बच्चा जननेवाली हूँ। खिड़की के बाहर दिखाई देनेवाले दृश्य में मेरी ज़िंदगी समाई हुई थी। खिड़की के बाहर लकड़ी के गमले लटक रहे थे। उनमें से लटकती ऑर्किड की बेलें अपनी छठा बिखेर रहीं थीं। दो तरफ से दो बेलें मिलकर माला बन गईं थीं। अरे! यह क्या? वो माला तो सिद्धार्थ ने पहन रखा है। विश्वास नहीं हुआ। आँखें मलकर फिर देखा, लगा कहीं भ्रम तो नहीं। नहीं भ्रम नहीं। वे सिद्धार्थ ही थे। ऐसा क्यों हो रहा है मुझे? घटनाएँ ही वैसे घट रही हैं। लगा मुझे इन खुशियों के लम्हों को सहेजकर रखना होगा। अनियन्त्रित बाढ़ के समान खुशियाँ तो किसी के लिए भी अच्छी नहीं है। पर कोई क्या कर सकता है। बाढ़ पर तो किसी का नियंत्रण होने से रहा। उसका अपना बहाव होता है, अपना रंग होता है। मैंने फिर बाहर देखा। वाह! कितना अच्छा दृश्य है, सिद्धार्थ ऑर्किड की माला पहने हुए। हुआ यों था कि सिद्धार्थ मुझे बाहर देखने को कहकर बरामदे में निकल गए थे और गमले के उस ओर से मुझे देख रहे थे। मेरी आँखों से खुशी के आँसुओं को भागने का मौका मिल गया था।

ऑर्किड की माला! सुनने में तो आश्चर्य लगता है। कहीं ऑर्किड से भी माला बनाता है कोई? माला बनाने के लिए तो हैं न सैकड़ों फूल। पर मैंने ऑर्किड की ही माला बनाकर सिद्धार्थ से शादी की दो बरस पहले। दो बरस पहले हम शादी करने के लिए दार्जीलिंग ही तो आए थे। महाकाल बाबा को गवाह रखकर हमने शादी की थी। हमारी शादी थी और लोग या बाराती जो भी हो हम दो ही थे। मैंने उन्हें ऑर्किड की माला पहना कर वरण किया था, वे मुझे सोने की अँगूठी पहना गए थे। हम पति-पत्नी बन गए थे। शादी के बाद थोड़ा सा नाश्ता कर हम बोटानिकल गॉर्डन में ऑर्किडों की बहार देखने चल दिए थे।

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मेरे सामने सफेद कपड़ों में नर्सें खड़ी थीं। मुझे अपने स्वप्नलोग से बाहर तो आना ही था। नर्सों के सफेद युनिफार्म में नीले अक्षरों में लिखा था: प्लान्टर्स नर्सिंग होम। तो अब मुझे मालूम हुआ मैं कहाँ थी। मुझे दार्जीलिंग के ही प्लान्टर्स नर्सिंग होम में लाया गया था। इसलिए कमरे के बाहर बरामदे में उतने सारे ऑर्किड थे। वर्तमान ने मुझे सचेत किया। अब हमारी ज़िंदगी का नया अध्याय शुरू करना है। पन्ने खाली हैं। पता नहीं, कैसे इन पन्नों को भरा जाएगा। मेरे और सिद्धार्थ की इच्छा से कलम चलेगी या नहीं? जब विधाता हमारे हाथ पकड़कर हमारी ज़िंदगी लिखवाते हैं तो हम में से कोई इन्कार नहीं कर सकता। यही तो विधि का नियम है। वो दिव्य हाथ कलम को जिधर चाहे नचा सकता है। बस अपनी इच्छा तो इतनी है कि विधाता हमारी बात सुनें और उस ओर कलम चलाएँ जिधर हम दो चाहते हैं।

सिद्धार्थ भीतर आ गए हाथ में एक नग गुलाबी ऑर्किड का फूल लेकर। ये सिद्धार्थ भी ना! कितनी जल्दी मेरे दिल को पढ़ लेते हैं। सच कहूँ अभी मेरा दिल कर रहा था की मैं ऑर्किड का फूल हाथ में लेकर उसे प्यार से देखती  रहूँ।

"सिद्धार्थ! सिद्धार्थ!" मैं संभाल नहीं पाई अपने आपको। उस मान्यता को कभी अहमियत नहीं दे सकी कि हिंदू स्त्री होकर पति को नाम से नहीं बुलाते। मेरे दिल में जब प्यार की लहरें उठती हैं तो मैं उन्हें नाम से ही बुलाती थी और अब भी वही करती हूँ।

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ठीक वैसा ही गुलाबी ऑर्किड का पौधा लेकर फिक्कल स्थित सिद्धार्थ एमरेल्ड अकादमी के कार्यालय में घुस आए थे जिस में मैं काम कर रही थी। ऑर्किड के फूल के साथ सिद्धार्थ पहली नजर में ही आँखों से होकर मेरे दिल में उतर चुके थे। मुझे ग्लानि भी हुई थी, अपने सोच के पति पर ऑर्किड के समान उनके व्यक्तित्व पर मैं कोई खोट नहीं लगा सकी। वे उस शिक्षा क्षेत्र के ’रिसॉर्स पर्सन’ थे और एमरेल्ड अकादमी में डेटा संकलन करने के लिए आए थे।

ऑर्किड से शुरू हुआ हमारा संबंध बाद में प्रणयसूत्र में बंध गया। मेरी ज़िंदगी में एक नया अध्याय खुला और लिखा जाने लगा।

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सिद्धार्थ की हाथों से ऑर्किड का फूल लेकर मैं खेलने लगी। उनका चेहरा देखा। वही ओजयुक्त और आकर्षक चेहरा। अचानक पेट में कुछ असहज होने लगा और मैं बाईं ओर करवट बदलकर लेट गई। मैंने देखा कमरे के बाईं ओर भी बाहर बरामदे में लकड़ी के गमलों में ऑर्किड के पौधे लटक रहे थे। पर न जाने क्यों वे ऑर्किड मुरझाए हुए से थे। मैं नहीं जानती थी, क्यों वे ऑर्किड क्यों मुरझा गए हैं। पर मुझे लगा मुरझाए हुए ऑर्किड अच्छी बात का संकेत नहीं कर रहे हैं। एक ठंडी लहर दौड़ गई भीतर तक।

उस दिन को याद कर मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस समय मैं शायद नासमझ ही थी। उस दिन भी मैं बाहर निकाल कर मुरझाए हुए ऑर्किडों की देखभाल कर रही थी। भूटान की राजधानी थिम्पू के पास के पहाड़ी बाजार टासी-छो-डोंग के एक कोने में हमारा घर था। पिताजी सबेरे ही दूकान की तरफ जा चुके थे। मैं उस समय दस बरस की थी। मेरे लिए संसार खुशियों से भरा पड़ा था। फिर ऑर्किड का बाग, सोने में सुहागा।

अचानक माँ चिल्ला उठी थीं- "यशोदा! यशोदा! जल्दी भीतर आ।" मैं दौड़कर अंदर पहुँच गई थी। माँ मुझे अंदर के कमरे में ले गईं और डरी आवाज में कहने लगीं- "जा मेरी बच्ची, पिछे गोदाम में जाकर धान की कोठरी में छिप जा। जिग्मे के सैनिक आ रहे हैं, कहते हैं वे लड़कियों का बलात्कार करते फिर रहे हैं।" मैं समझ नहीं पाई थी माँ क्या कह रही थीं। जानती नहीं थी बलात्कार क्या होता है। पर उस वक्त माँ की आज्ञा का पालन जरुरी था। मैंने कभी माँ-बाप की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया था। इसलिए घर के पिछवाड़े जाकर गोदाम में जाकर दो में से आधी भरी हुई धान की कोठरी में छिप गई। मैं जिस कोठरी में छिपी थी उसका ऊपरवाला हिस्सा यानी कि कोठरी का ढक्कन बांस की पतली पत्तियों को बुनकर बनाया हुआ था।

मैंने अंदर ढुक कर अपने आप को उसी ढक्कन से ढक दिया था। बस धान के सफेद कीड़े मेरे साथी बन गए थे। धान के धूल ने भी मुझे प्यार किया था। माँ ने कहा था-"जब तक मैं न कहूँ बाहर नहीं निकलना।" इसलिए धान के ढेर के ऊपर बैठी रही। मन में कुतूहल जाग उठा था आखिर यह

बलात्कार क्या बला है?

कुछ देर बाद बूटों की आवाजें सुनाई देने लगीं। वे उस भाषा में चिल्ला रहे थे जिसे मैं समझती नहीं थी। वे गोदाम में भी आ गए थे। मैं कोठरी में ही बैठी रही और वे कोठरी के चारों ओर घूम रहे थे।

इस घटना के बाद के कुछ दिन बहुत कष्टकर बीते थे। मैं मेरे मुरझाए ऑर्किडों की देखभाल नहीं कर सकी थी।  ज्यादातर वक्त छिपने में ही बीत गया था।  बूटवाले आकर माँ से अनेक सवाल करते रहते थे। माँ जबाव देते देते परेशान हो गई थी। मैं सब धान के कोठरी के अंदर से ही सुन लेती थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आता था पर, वे क्या चाहते हैं मुझे थोड़ा बहुत मालूम हो चुका था। फिर एक दिन हमें एक ट्रक में डालकर थिम्पू होकर फुन्सोलिंग में लाकर फेंका गया था।

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"क्या देख रही  हो यशू?" सिद्धार्थ के सवाल से मैं चौंक गई। मैंने उनकी तरफ बिन देखे ही कहा- "संसार देख रही हूँ सिद्धार्थ! कैसा विचित्र है यह संसार। सुख का ताना और दु:ख का बाना।"

सिद्धार्थ कह रहे थे-"यशू ! तुम इन आँखों से संसार को निहारती हो पर मैं उन्हीं आँखों में ज़िंदगी ढूँढता हूँ।" अब मैं उनका चेहरा बिन देखे नहीं रह सकी। वाह! क्या मुस्कुराहट है उनके चेहरे पर।

मैंने देखा उनके हाथों में कोई किताब थी। कब ये बाजार जाकर किताब भी खरीद लाए पता नहीं चला। मैंने पूछा- "किसकी किताब है?"

सिद्धार्थ ने किताब के आगे का हिस्सा दिखा दिया। "कथास्था" अरे वाह ! अब मजा आएगा। मैंने कथास्था की सिर्फ एक कहानी खीर पढ़ी थी। और कहानियाँ भी अब पढ़ने को मिलेंगी, यही सोचकर मन उछलकूद कर रहा था। मैंने फिर पूछा- "क्या आपने इन्द्र बहादुर राई जी का घर देखा है? चलिए न एक बार मिल आएँ उनसे!" यह क्या हो जाता है मुझे? मुझे साहित्य क्यों इतना आकर्षित करता है कि मैं यह भी भूल जाती हूँ कि मेरी डिलीवरी होनेवाली है?

सिद्धार्थ कह रहे थे- "ठीक है! तुम्हारी डिलीवरी के बाद उनसे आशीर्वाद लेने घर ढूँढते हुए जाएँगे।" मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

अचानक बाहर शोर सुनाई दिया। मैं अपने सामने लगे शीशे की दीवार से बाहर देखने की कोशिश करने लगी तो नर्स ने आ कर झट परदे बंद कर दिए। बाहर का शोर सुनाई तो दे रहा था पर साफ नहीं था। मैंने सिद्धार्थ  से अनुरोध किया- "जाइए न, बाहर देख आइए क्या हुआ है?" कुछ देर बाद वे लौटे और बुझे हुए चेहरे से कहने लगे- "दो लड़कों ने मिलकर एक दस साल की लड़की का बलात्कार कर दिया। लोगों ने उन्हे पीटकर अधमरा कर दिया तो पुलिस उन्हें पकड़कर यहाँ लाई है दवादारू के लिए।" यह सुनकर मैं अपने आपको रोक नहीं सकी। रुलाई जोर से फूट पड़ी और बाढ़ की तरह आँसू बहने लगे। उसी बाढ़ के साथ न जाने क्या कुछ बह गया। इस समय मैं अनुभव कर रही थी, समझ रही थी क्यों मेरी माँ ने मुझे उस समय धान की कोठरी में छिपाया था। बढ़ती उमर के साथ बलात्कार क्या है, यह तो मैं समझ गई थी पर भावनाओं की लहरें कभी कभार ही उठा करतीं। मेरा मन माँ के पति अगाध श्रद्धा से भर गया। साथ ही साथ मैंने उन दीदी को भी नमन किया जिन्होंने मुझे गुंडो से बचाया था।

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स्त्री की अस्मिता का महत्त्व मैं अच्छी तरह जान चुकी थी। पर मुझे सिर्फ इसलिए बेईज्जत किया जाता की मैं भूटानी शरणार्थी हूँ। पाँच साल पहले की घटना थी वह। मैं खुदुनाबारी शिविर से जंगल के रास्ते शनिश्चरे बाजार की तरफ जा रही थी। शायद दो किलोमिटर चली हूँगी, तीन बदमाश मेरा पीछा करने लगे। मैंने देखा वे वहशी चेहरे थे। साथ ही साथ उन चेहरों में एक अजीब घृणा थी, मैं समझ गई मैं भूटानी लड़की थी और शिविर में रह रही थी। मैं घबराकर दौड़ने लगी। शरणार्थी को फूटी आँख न देख पानेवाले समाज के उपज थे वे तीनों।  मैं जब लगभग हार चुकी थी, तब किसी ने मुझे कसकर पकड़ा और मैं गिरते गिरते बची। देखा, एक अधेड़ औरत है। पास ही एक झोंपड़ी थी। लगा वह औरत मेरी दीदी है। दीदी के हाथ में एक लाठी थी। पता नहीं क्यों दीदी को देखकर वे तीनों उल्टे पाँव लौट पड़े। उसके बाद दीदी मुझे अपने झोंपड़े में ले गई और पानी पिलाया। और मुझे समझाया कि अकेले जंगल के रास्ते नहीं चला करते। मैं उनके पति नतमस्तक हो गई।

मुझे दहाड़े मारकर रोते हुए देख सिद्धार्थ ने मेरी दोनों कलाईयाँ पकड़ी। शायद मुझे सुरक्षा की गहरी अनुभूति हुई, मैं शांत होती चली गई। लगा फिर ज़िंदगी अपनी राह पकड़ ली है। देखा सिद्धार्थ की आँखों में दृढ़ता की ढाल थी। अब मैं महफूज थी। मुझे किसी बात का डर नहीं था।

मेरे पेट का बच्चा मुझे परेशान कर रहा था फिर भी मेरे अंदर भावनाओं के उतार चढ़ाव को रोक नहीं पा रहा था। मुझे दाईं करवट लेते देख सिद्धार्थ आए और मुझे थामते हुए दाईं तरफ घुमाया।  दायीं तरफ करवट लेकर देखा, करीब सात साल के जुड़वाँ बच्चे थे, अपनी माँ के पास बैठे थे। मुझे उनसे बात करने की इच्छा हुई- "बेटे, तुम लोग कहाँ से हो?

"मंग्पु।"

"अच्छा ! मोहन ठकुरी को जानते हो?"

"क्यों नहीं,  वे तो  हमारे पड़ोसी हैं।"

"वे बहुत अच्छी कविताएँ लिखते हैं, है न?" मैंने कहा। मुझे लगा मोहन जी की कविताएँ बालकों के रूप में मेरे सामने खड़ी हैं।

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दर्द फिर परेशान कर रहा है। न जाने क्या हो? यह गर्भ का शिशु भी बाहर निकलने के लिए जल्दी मचा रहा है। ऐसा क्यों है? यह भी तो ज़िंदगी के किताब का एक पन्ना ही तो है। मैं कैसे खुदुनाबारी के शरणार्थी शिविर में आई,  क्यों और कैसे फिक्कल के एमरेल्ड अकादमी में शिक्षिका बन गई, शरणार्थी युवती के रूप में कितने कष्ट और दु:ख झेले, इन सब पन्नों को अभी मैं पलटना नहीं चाहती। मुझे लगा कम से कम ये सब बातें मेरे दिमाग में नहीं रहनी चाहिएँ जब सिद्धार्थ और मेरा बच्चा  इस धरती पर पाँव रख रहा हो। अभी मैं पीड़ा के बावजूद, बहुत खुश हूँ। मेरे पिछे अब शरणार्थी शब्द लटक नहीं रहा है। मेरा बच्चा अब नेपाली नागरिक होगा और सर ऊँचा करके जी सकेगा। पर हथेली की गुदगुदी, खिलखिलाना और ऑर्किड? वे सब तो ज़िंदगी के किताब के जिल्द ही तो हैं। नहीं?

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