नारी - पुरुष
काव्य साहित्य | कविता गरिमा श्रीवास्तव28 Dec 2008
कब तू मुझको ही सोचेगा?
कब मुझमें तल्लीन रहेगा?
मोहित हो सम्मोहित होकर
कुछ - मेरे आधीन रहेगा !
तेरी रातें कटती सोकर
मेरी आँखें जगती रोकर
नम आँखों के गीलेपन से
तू भी कुछ ग़मगीन रहेगा?
कब तू मुझको ही सोचेगा?
कब मुझमें तल्लीन रहेगा?
रिझा सकूँगी क्या मैं इतना?
कि कुछ पल तू रह जाएगा?
प्रेम सरोवर सिमटा जितना
बाँध तोड़ सब बह जाएगा
शेष शब्द सब धुल जाऐंगे
क़िस्सा बाकी रह जाएगा.....
मीठी यादों के लम्हों को
क्या फिर कोई दोहराएगा!
मैं धरती हूँ - तू अम्बर है
तुच्छ नदी मैं, तू सागर है
घिर-घिर के बरसा तू मुझ पर
रेगिस्तां सा फिर क्यों घर है?
कहते हैं, तू बलवत्ता है
तेरी ही जग में सत्ता है
उचित आचरण सीख पुरुष से
सर्वोत्तम है, गुणवत्ता है
पर जो नारी-मन को जाने
सही अर्थ में वीर वही है
भावों की भाषा पहचाने
भावुक वो - गम्भीर वही है
पथ से चुन ले चुभते काँटे
राहगीर - फ़कीर वही है
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