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नारी की पीड़ा से अभिभूत प्रेमचंद का साहित्य

वर्तमान समय में ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से ही नारी शोषण का शिकार रही है। वैदिक काल के पश्चात स्त्रियों की स्थिति गिरती ही चली गई। हिंदी साहित्य के आदि काल तो नारी की अवनति के सूचक है। इसके बाद नारी अस्तित्व को सुधारने के प्रयत्न होने लगे। साहित्यकारों ने अपनी कृतियों के माध्यम से नारी को जागरूक बनाया। विशेषकर प्रेमचंद की उदार दृष्टि उठी और उन्होंने नारी की विवशता रूपी जंजीरों को काटने का प्रयत्न किया तथा उसे जीवन की विशाल दृष्टि प्रदान की। इसलिए आधुनिक नारी को प्रेमचंद ने भारतीय उच्च आदर्शों में ढ।ल कर अपना स्वरूप स्थापित करने को प्रेरित किया है।

प्रेमचंद, हिंदी साहित्य में ऐसा नाम है जिसे शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो जानता नहीं होगा। प्रेमचंद न केवल अपनी कहानियों के कारण बल्कि उसमें प्राकृत बोलचाल की भाषा के कारण भी जन-जन के प्रिय कथाकार बने हैं। प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई 1880 ई० को बनारस से पाँच मील दूर लमही के पुश्तैनी मकान में हुआ था। ये एक साधारण परिवार मे रहते थे। इनके चाचा इन्हें नवाब राय कहते थे। इनके मित्र इन्हें बम्बूक नाम से बुलाते थे। ये अपने आपको प्रेमचंद कहते थे। प्रेमचंद का स्वभाव अत्यंत स्नेहशील एवम सेवामय था। प्रेमचंद अपने जीवन के विषय में कहते हैं, "मेरा जीवन सपाट समतल मैदान है जिसमें गड्ढे तो कहीं–कहीं पर हैं परतु टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, ग़हरी घाटियों और खण्डरों का स्थान नहीं है।"1

प्रेमचंद का आविर्भाव हिंदी साहित्य युग की एक महत्व पूर्ण घटना थी। सन १९१६-४५ के काल को प्रेमचंद युग कहा जाता है। भारतीय समाज का रूप निरंतर बदल रहा था और सामाजिक प्रक्रियाएँ व्यक्ति को प्रभावित कर रही थीं। साहित्य में भी परिस्थितियों के अनुसार बदलाव हो रहा था। उपन्यास एवं कहानियों के माध्यम से नारी चेतना एवं नारी स्वतंत्रता की बातें हो रही थीं। उस समय स्त्रियों की दशा अच्छी न थी। मध्यम व् निम्न वर्ग की स्त्रियों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नही थी और वह अपने अधिकारों से वंचित थी। ज़मींदार, महाजन आदि परिवार की स्त्रियाँ घरेलू कार्यों तक सीमित थी जबकि काश्तकार आदि वर्ग की स्त्रियाँ घरेलू कार्यों के साथ-साथ खेतों में भी काम करती करती थीं। मध्यम वर्ग के परिवारों में नारी-शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता था। ऐसे समय में प्रेमचंद ने नारी समस्या को मुख्य विषय बनाया तथा अपने उपन्यास एवं कहiनियों के माध्यम से नारी की दुर्दशा को उजागर किया, जो हिंदी साहित्य को दी हुई अपूर्व देन है। प्रेमचंद ने कहा है- नारी की उन्नति के बिना समाज का विकास संभव नहीं है, उसे समाज में पूरा आदर दिया जाना चाहिए तभी समाज उन्नति करेगा। प्रेमचंद की नारी भावना ने साहित्य में एक युगांतर प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद अतीत की ओर दृष्टिपात करते हुए सोचते हैं- "जब तक साहित्य का काम केवल मन बहलाव का सामान जुटाना, लोरियाँ गा-गा कर सुनाना, आँसू बहiकर जी हल्का करना था, तब तक उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा है, जिसमें उच्च चिंतन हो, जो हम में गति और बैचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि सोना मृत्यु का लक्षण है।"2.

प्रेमचंद ने नारी को प्रेम शक्ति का विकास माना है। प्रेमचंद नारी के विकास में विवाह को बंधन मानते हैं। वे कहते हैं- नारी का जीवन विवाह के बाद बदल जाता है। वैवाहिक असंगतियाँ समाज में अनेक विकृतियों को पनपने का अवसर देती हैं। इसलिए उन्होंने नारी की वैवाहिक समस्याओं से सम्बंधित अनेक कहानियाँ लिखी हैं -धर्म संकट, सौत, भूल, स्वर्ग की देवी, नया विवाह, सोहाग का शव, मिस पद्मा आदि। प्रेमचंद नारी के पुनर्विवाह पर बल देते हैं। वे कहते हैं - जब पत्नी मर जाए तो पुरुष दूसरा विवाह कर लेता है। इसलिए नारी को भी पति के मर जाने पर पुनर्विवाह का अधिकार है। इन्होंने विधवा-विवाह से सम्बंधित धिक्कार, स्वामिन, प्रेम की होली, बालक, बेटों वाली विधवा, ज्योति आदि कहानियाँ लिखीं जो प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियाँ भाग -१ में संकलित हैं।

प्रेमचंद ने नारी वर्ग की जिन समस्याओं पर प्रकाश डाला है, वे अधिकांशतः मध्यम वर्ग की नारियों की अपनी ही समस्याएँ हैं। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों एवं उपन्यासों, सेवासदन, निर्मला, गोदान आदि के माध्यम से मध्यम वर्ग की दुविधा भरी परिस्थिति का चित्रण किया है। मध्यम वर्ग की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह बौद्धिक विकास की दृष्टि से उच्च वर्ग के तुल्य होता है, किन्तु आर्थिक अभाव के कारण उसका जीवन विकसित नहीं हो पाता। परिणामतः वह असन्तोष और घुटन का अनुभव करता रहता है। आर्थिक अभाव और मर्यादा पालन से उत्पन्न अनेक प्रकार की कुरीतियों ने जिस रूप में इस वर्ग के नर नारियों को संतप्त किया है, उसका वर्णन प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य में उपलब्ध हो जाता है। डा० गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार, ''प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में दलित मानवता तथा नारियों के प्रति सहानुभूति का भाव प्रदर्शित किया है, इनका आदर्शवाद इनकी इसी सहानुभूति का परिणाम है"।3

मनोवैज्ञानिक आधार लेकर चलने वाला उनका साहित्य हिंदी-साहित्य के चरम सौंदर्य को प्रदर्शित करता है। इस दृष्टि से प्रेमचंद की टक्कर का कलाकार आज तक नहीं जन्मा है। विद्या निवास मिश्र ने स्मृति लेख की भूमिका में लिखा है "प्रेमचंद की स्मृति-लेख में नैतिक यथार्थवाद की जो अवधारणा रेखांकित की है, वह बहुत प्रासंगिक होते हुई भी अत्यंत अपेक्षित है"।4 सच ही है इनके साहित्य में जहाँ एक और युग का सच्चा चित्रण हुआ है, वहीँ दूसरी और प्रेम, सहानुभूति, तपस्या, सेवा आदि मूल्यों का जोरदार समर्थन उनमें है। स्त्री जीवन में आने वाले कष्टों को सहकर वह मैले कुचले, पुराने वस्त्र पहनकर, आभूषण विहीन होकर, आधे पेट सूखी रोटी खाकर, झोंपड़े में रहकर, मेहनत मजदूरी कर, सब कष्टों को सहकर भी आनंद से जीवन बिताती है परन्तु तभी जब उसे समाज में आदर प्राप्त हो, परिवार में प्रतिष्ठा हो। प्रेमचंद ने अनुभव किया है कि नारी धन की नहीं बल्कि प्रेम की भूखी है इसलिए वे प्रेम के अभाव में आजन्म कुँवारी रहने की कल्पना भी कर लेती है।

प्रेमचंद के साहित्य में धनिकों की स्त्रियाँ निर्धन स्त्रियों की अपेक्षा रोती हुई देखी गई है। यही कारण है कि धनाभाव में; ठाकुर का कुंआ की गंगा, पूस की रात की मुन्नी, सुगामी की लक्ष्मी, अनुभव की ज्ञानबाबू की पत्नी, पासवाली की गुलिया, चमत्कार की चम्पा, बालक की गोमती, गोदान की धनिया आदि कहानियों की पत्नियाँ अपने पति से केवल प्रेम का वरदान प्राप्त कर सुखी जीवन व्यतीत करने में समर्थ होती है। इसके विपरीत शिकार उपन्यास की वसुधा, वैश्य की लीला, निर्मला की निर्मला, सेवासदन की सुमन, कायाकल्प की मनोरमा, कर्मभूमि की सुखदा, नैना तथा गोदान की गोविंदी, आदि नारी पात्र प्रभूत रत्न राशि होते हुए भी पति के स्नेह के बिना निराशापूर्ण दुर्भाग्य का जीवन जीती है -प्रेमचंद की दृष्टि में पुरुष यद्यपि शक्तिमान है, फिर भी नारी के आगे वह दया का पात्र है और वह नारियों को आदेश देते हैं, "तुम लोग उन पर क्रोध मत करो, जिसे तुमने पैदा किया वह तुम्हारे हाथ से कैसे खराब हो सकते हैं?"5. नारी में दिव्य गुणों की स्थापना के लिए प्रेमचंद उसे पूर्ण शिक्षित करना चाहते थे। वे शिक्षा के साथ-साथ क़ानूनी अधिकार भी स्त्री को दिलाना चाहते हैं। प्रेमचंद ने नारी जीवन के विकास के लिए प्रमुख रूप से जिन दो चीजों को प्रमुखता प्रदान की है, उनमें दूसरा स्थान उसके अधिकारों का ही है। प्रेमचंद का मानना था, "स्त्री का पूर्ण विकास तभी सम्भव है, जब उसे पुरुषवत सारे अधिकार प्राप्त हों"।6 कानूनी अधिकारों के बिना पुरुष समाज उसे ठगता जाएगा। 'गोदान’ 'में नगर की नई नारी के उत्थान में विभिन्न व्यक्तियों और संस्थाओं ने जो-जो कार्य किए उसके लिए प्रेमचंद हृदय से आभारी हैं, इन्होंने माना है – "मैं तो धन्यवाद देता हूँ दयानंद को, जिन्होंने आर्य-समाज का प्रचार करके स्त्रियों और समाज का बड़ा उद्धार किया है।7

इनका साहित्य इनके समस्त युग का प्रतिनिधित्व करता है। इन्होंने एक ओर उपन्यास विधा को एक दिशा दी है साथ ही दूसरी तरफ नारी को वासना की धारणाओं से निक।ल कर ऐसे प्रांगण में ला दिया है, जहाँ उसकी महानता के दर्शन हो सकें। प्रेमचंद स्त्री स्वतंत्रता के पूर्ण समर्थक हैं। उनका मत है कि यदि युवक तथा युवती का परस्पर शुद्ध व्यवहार हो तो सहशिक्षा से भी किसी प्रकार की हानि नहीं है। "गबन" उपन्यास में उन्होंने एक स्थान पर सहशिक्षा के अनेक लाभ गिने हैं -"जहाँ लड़के-लड़कियाँ एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहाँ जाति-भेद बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाता है।"8 अर्थात यह मानना चाहिए कि जब पुरुष और स्त्री का आपस में स्नेह और सहानुभूति हो तो कामुकता का अंश थोड़ा ही रह जाता है। वैसे भी कामुकता विषयक पवित्रता को ही स्त्री के आधार की एकमात्र कसौटी नहीं माननी चाहिए और भी अनेक ऐसे गुण हैं, जिन्हें प्राप्त कर वह महान बन सकती है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, स्त्री के अभाव में पुरुष और पुरुष के अभाव में स्त्री की दुर्गति मानते हैं। 'गोदान' में भोला पत्नी के अभावजन्य कष्टों के अनुभव के बाद ही होरी से कहता है –‘मेरा तो घर उजड़ गया, यहाँ तो एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं है।’9 प्रेमचंद पत्नी की महत्ता को स्वीकार करते हैं क्योंकि एक के अभाव में जीवन का अलौकिक आनंद नहीं मिल सकता है। 'गबन 'में पंडित इंद्रभूषण की मृत्यु के पश्चात उनके भतीजे मणिभूषण ने उनके रुपये-पैसे अपने नाम करवा लिए, बंगला बेच दिया, नौकरों की छुट्टी कर दी और बेचारी विधवा रत्न को रहने के लिए जब ११०० रुपए का मकान तय किया तो उसकी आँखें खुली और कहा- "मैं अपनी मर्यादा की रक्षा स्वयं कर सकती हूँ, तुम्हारी मदद की कोई ज़रूरत नहीं है"।10 इसलिए प्रेमचंद स्त्री को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक होने को कहते हैं क्योंकि अधिकारहीन स्त्री के प्रति प्रेमचंद पर्याप्त दयावान हैं। वे कहते हैं- जब स्त्री शिक्षित होगी तभी उसे अपने अधिकारों के बारे में जानकारी मिलेगी। संस्था "विमेंसलीग" में प्रो० मेहता से प्रेमचंद ने जो भाषण दिलवाया है, उसमें भी उन्होंने पुरुष से अधिक स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया है ''मैं नहीं कहता देवियों को विद्या की ज़रूरत नहीं है, है पुरुषों से अधिक''।11

प्रेमचंद की नारी को जीवन की चरम शांति भारतीय आदर्शों में ही मिली है। प्रेमचंद के उपन्यास, कहानी की वे पात्राएँ जो आधुनिक थोथी सभ्यता के आकर्षण में फंस कर, फैशनेबुल बनी, उसका दुखद अंत भी प्रेमचंद ने दिखाया है, अगर ऐसा नहीं हो पाया है तो उस पात्र से प्रायश्चित कराकर तप, त्याग दान, सेवा, सादगी, सहानुभूति, विनम्रता आदि भारतीय भावों में उसे ढाल कर उसका उत्थान किया गया है। इस प्रकार प्रेमचंद ने नारी का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। प्रेमचंद नारी को प्रेम की शक्ति का रूप मानते हैं। वे नारी के अंदर सेवा, त्याग, बलिदान, प्रगतिशीलता, कर्तव्य, ज्ञान और पवित्रता आदि उदार भावों को देखना चाहते हैं। उन्होंने इन्ही आठ भावों को विभिन्न नारी पात्रों में स्थान -स्थान पर चित्रित करके दिखाया है। इनका मानना है यदि नारी इन गुणों को धारण करेगी तभी वह समाज और राष्ट्र के स्वरूप विकास में सहयोग कर सकती है।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

१. प्रेमचंद -जीवन और कृतित्व -हंसराजरहबर, i`0 १ साक्षी प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११०००३२, संस्करण १९४९
२. साहित्य का उद्देश्य - प्रेमचंद i`0 ५७, अक्षर पीठ प्रकाशन मोहिलनगर, इलाहबाद -६ संस्करण १९७२
३. बहुवचन पत्रिका -डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत i`0 -२, संस्करण २००९
४. बहुवचन पत्रिका. स्मृति लेखा-विद्या निवास मिश्र i`0 १०५ संस्करण २००९
५. प्रेमचंद घर में -प्रेमचंद i`0 १६५, शिव रानी देवी, सरस्वती प्रेस, बनारस संस्करण १९६५
६. प्रेमचंद के नारी पात्र –ओमप्रकाश अवस्थी, i`0 ७३, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, संस्करण१९५६.
७. .प्रेमचंद घर में –प्रेमचंद i`0 १३२, शिव रानी देवी, सरस्वती प्रेस, बनारस संस्करण १९६५.
८. गबन -प्रेमचंद i`0 १०३ सरस्वती प्रेस, बनारस, संस्करण१९२८
९. गोदान -प्रेमचंद i`0 १२ सरस्वती प्रेस, बनारस, संस्करण १९३६
१०. गबन -प्रेमचंद i`0 -२६२ सरस्वती प्रेस, बनारस, संस्करण१९२८
११. गोदान -प्रेमचंद i`0 १६५, सरस्वती प्रेस, बनारस, संस्करण १९३६

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