नदी और पहाड़
काव्य साहित्य | कविता डॉ. रिम्पी खिल्लन सिंह15 Dec 2019 (अंक: 146, द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)
अगर नहीं है नदी या पहाड़ यहाँ
तो ऐसा नहीं है कि कहीं नहीं होगा
नदी या पहाड़
कहीं तो होंगे ये दोनों ही
स्मृति में ही सही
ढूँढ़ निकालना होगा उन्हें
इससे पहले कि याद न रहे कि
नदी की लहरें चमकती हैं चाँदी की तरह
और पहाड़ लगातार ऊँचा होता जाता है
बुलंद इरादों की मानिन्द
कहीं तो होगा नदी या पहाड़
इस वक़्त यहाँ न भी दिखता हो तो भी
इससे पहले कि सड़कों पर लगातार चलते-चलते
हम भूल जाएँ कि गन्तव्य हमेशा ज़रूरी नहीं
कम से कम पहाड़ के ख़ूबसूरत और भयानक मोड़
इसकी गवाही आज भी देते हैं
हमें याद रखना होगा कि
नदी का गन्तव्य सागर है
दूर से दिखता जिसका क्षितिज कहता है
नदी मरी नहीं है
ज़िंदा है सागर के हृदय में
और लगातार धड़कती उसकी लहरों में
इससे पहले कि नदी, पहाड़, सागर
सब पर से उठ जाए आस्था
आओ नदियों के तटों पर फिर खड़े होकर
आस्था के दीपक जलायें
और तिरा दें उन्हें गहन धारा में
पहाड़ योगी की मानिन्द
उन तैरते दीपकों को दूर से निहारेगा
और बुलंद होंगे उसके हौसले
समंदर लगातार नदियों को आवाज़ देगा
और वो सुध-बुध खो लहराती सी उसमें जा मिलेंगी
अपना अस्तित्व खोकर
पा लेंगी सागर की गहराई
सागर धोयेगा पहाड़ के चरणों को
और विनीत भाव लिए करबद्ध मस्तक झुकाए
अपनी गहनता को
सौंप देगा आस्थाविहीन होती जा रही
दुनिया को
तब मानना ही पड़ेगा कि नदी है, पहाड़ है
और, समंदर नदी के प्रेम और पहाड़ की
बुलंदी का गवाह है
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