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नदिया का ख़त सागर के नाम

नदिया का यह ख़त जो सागर तक पहुँचा नहीं, लिखा था:
 
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
 
हमारे मिलन की आस में बेचैन थी मेरी हर तरंग,
शृंगार के लिए माँग लाईं इंद्रधनुष से सातों रंग,
क्या तुझे भी मेरा इन्तज़ार था यह तो बता सही,
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
 
आँख मूँद ऊँचे पर्वत से मैं बेधड़क कूद पड़ी थी,
मेरी लहरों में जाने कैसी मस्ती ही मस्ती भरी थी,
काश! तुझसे मिलकर बता पाती मैं बेवफ़ा नहीं,
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
 
कभी पूजी जाती थी मैं जिनके द्वारा सुबह-शाम,
उन्हीं भक्तों ने गंदगी उड़ेल मुझे कर दिया बदनाम,
मैंने झेली जो रुसवाई, उसका तुझे कुछ पता नहीं,
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
 
हरे भरे खेत लहलहाते थे जो सदा मेरे किनारों पर,
सभी नष्ट हो गए कुछ उद्योगपतियों के इशारों पर,
रात-दिन मुझे प्रदूषित कर आदमी कभी थका नहीं,
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
 
मेरी किलकारियाँ ऊपर वादियों में गूँज कर रह गईं,
नीचे आते-आते मैं आधी फिर सारी सूखकर रह गई,
अब कैसे जान पाऊँगी, तू मुझसे ख़ुश है, ख़फ़ा नहीं,
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं!
मैं तुझ तक पहुँच न पाई, इसमें मेरी ख़ता नहीं! 

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