नफ़रत (नरेश अग्रवाल)
काव्य साहित्य | कविता नरेश अग्रवाल1 Jun 2016
फँसने के बाद जाल में
कितना ही छटपटा ले पक्षी
उसकी परेशानी हमेशा बनी रहेगी
और उड़ान छीन लेने वाले हाथों से
प्राप्त हुआ भोजन भी स्वीकार करना होगा।
जिसने हमें जल पिलाया
भूल जाते हैं हम उसके दिए सारे क्लेश
और जो सबसे मूल्यवान क्षण हैं ख़ुशियों के
वे हमेशा हमारे भीतर हैं
बस हमें लाना है उन्हें
कोयल की आवाज़ की तरह होंठों पर।
जल की शांति हमें अच्छी लगती है,
जब बहुत सारी चीज़ें
प्रतिबिम्बित हो जाती हैं उसमें तब
लहरें नफ़रत करती हुई आगे बढ़ती हैं,
किनारे पर आकर टूट जाता है उनका दम्भ।
धीरे-धीरे सब कुछ शांत
चुपचाप जलती मोमबत्ती में
मेरे अक्षर हैं इस वक़्त कितने सुरक्षित।
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